मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११६


कबीर साधू संग परापती,लिखिआ होइ लिलाट॥
मुकति पदारथु पाईऐ,ठाक न अवघट घाट॥२३१॥

कबीर जी कहते हैं कि साधू का संग उन्हें प्राप्त होता है जिनके भाग्य में लिखा होता है अर्थात बिना परमात्मा की इच्छा के कुछ नही मिलता।साधू की संगति के कारण ही जीव संसारिक झंझटों से छूटता है और उसके रास्ते में कोई रूकावट नही आती और वह मुश्किल पहाड़ी रास्तो को आसानी से पार कर लेता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि  साधू के  संग से ही प्राप्ती होती है।क्योकि जो साधक उस परमानंद को प्राप्त कर चुका है वही जीव को रास्ता दिखा सकता है।लेकिन साधू भी तभी मिलता है जब परमात्मा की कृपा होती है।कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब तक हम अपनी मर्जी चलाते रहते हैं तब तक कुछ नही होता ।विषय -विकारों से मुक्ति भी तभी मिलती है जब साधू का साथ मिल जाता है,फिर कठिन  रास्ते भी आसान हो जाते हैं।

कबीर एक घड़ी आधी घरी,आधी हूँ ते आध॥

भगतन सेती गोसटे,जो कीने सो लाभ॥२३२॥

कबीर जी कहते हैं कि एक घड़ी -भर के लिये या आधी से भी आधी घड़ी के लिये भी परमात्मा के भक्त के साथ परमात्मा के संबध में कोई बात-चीत की जाती है तो उससे भी बहुत लाभ होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब जीव उन साधको से परमात्मा के संबध मे वार्तालाप करता है जो उस परमात्मा को जान चुके हैं,तो कम से कम समय मे भी अधिक लाभ पाया जा सकता है।क्योकि भक्त जो भी कहता है वह उस परमात्मा को जानने के अनुभव के आधार पर ही कहता है।जिस के द्वारा जीव का सही मार्गदर्शन होता है।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११५


कबीर ऐसा बीजु बोइ,बारह मास फलंत॥
शीतल छाइआ गहिर फल,पंखी केल करंत॥२२९॥

कबीर जी कहते हैं  कि यदि बीज बौना है तो ऐसा बीज बोवो जिस से उगने वाला वृक्ष जो पूरे बारह महीने फल देता रहे और जिससे ठंडी छाँव व वैराग्य पैदा करना वाला फल प्राप्त हो। जिसपर पंछी आनंद पूर्वक रह सके।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा का नाम ही एक ऐसा बीज है जो सदा सुख व आनंद प्रदान करने वाला है।जिस को अपने ह्र्दय मे बसा पर शीतलता व अडोलता को पाया जा सकता है। जिसके ह्र्दय में यह नाम रूपी बीज बस जाता है फिर वह जो भी काम करता है उसे आनंद ही प्राप्त होता है,क्योकि परमात्मा के साथ एकाकार होने के बाद जीव जो भी कर्म करता है उसमे परमात्मा की मर्जी भी शामिल होती है।

कबीर दाता तरवरु दया फलु,उपकारी जीवंत॥

पंखी चले दिसावरी,बिरखा सुफल फलंत॥२३०॥

कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का भक्त एक ऐसा वृक्ष है जिस में सदा दया रूपी फल ही लगता है।ऐसे भक्त सदा दूसरों की भलाई में ही जीवन-भर लगे रहते है।परमात्मा के भक्तों का लक्ष्य ही उपकार करना है।लेकिन संसारी जीव सदा संसारिक धँधों मे ही लगा रहता है और परमात्मा का भक्त सदा यही सीख देता रहता है कि उस घट घट वासी परमात्मा से प्रेम करो जिस से ह्र्दय में दया का निवास हो सके।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो साधक परमात्मा के साथ एकाकार हो चुके हैं वे दूसरों के प्रति सदा दया ही दिखाते है और सदा ऐसी कोशिश करते रहते हैं कि सभी उस घट घट वासी परमात्मा की शरण मे जायें। जिस से उनके भीतर दया और प्रेम पैदा हो सके।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११४

कबीर आखी केरे माटुके, पलु पलु गई बिहाइ॥
मनु जंजाल न छोडई, जम दीआ दमामा आइ॥२२७॥

कबीर जी कहते हैं कि जीव पलक झपकने जितनी देर भी उस परमात्मा को याद नही करता और इसी तरह उसका जीवन बीत जाता है और वह संसारिक मोह माया में ही रमा रहता है। उसे होश तब आता है जब यमराज आ कर उसे मौत की खबर देता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम संसारिक कामों मे इतना रम जाते है कि हमें उस परमात्मा का कभी ध्यान ही नही आता।हम इन्ही जंजालो मे उलझे रहते हैं और हमारि मृत्यू का समय आ जाता है।कबीर जी यहाँ हमे होश में जीने का संकेत देना चाहते  हैं ताकि जीव जीवन का सदुपयोग कर सके।

कबीर तरवर रूपी रामु है , फल रूपी वैराग॥ 
छाइआ रूपी साधु है, जिन तजिआ बा्दु बिबादु ॥२२८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हम संसारिक मोह माया में ही ना रमे रहे और यह जान ले कि राम का नाम एक वृक्ष के समान गुणकारी है जिस पर वैराग रूपी फल लगता है और इस वृक्ष की छाया साधु रूपी है जिस के कारण हम संसारिक वाद-विवादों की उलझनों से निजात पा जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसारिक मोह माया को तोड़ने के लिये परमात्मा का आसरा लेना चाहिए। जिसका नाम का ध्यान करने से हमारे भीतर वैराग का जन्म होता है और जीव का मन साधु के स्वाभाव की तरह हो जाता है जो कभी भी व्यर्थ की बातों मे नही उलझता।अर्थात कबीर जी यहाँ हमारी मोह निद्रा को तोड़ने का रास्ता सुझा रहे हैं।ताकि हम सही रास्ते पर चल सके।