मंगलवार, 28 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ४०

किआ हंसु किआ बगुला, जा कउ नदरि धरे॥
जे तिसु भावै नानका, कागहु हंसु करे॥१२४॥

सरवर पंखी हेकड़ो,फाहीवाल पचास॥
ऐहु तनु लहरी गडु थिआ, सचे तेरी आस॥१२५॥

कवणु सु अखरु,कवणु गुणु,जिहबा मणीआ मंतु॥
कवणु सु वेसो हऊ करी,जितु वसि आवै कंतु॥१२६॥

उपरोक्त श्लोक गुरु नानक देव जी का है,इस श्लोक मे वह परमात्मा के प्रति समर्पित भावना के भाव को दर्शाते हुए कहते हैं कि वह हंस है या बगुला ,इस बात से कोई फर्क नही पड़ता।क्योकि उस परमात्मा की नजर मे सभी समान हैं,वह तो सभी पर बराबर अपनी कृपा बनाए रखता है।यदि कोई इस कृपा को ग्रहण कर ले तो हंस और बगुला प्रवृति के व्यक्ति ही नही बल्कि अति विकारी काक बुद्धि व्यक्ति भी उस की कृपा पा जाता है।उस परमात्मा की कृपा तो निरन्तर सब पर बरसती रहती है।अर्थात गुरु जी कहना चाहते हैं कि चाहे हंस हो या बगुला,जिस के ऊपर उस परमात्मा की कृपा हो जाती है,जिसे वह परमात्मा अपना बना लेता है वह काक जैसा दुर्बुधि होते हुए भी उस की कृपा के कारण तर जाता है।

अगले श्लोक में कहा गया है कि इस संसार रुपी सरोवर में पंछी अकेला ही है।लेकिन इस अकेले पंछी को फँसाने वाले पचासों हैं जो इसे कभी भी अपने जाल में फाँस सकते हैं।सरोवर रुपी संसार की यह जो विकार रुपी लहरे हैं यह इस जीव रुपी पंछी को अपने साथ बहा के ले जानें को सदा तत्पर हैं।इन सभि से बचने के लिए एक मात्र उस परमात्मा की ही आस है।इसी लिए यह शरीर इन विकारों से दुखो से बचने के लिए कुछ भी करने के लिए सदा तैयार हो जाता है।अर्थात तेरी आस लगाए रहता है।अर्थात गुरू जी कहना चाहते हैं कि यह जो संसार है इस में पचासो तरह के प्रलोभन हैं जिस कारण हम उन मे फँस जाते हैं और दुखी होते हैं।ऐसे मे हम उस परमात्मा की आस मे,उस की कृपा पाने की लालसा में सभी तरह के उपाय करते रहते हैं।क्योकि हमारा दुखो से छुटकारा कराने वाला एक मात्र सहायक वह परमात्मा ही है।अन्य किसी की मदद हमे इन दुखों से कभी निजात नही दिला सकती।

अगले श्लोक में गुरू जी हमारे सामने कुछ प्रश्न रख रहे हैं कि उस परमात्मा की आस तो हम करते हैं ,लेकिन हम उसकी कृपा को कैसे पा सकते है? वह कौन -सा अक्षर है?वह कौन -सा गुण है ? वह कौन -सा मंत्र है? ऐसा क्या है कौन -सा वेश है जिसे धारण करने से हम उस परमात्मा की कृपा को पा सकते हैं,वह परमात्मा हमारे भीतर वास करने लगता है?अर्थात गुरू जी हमारे भीतर उस परमात्मा की उपस्थिति का एहसास कराने के लिए ये सवाल हमारे सामने रख रहे हैं जो अक्सर हम विचारते हैं कि कैसे उस परमात्मा की कृपा को पाया जा सके,इस का उपाय क्या है?हम सभी के मन मे कभी ना कभी यह जिज्ञासा अवश्य पैदा होती है कि हम जान सके कि वह कौन -सा अक्षर है,वह कौन -सा गुण है, वह कौन -सा मंत्र है,वह क्या है जिसे धारण करने पर वह परमात्मा हमारे भीतर प्रकट हो सके?

शनिवार, 18 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ३९

हौ ढूढेदी सजणा,सजणु मैडे नालि॥
नानक अलखु न लखीऐ,गुरमुखि देऐ दिखालि॥१२१॥

हंसा देखि तरंदिआ, बगा आइआ चाउ॥
ढुबि मुऐ बग बपुड़े, सिरु तलि उपरि पाउ॥१२२॥

मै जाणिआ वड हंसु है,तां मै कीता संगु॥
जे जाणा बगु बपुड़ा,जनमि न भेड़ी अंगु॥१२३॥

यह श्लोक गुरू रामदास जी के उच्चारित किए हुए हैं।यहाँ पर फरीद जी की बाणी के साथ बीच बीच मे अन्य गुरूओ की बाणी भी यथा स्थान दी गई है।उस का कारण मात्र इतना है कि जब गुरू जी किसी बात को अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं तब प्रमाण स्वरूप अन्य गुरू ओ की बाणी वहाँ जोड़ दी गई है।इस श्लोक मे गुरू रामदास जी कहते हैं कि हम उस परमत्मा रूपी साजन को,अपने प्यारे को हमेशा बाहर ही ढूंढते रहते हैं जब कि वह सदा से ही हमारे साथ हैं।लेकिन क्योंकि वह अलख है अर्थात उसे लखा नही जा सकता, हमारी पहचान मे वह नही आ पाता। क्योकि जिसे हमने कभी देखा ही नही उसे हम पहचाने गें कैसे? इसी लिए वह हमारे पास ही होता है और हम उसे पहचान नही पाते।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है हम जिस परमात्मा को बाहर खोज रहे हैं वह तो हमारे ही पास है। लेकिन हम उसे पहचान नही पाते।उस की पहचान तो कोई गुरू ही करवा सकता है जो उसे जान चुका है।वही हमे उस परमात्मा से साक्षात्कार करा सकता है।

अगला श्लोक मे गुरू अमरदास जी कहते है। कि हंसों को तैरता देख कर बगुलों को भी तैरने की इच्छा जाग्रित हो जाती है।लेकिन क्योकि वे तैरना नही जानते इस लिए वे डूब जाते हैं।इस तैरने के उपक्र्म में उन का सिर तो पानी में डूब जाता है और पैर की ओर हो जाते हैं।अर्थात इस श्लोक में गुरू अमरदास जी कहना चाहते हैं कि जो लोग हंस के समान हैं अर्थात उस प्रभु के प्यार मे डूबे हुए है,उन के आनंद को देख कर बगुला भगत लोग भी वैसा दिखावा करने लगते हैं।लेकिन ऐसे बगुला भगत कभी भी उस परमात्मा को नही पा सकते।क्युँकि परमात्मा को सिर्फ दिखावे से अर्थात दिखावे वाले फोकट के कर्म कांडो को करने से नही पाया जा सकता।ऐसा करने वालों को कभी कोई लाभ प्राप्त नही होता।अर्थात उस परमात्मा की कृपा कभी प्राप्त नही होती।

अगले श्लोक मे गुरू जी कहते हैं कि कई बार ऐसा होता है कि इस तरह के बगुला भगतों को हम हंस समझ बैठते हैं,हम सझते हैं कि वह प्रभु का बहुत बड़ा प्रेमी है।वह प्रभु की कृपा पा चुका है। यह सोच कर हम उस का संग करने लगते हैं।लेकिन जब हमे यह पता चलता है कि जिसे हम हंस समझ रहे हैं वह तो वास्तव में एक नकारा बगुला है।जो सिर्फ हंस होने का ढोग कर रहा है यह अगर पता चल जाता तो क्यों कोई इन के पीछे लग कर अपना समय,अपना जीवन व्यर्थ बर्बाद करता।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि इस संसार में असली और नकली की पहचान मे हम अकसर भूल कर बैठते हैं और हम बगुले को ही हंस समझ कर अर्थात ढोंगी गुरु को ही सच्चा गुरू मान कर उस का अनुसरण करने लगते हैं।यह सब तो हमारी पहचानने की शक्ति की कमी के कारण ही होता है।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ३८

फरीद दरवेसी गाखड़ी,चोपड़ी परीति॥
इकनि किनै चालीऐ,दरवेसावी रीति॥११८॥

तनु तुधै तनूर जिउ,बालण हड बलंनि॥
पैरी थकां,सिरि जुलां,जे मूं पिरी मिलंनि॥११९॥

तनु न तपाऐ तनूर जिउ, बालणु हड न थालि॥
सिरि पैरी किआ फेड़िआ,अंदरि पिरी निहालि॥१२०॥

फरीद जी कहते हैं कि फकीरी का रास्ता बहुत मुश्किल लगता है।लेकिन यह फकीरी तभी मुश्किल लगती है जब तुम्हारी फकीरी झूठी होती है,बनावटी होती है।कोई विरला ही होता है,जो इस सब्र को साध ,इस फकीरी के रास्ते चल कर,उस परमात्मा का कृपा पात्र बन जाता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि यह फकीरी का रास्ता,प्रभु की कृपा पाने का रास्ता उन लोगों के लिए कठिन हो जाता है जो सिर्फ दिखावा करते हैं।क्युं कि मात्र दिखावा करने से उस प्रभु की कृपा कभी नही पाई जा सकती।असल मे इस दुनिया में ऐसे लोग ही ज्यादा हैं जो इस तरह का दिखावा करते रहते हैं।असली फकीरी वेश धारण करने वाला तो कोई विरला ही होता है।

फरीद जी कहते हैं कि शरीर को तंदूर की तरह तपा देना और अपनी हड्डीयों को अपनी साधना से जलाना।कुछ लोग इसी तरह की साधना करके उस परमात्मा की निकटता पाने की कोशिश में लगे रहते हैं।वे तीरथयात्रा करते है,और उन सभी जगहो पर पहुँचने के लिए कष्ट उठाते रहते है।जहाँ से उन्हें ऐसा लगता है कि हमारे इस तरह के कामों को करने से,हमे उस परमात्मा की कृपा मिल जाएगी।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जो ईश्वर की कृपा पाना चाहते है वे किसी भी रास्ते से चल कर उस तक पहुँचने का यत्न करते हैं,चाहे वह रास्त कितना भी कठिन हो।यदि किसी को इन रास्तों से भी प्रभु की प्राप्ती हो जाए तो उसे बहुत सस्ता सौदा जानना।असल मे फरीद जी जीव की, ईश्वर पाने की चाह को ही यहाँ ठीक बता रहे हैं।

फरीद जी आगे हमें समझाते हुए कहते हैं कि इस तरह अपने शरीर को तपाने या अपनी इन हड्डीयों को जलाने की जरूरत नही है और ना ही इधर-उधर भटकने की ही जरूरत है।यदि तुम्हारे अंदर उस परमात्मा की कृपा पानें की ललक पैदा हो गई है तो उस परमात्मा को अपने भीतर ही तलाश करले। वह तो तेरे भीतर ही बैठा हुआ है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जब जीव में उस परमात्मा को पानें की चाह पैदा होती है तो वह किसी भी जतन से उस की कृपा पाना चाहते है। ऐसे वक्त में यदि वह अपने भीतर झांक ले तो वह उसे अपनें भीतर पा कर निहाल हो सकता है।