गुरुवार, 28 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३४

काइ पटोला पाड़ती कंबलड़ी परिरेइ॥
नानक घर री बैठिआ सहु मिलै जे नीअति रासि करेइ॥१०४॥

म: ५॥फरीदा गरबु जिना वडिआईआ धनि जोबनि आगारु॥
खाली चले धणी सिउ टिबे जिउ मीहारु॥१०५॥

फरीदा तिना मुख डरावणे जिना विसारिउन नाउ॥
ऐथै दुख घणेरिआ अगै ठऊर न ठाउ॥१०६॥

यह श्लोक गुरु अमरदास जी का लिखा हुआ है।वह कहते हैं कि यह जो परमात्मा द्वारा पटोला रूपी जीवन मिला है,कपड़ा मिला है, इसे फाड़ कर हम कबंल क्यों बनाएं ? हमें तो जहाँ परमात्मा ने भेजा है वही पर बैठकर,अच्छी नियत से अपने कार्यो को करना चाहिए।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि यह जो जीवन मिला है वह तो मात्र परमात्मा की बंदगी के लिए ही मिला है,इस लिए इस जीवन का उपयोग क्युँ कर जीवन के अन्य व्यर्थ कामों के लिए करें ? हमे तो नेक नियत से उस परमात्मा के वही कार्य करते रहना चाहिए जिस के लिए उसने हमें यहाँ भेजा है।

यह श्लोक गुरु अर्जुनदेव जी का लिखा हुआ है।इस श्लोक में गुरु जी कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन का जन्म धनी परिवारों में होता है,वह लोग दूसरो की अपेक्षा ज्यादा स्वास्थ व बलवान शरीर के होते हैं।ऐसे परिवारो के लोगों को कई बार धनी और बलवान होनें का अंहकार हो जाता है।इस लिए ऐसे अहंकारी लोग यह जीवन पा कर भी व्यर्थ गवां देते हैं जैसे बारिश का पानी बरसने पर पहाड़ रीते ही रह जाते हैं।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि हमे धन,यौवन के मद में चूर होकर अपने जीवन को व्यर्थ नही गंवाना चाहिए।बल्कि परमात्मा ने जो भी दिया है उसके लिए उस का धन्यवाद करते हुए,उस परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।कही ऐसा ना हो कि अपने धन और यौवन के अंहकार के कारण हमारा भी वही हाल हो जैसे ऊँचे पहाड़ो का बारिश होने पर होता है।वह परमात्मा तो अपनी कृपा हम पर निरन्तर बरसाता रहता है,कही ऐसा ना हो कि अपने अंहकार के कारण हम इस से वंचित रह जाए।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि उन लोगों के मुँह बहुत डरावने हो जाते है जो उस परमात्मा को भूले रहते हैं।ऐसे लोगों को इस लोक में भी बहुत दुख भोगनें पड़ते हैं और मरनें के बाद भी आगे भटकना ही पड़ता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जो लोग किसी भी कारण से,धन के अंहकार के कारण या अपने बलवान होने के अंहकार के कारण ,उस परमात्मा को भूले रहते हैं उन लोगों के मुँह बहुत डरावने हो जाते हैं अर्थात ऐसे लोग अपने आप को दूसरॊ से ऊँचा व श्रैष्ट समझने लगते हैं,उन्हें दूसरो को अपने रौब में दबानें मे बहुत आनंद मिलनें लगता है,जिस कारण गरीब उन की नाराजगी से भय खाने लगते हैं।ऐसे लोग अपने बल का प्रयोग कर दूसरो को दुखी करने से भी नही चूकते। फरीद जी कहते है कि ऐसे लोग दुसरो को दु्ख देने के कारण स्वयं भी अनंत: दुख उठाते हैं और उस परमात्मा को भूले रहने के कारण मरने के बाद भी सदा भटकते रहते हैं।

गुरुवार, 21 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३३

फरीदा हउ बलिहारी तिन पंखिआ जंगल जिंना वासु॥
ककरु चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु॥१०१॥

फरीदा रुति फिरी वणु कंबिआ पत झड़े झड़ि पारि॥
चारे कुंडा ढूंढीआं रहणु किथाउ नारि॥१०२॥

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी कंबलड़ी परिरेउ॥
जिनी वेसी सरु मिलै सेई वेस करेउ॥१०३॥

फरीद जी कहते हैं कि मैं उन पंछीओ के बलिहारी जाता हूँ जो जंगल में रहते है और जो भी मिलता है वह कंकर पत्थर सब चुग लेते हैं।लेकिन कभी भी उस परमात्मा का ध्यान नही छोड़ते।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है हैं कि वे लोग धन्य हैं जो प्रभु की मर्जी के अनुसार प्रभु जहाँ भी उन्हें रखता है,वहीं बहुत खुशी से रहते हैं।,परमात्मा जैसे भी उन्हें रखता है वह वैसे ही खुश रहते हैं । कभी भी परमात्मा से कोई शिकायत नही करते।परमात्मा की जो भी देता है उसे वह सहज ही स्वीकार करते हैं,खुशी से उस का दिया भोगते हैं।अपनी कोई भी माँग उस परमात्मा पर नही थोपते। कि हे प्रभू तूनें हमे यह नही दिया,वह नही दिया।बल्कि उस परमात्मा के प्रति सदा धन्यवाद से भरे रहते हैं।

आगे फरीद जी कहते हैं कि इस जगंल का मौसम,इस दुनिया,संसार का मौसम निरन्तर बदलता रहता है।यहाँ पर
ऐसा मौसम भी आता है जब किसी भी वृक्ष पर कोई भी पत्ता नही रहता।बस ठूँठ मात्र ही शेष रह जाता है।चारों दिशाओ में ढूँढने पर भी कुछ भी स्थिर नही नज़र आता।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि समय कभी एक-सा नही रहता।कभी जीवन में दुख तो कभी सुख जीवन मे आते जाते रहते हैं।जैसे मौसम बदलता है वैसे ही यह जीवन बदलता रहता है।इस संसार मे कुछ भी ऐसा नही है जो सदा एक-सा बना रहता है।नारि अर्थात यह प्राकृति कही भी स्थिर,अपरिवर्तनशील नही है।यह निरन्तर बदलती रहती है।

फरीद जी कहते हैं कि एक ही कपड़े को फाड़ कर अपने ओड़नें और पहनने के लिए वस्त्रों का उपयोग करना भी मेरे लिए बहुत सुखद साबित होगा,यदि ऐसा करने से मेरा परमात्मा मुझ पर खुश हो जाता है। अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा यदि हम को अभावों में भी रखता है तो हमें उस से शिकायत क्या करनी।क्योकि यदि हमारे इसी तरह रहने से परमात्मा की कृपा हमे मिलती है तो ऐसे ही उस की रजा में रहने मे क्या हर्ज है।क्युँकि हमारा मूल ध्येय तो आनंद की प्राप्ती करना ही होता है।

गुरुवार, 14 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३२

फरीदा दरीआवै कंनै बगुला,बैठा केल करे॥
केल करेदे हंझ नो, अचिंते बाज पऎ॥
बाज पऎ तिसु रब दे, केलां विसरीआं॥
जो मनि चिति न चेते सनि,सो गाली रब कीआं॥९९॥

साडे त्रै मण देहुरी,चलै पाणी अंनि॥
आइउ बंदा दुनी विचि,वति आसूणी बंनि॥
मलकल मऊत जां आवसी,सभ दरवाजे भंनि॥
तिना पिआरिआ भाईआं, अगै दिता बंनि॥
वेखहु बंदा चलिआ चहु जणिआ दै कंनि॥
फरीदा अमल जि कीते दुनी विचि,दरगह आऎ कंमि॥१००॥


फरीद जी कहते हैं कि जिस प्रकार बगुला तलाब के किनारे बैठा केल करता रहता है,मस्ती करता रहता है और इस मस्ती करने में इतना मस्त हो जाता है कि उसे यह खबर ही नही रहती कि उस के आस-पास क्या हो रहा है?वह निश्चिंत हो मस्ती करता रहाता है कि इसी बीच कब बाज़ उस पर झपट पड़ता है उसे कुछ मालूम ही नही हो पाता।जब वह अपने आप को बाज़ के चुगंल मे फँसा पाता है तो उस की सारी मस्ती उसे भूल जाती है।जब कि उसे कभी इस बात का ध्यान ही नही होता कि उस के साथ ऐसा भी कुछ असमय घट सकता है।सो परमात्मा कब क्या करता है यह कोई नही जानता। अर्थात फरीद जी बगुले का उदाहरण देते हुए हम से कहना चाहते हैं कि यह जो जीव है,दुनिया में आ कर दुनिया के राग रंग मे इतना खो जाता है,उसे यह भूल ही जाता है कि परमात्मा ने जो यह जीवन हमे दिया है यह एक दिन समाप्त हो जाना है,उस परमात्मा के हुकम से ना जाने कब यह मौत हमे अपने साथ ले जाएगी?हमे तो होश ही तभी आता है जब हम इस मौत की पकड़ मे आ जाते हैं।तब जिन राग रंगों मे हम खोये हुए थे वह सब हम मौत के भय से भूल जाते है। हम इस मौत के बारे में कभी विचार ही नही करते,जब कि यह सब परमात्मा ने पहले से ही तय कर रखा है।

फरीद जी आगे कहते है कि यह जो जीव का साढे तीन मन का शरीर है ,यह अन्न और पानी के सहारे चलता रहता है और यह जो जीव संसार मे आया है वह बहुत ही सुन्दर सी आस लेकर आया है।लेकिन इस की आस कभी पूरी नही होती और यह जो मौत है यह इसके शरीर के सभी अंगो को क्षीण करते हुए,इसे आ घेरती है और जीव मर जाता है,तब यही अपने प्यारे साथी हमारे शरीर को बाधँ कर ,दपनाने के लिए,जलाने के लिए रख देते हैं।उस समय यह चार कंधों पर सवार हो कब्रिस्तान,शमशान की ओर चल देता है।ऐसे समय में,जहाँ हमे मरने के बाद जाना है वहाँ हमारे वही सतकर्म हमारे काम आते हैं जो हमने जीवन मे किए थे। अर्थात फरीद जी हम से कहना चाहते है कि यह जीवन तो एक दिन समाप्त हो ही जाना है,ऐसे मे हमे व्यर्थ के कामों मे अपना समय नही गंवाना चाहिए।हमे ऐसे कार्य करने चाहिए जो हमारे मरने के बाद भी हमारी सहायता कर सके।

गुरुवार, 7 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३१

कंधी उते रुखड़ा किचरकु बंनै धीरु॥
फरीदा कचै भांडे रखीऎ, किचरु ताई नीरु॥९६॥

फरीदा महल निसखण रहि गऎ,वासा आइआ तलि॥
गोरां से निमाणीआ,बहसनि रूहां मलि॥८७॥

फरीदा मऊते दा बंना ऐवै दिसै, जिउ दरीआवै डाहा॥
अगै दोजकु तपिआ सुणीऎ,हूल पवै काहारा॥
इकना नो सभ सोझी आई,इकि फिरदे वेपरवाहा॥
अमल जि कीतिआ दुनी विचि,से दरगह उगाहा॥९८॥

फरीद जी कहते है कि नदी के किनारे लगा हुआ वृक्ष कितनी देर तक धीरज रख सकता है? और यह जो कच्चा मिट्टी का बर्तन है इस बर्तन में पानी कितनी देर तक रह सकता है?अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जिस तरह नदी के किनारे लगा हुआ पेड़ नदी की बहती धारा के प्रभाव से कभी भी नदी के पानी के साथ बह सकता है। और जिस प्रकार कच्चे बर्तन मे ज्यादा देर पानी नही रह सकता।क्युँकि पानी मिट्टी के कच्चे बर्तन को धीरे धीरे गलाता रहता है। ठीक इसी तरह जीव का यह जीवन होता है।जो निरन्तर कम होता जा रहा है।यहाँ फरीद जी जीवन के नाशवान होने की ओर संकेत कर रहे हैं।

आगे फरीद जी कहते है कि यह जो धन संम्पदा, महल आदि नजर आ रहे हैं,वह सभी तो यही के यही ही रह जाते हैं।जीव को मरने के बाद जमीन के नीचे वास करना पड़ता है।हमारी आत्माएं,रूहें हमारे मरने के बाद इन्हीं कब्रों मे वास करती हैं।फरीद जी कहना चाहते है कि यह जीवन एक दिन समाप्त हो जाएगा और हमारे द्वारा यह जो धन संपदा एकत्र की गई है यह भी हमारे साथ नही जानी।मरने के बाद हमारी रुहें अंधेरी कब्र मे वास करती है।सो ऐसे मे हमे इस जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिए।

फरीद जी कहते है कि जिस तरह बह्ती नदी अपने किनारों को काटती हुई आगे बढती रहती है और किनारे की मिट्टी टूट-टूट कर नदी के पानी मे गिरती रहती है,उसी तरह मृत्यु रूपी नदी, जीव रूपी किनारे को, अपने साथ ले जाती रहती है।फरीद जी आगे कहते हैं कि इस के आगे जीव के जैसे कर्म होते हैं ,उसी के अनुसार उस की गति होती है।जो जीव जीवन मे अच्छे कर्म करते हैं,वह वहाँ शोभा पाते हैं,इज्जत पाते हैं और जो जीव व्यर्थ अपना जीवन गंवाते हैं,वे वहाँ दुख पाते हैं।वास्तव मे हमारे किए गए कर्म ही हमारी सदगति व दुर्गति का निर्धारण करते हैं।अर्थात फरीद जी हम से कहना चाहते हैं कि इस मौत ने तो एक दिन हमे अपने साथ ले ही जाना है।इस लिए हम क्युँ ना अपने जीवन मे उस परमात्मा की बंदगी कर ले ताकी अंत में हमे इस लिए पछताना ना पड़े कि हमारा जीवन व्यर्थ ही चला गया।