गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१९

कबीर गरबु न कीजीऐ, चाम लपेटे हाड॥
हैवर ऊपरि छ्त्र तर, ते फुनि धरती गाड॥३७॥

कबीर जी कहते है कि इस शरीर का गर्व नही करना चाहिए।यह हमारा शरीर हड्डीयों पर लपेटी हुई चमड़ी मात्र तो है। गर्व किस बात का करना ? वे लोग जो कभी घोड़ो पर सवार होते थे, जिन के सिर पर छ्त्र रहते थे ।वे भी आखिर मे धरती मे गाड़ दिए जाते हैं।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे शरीर के नाशवान होने की बात फिर से कह रहे हैं।हम लोग जब दुसरों द्वारा सम्मान पाते है तो हम गर्व से भर जाते हैं।उस समय हम भुल ही जाते हैं कि जिस शरीर के सम्मान के कारण हम गर्व कर रहे हैं वह शरीर तो आज नही तो कल मिट्टी मे मिल ही जाना है।फिर हम उस पर गर्व करके अपने मोह को क्यों प्रगाढ करते रहते हैं। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि इस शरीर पर गर्व करना व्यर्थ है।

कबीर गरबु न कीजीऐ, ऊचा देखि अवासु॥
आजु कालि भुइ लेटणा, ऊपरि जामै घासु॥३८॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि बहुत से लोग अपने ऊँचे महल, घर देख कर गर्व से भर जाते हैं।लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि आज -कल में उन्हें जमीन पर लेटना पड़ेगा , मरना ही होगा। तब हमारा यह शरीर मिट्टी मे मिल जाना है और उस मिट्टी पर फिर घास उग जाएगी।

कबीर जी इन श्लोको में हमे यह बता रहे है कि हम किन किन बातों पर अपने अंहकार को पोषित करते रहते हैं।सब से पहले कबीर जी ने बताया कि हम शरीर के प्रति, दुसरो से सम्मान पाने के प्रति अंहकार  से भरते है। इस श्लोक मे कबीर जी कहते है कि धन संपत्ति के कारण भी लोग अंहकार से भर जाते हैं।लेकिन हम यह बात सदा भुले रहते हैं कि अंतत: यह सब यही छोड़ कर हमे चले जाना है।जो वस्तु सदा  हमारी नही रहनी उस पर अंहकार किस लिए करें ?हमे तो अंत मे इस शरीर को भी छोड़ कर जाना है इस शरीर ने यही मिट्टी मे मिल जाना है।वास्तव मे कबीर जी यह सब बाते हमे इस लिए समझा रहे है ताकि हमारा मोह दुनियावी राग रंग व दुनिया  की नश्वरता को देख समझ कर इस से छूट जाए और हम उस परमात्मा के प्रति प्रेम से भर सकें। उस परम पिता परमात्मा से एकाकार हो सकें।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१८

कबीर बेड़ा जरजरा, फूटे छेंक हजार॥
हरूऐ हरूऐ तिरि गए, डूबे जिन सिर भार॥३५॥

कबीर जी कह्ते है कि यह जो बेड़ा अर्थात समुद्री जहाज है यह बहुत ही नाजुक हालत मे हैं और इस मे हजारों छेद हो चुके हैं। लेकिन हजारो छेद होने के बावजूद भी जो हल्के हल्के थे। वे तो तैरते चले गए लेकिन जो अपने ऊपर भार लादे हुए थे वे डूब गए।

कबीर जी हमे कहना चाहते है कि यह जो हमारा जीवन है यह एक समुद्री जहाज की तरह है। जो संसार रूपी सागर मे तैर रहा है। यह जहाज भी ना जाने कितने जन्मों से यात्रा कर रहा है और इसमे अब तक ना जाने कितनें अच्छे बुरे संस्कारों और कामों के कारण हजारो छेद हो चुके हैं।जिस कारण यह बहुत जरजर हालत मे पहुँच चुका है।यह कभी भी डूब सकता है।लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि इस समुद्र मे वही जहाज तैर सकता है जो निर्भार है जिस का कोई भार नही है। अर्थात  जिस के मन मे कोई कामना शेष नही रह गई है।वही यहाँ तैर कर पार हो सकता है और जिन के सिर पर भार है अर्थात कामनाए हैं, धर्म कर्म की बातों से जो भरे हुए है, जिन्होनें अपने भीतर शब्दो के ज्ञान भंडार को इक्ठ्ठा किया हुआ है।ऐसे लोग इस संसार सागर को पार नही कर सकते।अर्थात किसी विषय के बारे मे जानकारी रखना अलग बात है और किसी बात का अनुभव करना अलग बात है।यहाँ पर कबीर जी जानकारी रखने वालो के सिर पर भार है ऐसा कह रहे हैं और जिन्हे अनुभव है वे ही हल्के हैं। यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।अत: हम निर्भार हो कर ही इस सागर से पार हो सकते हैं।

कबीर हाड जरे जिउ लाकरी, केस जरे जिउ घासु॥
ऐहु जगु जरता देखि कै, भईउ कबीरु उदासु॥३६॥

कबीर जी कह्ते हैं कि इस भौतिक शरीर के नष्ट होने पर हमारे शरीर को जब आग मे जलाया जाता है उस समय हमारी हड्डीयां लकड़ी की तरह जलती है और हमारे बाल घास की तरह जल कर राख हो जाते है। यह सब हम रोज ही अपने आस-पास घटता देखते रहते हैं। कबीर जी कहते हैं कि  इन्हीं बातो को देख कर मेरा मन संसारी बातों से ऊब गया, उदास हो गया।

कबीर जी इस मृत्यु के बारे मे बार बार हमे बता रहे हैं। उसका कारण यह है कि हम हमेशा अपनी मृत्यु को भूले रहते हैं ।यहाँ तक की जब हम मरघट पर किसी की अर्थी के साथ भी जाते है, उस समय भी हम अपनी मृत्यु को नही देख पाते।यदि हम कभी किसी दूसरे की मृत्यु में अपनी मृत्यु को देख सकें तो हम भी कबीर जी की तरह इस संसार की असलियत को पहचान पाएगें और इसे पहचानते ही हम भी कबीर जी की तरह इस संसार के प्रति उदास हो जाएगें।इसी बात को समझाने के लिए कबीर जी हमे अपना अनुभव बता रहे हैं।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१७

कबीर कसऊटी राम की, झूठा टिकै न कोइ॥
राम कसऊटी सो सहै,जो मरि जीवा होइ॥३३॥

कबीर जी कह्ते है कि उस परमात्मा के समक्ष झूठा कभी नही टिक पाता।क्योकि उस परमात्मा की कसौटी ही ऐसी है कि जब तक मनुष्य अपने अंहकार को नही मार लेता तब तक वह उस तक नही पहुँच पाता।अर्थात राम की कसौटी को वही सहन कर सकता है जो जीते जी मृतक के समान जगत मे व्यवाहर करता है।

कबीर जी कहना चाहते है कि झूठा आदमी लाख चाहे वह अपने झूठ के कारण कभी सफल नही हो सकता।क्योकि सत्य को झूठ के सहारे पाया ही नही जा सकता।सत्य को पाने के लिए सत्य ही मदद कर सकता है और परमात्मा तो परम सत्य स्वरूपा है।इस लिए उसे कोई झूठ के सहारे कैसे पा सकता है ? आगे कबीर जी समझाते है कि राम की इस कसौटी वही स्वीकारता है जो दुनियावी मोह माया के प्रति उदासीन हो चुका है, मर चुका है और उस परमात्मा के प्रेम के प्रति जाग्रित हो चुका है। अर्थात जीने लगता है। यही एक मात्र कसौटी है जो यह दर्शाती है कि तुम राम के प्रति समर्पित हो चुके हो या नही।

कबीर ऊजल पहिरहि कापरे, पान सुपारी खाहि॥
ऐकस हरि के नाम बिनु ,बाधे जम पुरि जांहि॥३४॥

कबीर जी कहते है कि दुनियावी आदमी साफ सुथरे कपड़े पहन कर और पान सुपारी खा कर आनंदित दिखने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन परमात्मा के नाम के बिना मृत्यु के भय की फाँस मे बधे रहते हैं और अंतत: मृत्युलोक मे चले जाते हैं।

कबीर जी यहाँ झूठे लोगो के व्यवाहर के बारे मे समझाना चाहते हैं  कि ऐसे लोग उजले कपड़े अर्थात ऐसे कपड़े पहने रहते है जिस से यह आभास होता है कि ये बहुत धर्म-कर्म को मानने वाले है। वे लोग इस तरह का व्यवाहर करते है कि जैसे अब बहुत आनंदित अवस्था मे रह रहे हैं यहाँ कबीर जी पान सुपारी खाने के भाव को इसी आशय से कह रहे हैं। लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि उस परमात्मा के नाम के बिना कोई जितना मर्जी दिखावा करे लेकिन इनके भीतर मृत्यु का भय हमेशा इन्हें सताता रहता है।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१६

कबीरा तुही कबीर तू ,तेरो नाऊ कबीरु॥
राम रतनु तब पाईऐ,जऊ पहले तजहि सरीरु॥३१॥


कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि तू ही सब से बड़ा है और सर्वत्र तू ही है। तेरा नाम ही कबीर है अर्थात भगत और भगवान मे कोई भेद नही है।लेकिन यह भेद तभी मिटता जब हम इस शरीर का मोह छोड़ देते है।तभी हमे उस परमात्मा की पहचान हो पाती है अर्थात राम रूपी रतन को पाया जा सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम अपने शरीर के मोह के कारण ही उस से दूर रहते है। शरीर के मोह के कारण ही हम विषय विकारो से ग्रस्त होते हैं। लेकिन शरीर का होते हुए भी नकारना आसान नही होता। इसे तभी नकारा जा सकता है जब हम उस परमात्मा के नाम मे पूरी तरह डूब जाएं। अर्थात कबीर जी अपने अनुभव को बताते हुए हमे समझा रहे हैं कि वह परमात्मा सब से बड़ा है और उस का नाम बी उसी की तरह सबसे बड़ा है। यदि इस राम रूपी रतन को तुझे पाना है तो पहले इस शरीर का मोह छोड़ना होगा। तभी तुझे राम रूपी रतन की प्राप्ती होगी।


कबीर झंखु न झंखीऐ, तुमरो कहिउ न होइ॥
करम करीम जु करि रहे, मेटि न साकै कोइ॥३२॥


कबीर जी पहले कहे गए श्लोक को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते है कि मोह ग्रस्त होने के कारण हम हमेशा उस परमात्मा से शिकायते ही करते रहते हैं कि उसने हमे वह नही दिया जो हमे मिलना चाहिए था। लेकिन कबीर जी कहते है कि तुम्हारे कहे अनुसार तो कुछ हो ही नही रहा और ना कभी होना ही है। होता तो वही है जो कृपालु परमात्मा कर रहा है। उस के किए कामों को कोई बदल नही सकता।

कबीर जी कहना चाहते है कि यदि हमे उस राम रतन को पाना है तो सबसे पहले यह शिकायत करनी छोड़नी पड़ेगी। क्योकि किसी को प्रार्थना और निवेदन करने की जरूरत ही नही है। वह कृपालु परमात्मा तो हमारी जरूरतो के अनुसार ही सब कुछ कर रहे हैं, सभी कुछ हमे देते रहते हैं। अर्थात कबीर जी के कहने का भाव यह है कि हमे उसकी रजा मे ही रहना चाहिए, तभी इस शरीर का मोह छूटगा। जब शरीर का मोह छूटगा तो उस राम रतन रूपी पारस को पाने के हम अधिकारी हो जाएगे।नही तो व्यर्थ ही उस से शिकायते करते रह जाएगें। जबकि सभी जानते है कि उस परमात्मा के कीए को कोई बदल नही सकता।