गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४३




कबीर सती पुकारै चिह चड़ी, सुनु हो बीर मसान॥
लोगु सबाइआ चलि गईउ, हम तुम कामु निदान॥८५॥

कबीर जी कहते हैं जिस तरह एक सती चिता पर चड़ कर मसान की आग से प्राथना करती है कि देखो सभी लोग अब जा चुके हैं अब मुझे सिर्फ तेरा ही सहारा है। अब तू मेरे इस शरीर को जला दे ताकि मैं अपने पति के पास पहुँच सकूँ। ठीक उसी तरह आत्मा भी शरीरिक मोह के छूटने पर उस परमात्मा में लीन होने के लिए आतुर हो उठती है।

कबीर जी इस श्लोक मे सती का उदाहरण दे कर हमे समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार एक सती स्त्री, अपने पति के प्रेम के कारण, उस की मृत्यु होने पर संसार व अपने जीवन का मोह छोड़ कर उसी के साथ जाना चाहती है ताकि उस का साथ हमेशा पति के साथ बना रहे। ठीक उसी तरह जब तक हम भी दुनियावी मोह को छोड़ कर उस सती स्त्री की तरह अपने भीतर उस परमात्मा के प्रति प्रेम नही करेगें, तब तक उस की प्राप्ती नही हो सकती।


कबीर मन पंखी भईउ, उडि उडि दह दिस जाइ॥
जो जैसी संगति मिलै, सो तैसो फलु पाइ॥८६॥

कबीर जी कहते हैं कि हमारा मन तो पंछी के समान है।वह तो उधर ही उड़ जाता है जहाँ उसे अच्छा लगता है क्योकि उस के लिए दसों दिशाएं खुली हुई हैं। इस लिए वह जिस दिशा मे जाता है उसी दिशा के गुण दोष अपना लेता है अर्थात वैसा ही चुग्गा खाने लगता है। वह जैसा चुग्गा खाता है वैसे ही गुण- दोष उस मे आ जाते हैं अर्थात इन्सान जैसी संगत मे बैठता है वैसे ही रंग में रंग जाता है।

इस श्लोक के माध्यम से कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि भले ही हमारा मन बहुत चंचल है फिर भी हमे चाहिए कि अपने मन को उस परमात्मा के प्रेम में लगाएं।ताकि हम सही दिशा की ओर मन को ले जा सके।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४२



कबीर ऐसा को नही, मंदरु देइ जराइ॥
पांचऊ लरिके मारि कै, रहै राम लिउ लाइ॥८३॥

कबीर जी कहते है कि भले ही हम परमात्मा की बंदगी,उपासना आदि करते हैं, हमे उस से शांती भी मिलती है लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि फिर भी ऐसा कोई नही है अर्थात कोई विरला ही है..जो अपने भीतर के पाँचों कामादिक विषय विकारों को नष्ट कर पाता है....और फिर उस परमात्मा के ध्यान में डूब जाता है। अर्थात उस के ध्यान मे अपने शरीर की सुध भी बिसरा देता है।

कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते हैं कि भले ही हम साधना करते समय ऐसा महसूस करते हैं कि हमारे पाँचो विकार क्षीण हो चुके है.हमने उन्हे जीत लिआ है लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है....साधना के कारण यह विषय -विकार कुछ देर के लिए शांत भले ही हो जाते हैं लेकिन हमारे भीतर से नष्ट नही हो पाते।वास्तव मे कबीर जी हमे सचेत कर रहे हैं कि जब तक यह हमारे भीतर विषय -विकार हैं तब तक यह समझे कि हमारी साधना अधूरी ही है....जिस दिन यह विषय-विकार सताना हमेशा के लिए बंद कर दे ....तभी उस परमात्मा में लीनता प्राप्त होती है।


कबीर ऐसा को नही, ऐहु तनु देवै फूकि॥
अंधा लोगु न जानई, रहिउ कबीरा कूकि॥८४॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यहाँ ऐसा कोई भी नही है जो इस शरीर को जला दे। अर्थात इस शरीर का मोह छोड़ दे। क्योकिं सभी लोग शरीर के प्रति मोह रखने के कारण ही विषय -विकारों मे फँसते है। लेकिन किसी को भी इस बात का पता नही होता। इसी कारण कबीर जी लोगों को अंधा कह रहे हैं।विषय -विकारों में डूबने के कारण लोगों को सही और गलत का एहसास नही होता। जबकि कबीर जी कहते हैं कि मैं चिल्ला चिल्ला कर सब को सचेत कर रहा हूँ। अर्थात वे संत लोग जो इन विषय -विकारों से मुक्त हो चुके हैं हमे सदा सचेत कर रहे है।लेकिन हम मोहग्रस्त होने के कारण अंधे ही बनें रहते हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी वास्तव में एक गुप्त रहस्य को खोल रहे हैं। क्योंकि हम लोग सदैव बाहरी दुनिया से ही संबध साधे रहते हैं.....इसी लिए हम शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं।जबकि शरीर के भीतर के ईश्वरी अंश के प्रति हमारा ध्यान कभी जाता ही नही।यदि हम इस ईश्वरी अंश के प्रति सचेत हो जाएं तो इस शरीर का महत्व अपने आप समाप्त हो जाता है।इसी बात कि ओर यह इशारा किया जा रहा है। जिसे हम हम शरीर व बाहरी दुनिया के प्रति मोह ग्रस्त होने के कारण नही देख पाते।

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४१

कबीर सात समुंदहि मसु करऊ, कलम करऊ बनराइ॥
बसुधा कागदु जऊ करऊ, हरि जसु लिखनु न जाइ॥८१॥


कबीर जी कहते है यदि सात समुद्रों की स्याही बना ली जाए और सभी जगंल के वृक्षों  की कलमें बना ली जायें और सारी धरती को कागज बना ले तो भी हम उस परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान नही कर सकते । अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि उस परमात्मा की महिमा,गुणों को हम किसी भी उपाय से जान ही नही सकते। कोई भी उपाय नही हैं कि परमात्मा की सारी महिमा का, सारे गुणों को, हम लिख पायें।अर्थात कोई भी उस परमात्मा के कामों का वर्णन नही कर सकता।

कबीर जाति जुलाहा किआ करै, हिरदै बसे गुपाल॥
कबीर रमईआ कंठि मिलु, चूकहि सरब जंजाल॥८२॥


कबीर जी कहते है कि आमजन के मन में जाति-पाति को लेकर अक्सर ऐसा भाव रहता है कि छोटी जाति होने के कारण परमात्मा की प्राप्ती मे बाधा आती है...वास्तव मे ऐसा प्रचार बड़ी व ऊँची जाति के लोगो द्वारा ही किया गया है।किसी को बार बार इस तरह प्रताड़ित करने के कारण प्रताड़ित व्यक्ति हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। इस श्लोक मे कबीर जी कह रहे हैं कि अब जब मुझे परमात्मा ने अपने गले से लगा लिआ है ऐसे मे इस तरह के समस्त जाल अपने आप ही नष्ट हो गए हैं।अर्थात जाति को लेकर मेरा भ्रम मिट गया है। उस परमात्मा की शरण मे आने के बाद प्रभुमय ही हो जाता है,ऐसे मे कोई भ्रम कैसे रह सकता है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४०

कबीर बैदु कहै हऊ ही भला, दारु मेरै वसि॥
ऐह तऊ बसतु गुपाल की, जब भावै लेऐ खसि॥७९॥


कबीर जी कहते हैं कि हकीम कहता है कि मैं बहुत समझदार हूँ क्योकि मैं उस हर दवा को जानता हूँ जो किसी भी प्रकार के कष्ट का निवारण कर सकती है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यह शरीर तो उसी परमात्मा का दिया हुआ है,इस लिए वह जब उसकी मर्जी होती है हमसे छीन लेता है।

कबीर जी इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं कि भले ही हकीम  (विज्ञानिक) यह मान कर चल रहा है कि वह सभी परेशानीयों का हल खोज रहा है या जिन का हल खोज चुका है। वह सब अब मेरे हाथ मे हैं अर्थात सभी कष्ट की दवा मेरे हाथ मे है, लेकिन कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सभी कुछ हमारे हाथ मे होते हुए भी वस्तुत; वह हमारे हाथ मे नहीं है क्योकि यह सब तो उसी परमात्मा की ही दी हुई हैं। इन सभी वस्तुओ को, हमारे शरीर को, हमारी सारी खोजों को, वह परमात्मा हम से कभी भी छीन सकता है। ऐसे मे यह कहना कि हमारे पास सभी कष्टो के निवारण का उपाय है नासमझी है।


कबीर नऊबति आपनी, दिन दस लेहु बजाइ॥
नदी नाव संजोग जिउ, बहुरि न मिल है आइ॥८०॥


इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक के संदर्भ मे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यदि तुझे यह भ्रम हो ही गया है कि सभी कुछ तेरे हाथ मे हैं, तो दस दिनों तक इस सभी का आनंद उठा ले ,मौंज मस्ती कर ले।लेकिन तेरी यह मौंज मस्ती ठीक उसी तरह है जिस तरह नदी पार करते समय नाव मे बैठे मुसाफिरो का आपस मे कुछ देर के लिए मेल-मिलाप हो जाता है,लेकिन अपने गंतव्य पर पहुँच कर उतरने के बाद फिर वे आपस मे कभी नही मिलते।ठीक इसी तरह यह शरीर यह समय तुझे वापिस नही मिलने वाला।