मंगलवार, 25 दिसंबर 2007

कबीर के दोहे

कबीर भांग माछली सुरापान, जो जो प्रानी खाएं।

तीरथ बरत नेम किए, सभैं रसातल जाएं॥


कबीर खूब खाना खीचरी,जा महि अमृत लौन।

हेरा रोटी कारनें,गला कटावे कौन॥


अर्थ-कबीर दास जी कहते हैं कि जो लोग तीरथ,व्रत तथा पूजा पाठ करते हैं यदि वह भांग, मच्छली व शराब आदि का सेवन करता है तो उस के किए हुए शुभ कार्य,तीरथ,व्रत तथा पूजा पाठ आदि व्यर्थ हो जाते हैं।

हमें सादा भोजन करना चाहिए ,जैसे खिचड़ी जिसमे नमक रूपी अमृत मिला होता है।ना कि स्वाद के लिए हमे मास आदि के लिए किसी का गला काटना चाहिए।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2007

कहे कबीर सुनों भाई साधों....

हम उसे हमेशा तलाशते रहते हैं। सभी जगह तलाशते हैं । सिर्फ अपने को भूल जाते हैं। भूलने का कारण है कि जब हम अपनी आँख खोलते हैं तो सब से पहले दूसरे को ही देखते हैं।यह प्रवृति जीवन -भर बनी रहती है।जब कि वह सदा से हमारे पास ही मौजूद रहता है।

मोको कहाँ ढूँढों बंदें ,मै तो तेरे पास में।
ना मैं बकरी ना मैं भेड़ी,ना मैं छुरी गंडास में॥

नही खाल नहीं पोछ में,ना हड्डी ना मास में।
ना मै देवल ना मैं मस्जिद,ना काबे कैलास में॥

ना तो कौनों क्रिया करम में,नहीं जोग बैराग में।
खोजी होए तो तुरतै मिलिहों,पल-भर की तलास में॥

मैं तो रहौं सहर के बाहर,मेरी पुरी मवास में।
कहैं कबीर सुनों भाई साधों,सब साँसों की साँस मे॥

मंगलवार, 18 दिसंबर 2007

झूठे रिश्ते-नातों से कैसे छूटें?

हम जिन्हें अपना मानते हैं,क्या वह हमारे अपने होते हैं?इस समस्या का समाधन कैसे होगा?इसी बात को सिखों के नौवें गुरू,गरू तेग बहादुर जी ने इस शबद के जरीए अपनें श्रदालुओं को उपदेश देते हुए यह यह शबद लिखा। यह सबद "गुरू ग्रंथ साहिब" से लिया गया है।


जगत में झूठी देखी प्रीत॥

अपने ही सुख स्यों सब लागे,क्या दारा क्या मीत॥

मेरौं-मेरौं सभै कहत है,हित स्यौं बांधियों चीत॥

अंन्तकाल संगी नही कोई,एह अचरज है रीत॥

मन मूरख अजहू नही समझत,सिख दे हारियो नीत॥

नानक भव जल पार परै,जो गावै प्रभ के गीत॥



अर्थ-गुरू जी कहते है कि इस जगत में जो भी संबध हैं वह सभी झूठे हैं। क्योकि वह सभी स्वार्थ के कारण बनें हैं।जब तक आप लाभ देते रहेगें...सुख देते रहेगें तभी तक वह टिके रहेगें। चाहे वह संबध आप की पत्नी के साथ हो या किसी अपने मित्र के साथ हो। सभी अपने संबधों को लेकर यह मेरा बेटा है...यह मेरा भाई है...अर्थात उसे बिल्कुल अपना मान लेते हैं। जबकि यह सारे सबंध मात्र स्वार्थ के कारण ही जुडे़हुए हैं।इस का पता हमें उस समय लगता है जब हमारा अंतिम समय यानी कि मृत्यू जब हमारे सिर पर आ कर खड़ी हो जाती है,तभी इस बात का आभास होता है कि मैं जिसे अपना मान रहा था वह इस समय मेरी कोई सहायता नही कर सकता। गुरू जी कहते हैं कि बहुत अजीब बात है जिन्हें हम अपना मानने का भरम पाले रहते हैं,वह अम्तिम समय में किसी काम की नही निकलती। लेकिन हमारा मन बहुत मूरख है,यह सब आए दिन हमारे सामने होता रहता है,लेकिल हम इससे कोई सीख नही लेते।अंत मे गुरू जी कह रहे हैं कि वही इंसान इस भवजल यानि कि संसारिक दुखों से निजात पाता है,बधंनों से छूटता है जो उस परम पिता परमात्मा के गीतों को गाता है।अर्थात उस प्रभू का ध्यान करता है।

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

ईश्वर की प्राप्ती कैसे हो?

इंसान सदा परमात्मा को बाहर खोजता रहता है। इसी बात को सिखों के नौवें गुरू,गरू तेग बहादुर जी ने इस शबद के जरीए अपनें श्रदालुओं को उपदेश देते हुए यह यह सबद लिखा।यह सबद "गुरू ग्रंथ साहिब" से लिया गया है।



शबद

काहे रे बन खोजन जाई॥

सरब निवासी सदा अलेपा,तोही संग समाई॥

पुहुप मध्य जो बास बसत है,मुकर माहीं जैसे छा।ई॥

तैसे ही हरि बसे निरन्तर, घट ही खोजों भाई॥

बाहर भीतर ऐको जानहु,एहि गुरू गियान बताई॥

जन नानक आपा बिन चीन्हें,मिटै ना भरम की काई॥




अर्थ-गुरू जी कहते है कि तुम परमात्मा को खोजनें बनों,जंगलों मे क्यों जा रहे हो। वह परमात्मा तो सभी जगह मौजूद है और सदा से तेरे साथ ही रहता है। अर्थात तेरे भीतर समाया हुआ है। जिस प्रकार फूलों में उस की खुशबू और सीसे में छाया समाई रहती है। उसी तरह परमात्मा तेरे अंदर बसा हुआ है। उसे तू अपनें भीतर ही तलाश कर भाई। बाहर और भीतर जो कुछ भी है उसे एह ही जान अर्थात बाहर और भीतर वही समाया हुआ है,ऐसा जान ले। यह भेद गुरू बताता है। गुरू तेग बहादुर जी कहते हैं-हे भाई! बिना अपनें को जानें तू इस भरम रूपी काई को अर्थात बिना अपनें को जानें कि मैं कौन हूँ उस परमात्मा को नही जान सकता।

बुधवार, 21 नवंबर 2007

सत्य-दर्शन

जो सत्य को धार्मिक ग्रंथों में या बाहर खोजते हैं वह सत्य को नही पा सकते। यदि आप को सत्य को तलाशना है तो अपनें भीतर तलाशें। तभी आप उसे पा सकेगें।

आप को कोई भी गुरू सत्य का अनुभव नही दे सकता। अपना अनुभव ही सत्य का दर्शन करा सकता है।आप कभी भी सत्य की परिभाषाएं जान कर सत्य को नही पा सकते।

ज्ञानी वही है जो अपनें ज्ञान को त्याग कर सत्य की ओर बढ़ता है।
ज्ञान से कर्मों का नाश हो जाता है।

रविवार, 18 नवंबर 2007

गुरू नानक जीवन गाथा(संक्षित)(गुरू नानक जयंति पर )



गुरू नानक देव जी के पावन जन्मदिवस पर जो की २४ नवम्बर२००७ को
मनाया जा रहा है।आप सब को बहुत-बहुत बधाई।


गुरू नानक देव जी का जन्म १४६९ को १५ अप्रेल को पंजाब के तलवंडी नामक एक गाँव में हुआ था। जो अब पाकिस्तान में है।उन का जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था।उन के पिता का नाम मेहता कालू था और माता का नाम माँ तृपता जी था। उन की एक बड़ी बहन थी जिसका नाम बीबी नानकी जी था।

वह बचपन से ही बहुत मेधावी व शांत स्वाभाव के थे। उन में बचपन से ही प्रभू के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना थी। कहा जाता है कि वह जब पैदा हुए थे रोने की बजाए हँसते हुए पैदा हुए थे। उन के जीवन में अनेक ऐसी घट्नाएं हुई जो उन के अवतारी पुरूष होनें का आभास कराती थी।

जब वह कुछ बड़े हुए तो उन्हें विधा प्राप्ती के लिए भेजा गया। अक्षरज्ञान प्राप्ती के बाद,उन्होनें अपनें गुरू से कहा कि "आप अपनें शिष्यों को सच्ची व नेक बातें बताईए...और साथ ही प्रभू के बारे में बताएं।’यह सुन उन का गूरू उन से बहुत प्रभावी हुआ। वहाँ उन्होनें अपनें गुरू को बहुत -सी प्रभु के बारे में गहन बातें भी बताई।

नौ साल की उमर में उन्हें हिन्दू परिवार में जन्म के अनुसार जनेऊं धारण करनें के लिए प्रेरित किया गया। लेकिन जब उन्हें जनेऊं पहनानें का समय आया तो उन्होनें जनेऊं पहननें से साफ इंनकार कर दिया। इस पर जनेऊं धारण संस्कार करवानें वाले पंडित ने पूछा कि आप जनेऊं पहननें से क्यों इंनकार कर रहे हैं?तब उन्होनों कहा कि इस जनेऊं के धागॊं को बाँधनें से क्या मेरे भीतर सत्य,संतोष,अहिंसा...आ जाएगी? यह धाँगा तो पुराना होनें पर टूट जाएगा या घिस जाएगा। तब क्या होगा? इस से क्या मेरा मन अपने बस में रहेगा और मै बुराईयों से दूर रहूँगा?...यदि आप को मुझे जनेऊं पहनाना है तो ऐसा जनेऊं पहनाईएं जो कभी भी ना टूटे और ना ही कभी पुराना पड़े। यह सुन सभी उन के तर्क पर हेरान हो गए।

उन के बचपन की एक घटना है ।एक दिन गर्मीयों की तपती दोपहरी को गाँयें चरा रहे थे तो वहाँ बड़ा-सा छायादार पेड़ दिखा ,जिसे देख वह कुछ देर सुस्तानें के लिए उस के नीचें लेट गए। लेकिन उन्हें वहाँ लेटते ही नींद आ गई और वह गहरी नीदं में सो गए। उन्हें यह याद ना रहा कि वे यहाँ गाँयें चरानें आएं हैं। उन की गायों ने पास के एक खेत को ही चर डाला। जब शाम को उन की नीदं टूटी तो वह अपनी गायॊं को लेकर वापिस घर लौट गए।


इस घटना को गाँव के ही एक निवासी रायबुलार ने देखा और जाकर उस खेत के मालिक को खबर दी कि नानक की गायों ने तुम्हारा सारा खॆत चर लिआ है। यह सुन कर उस खेत के मालिक ने जाकर इस बात की शिकायत नानक के पिता मेहता कालू जी को दी।यह सुन कर वह बहुत गुस्सा हुए। उन्होनें नानक को बुलाया और डाँटा। लेकिन नानक देव चुपचाप उन की बातें सुनते रहे। इस के बाद नानक के पिता नें खेत के मालिक से कहा कि आप अपना कोई आदमी खेत पर भेजों ताकी पता चल सके कि गायों ने कितना नुकसान किया है और तुम्हें कितना हर्जाना देना है। इस पर खेत के मालिक ने नौकर के साथ अपना एक विश्वसनीय आदमी उस के साथ भेजा। लेकिन वहाँ जाकर देखा कि खेत में कुछ भी नुकसान नही हुआ था। जब उन्होनें लौट कर यह बात बताई तो शिकायत कर्ता बहुत हेरान हुए।इस के बाद रायबुलार को बुलवा कर उस से पूछा कि तुमनें झूठ क्यों बोला। इस पर उसनें कहा कि मैनें झूठ नही बोला...लेकिन नानक की प्रभू भगती के प्रभाव से ऐसा हो गया होगा। कि खेत पहले जैसे हो गए। इसी तरह की अनेक घट्नाएं उन के जीवन में घटित हुई ।

जब उन के पिता ने देखा की नानक सदा प्रभू भक्ति में ही लगे रहते हैं तो उन्होनें उन्हें बीस रूपय देकर सच्चा सौदा कर धन कमानें के लिए भेजा। उन के संग उन का घरेलू नौकर भाई मरदाना भी उन के साथ था। उस समय व्यापार के लिए जाते हुए उन्हें रास्ते में,कई दिनों से भूखे साधु मिलें। उन साधुओं को देख कर उन का ह्रदय बहुत दुखी हुआ। तब उन्होनें अपने साथ आए नौकर मरदानें से कहा- पिता ने कहा था कि सच्चा सौदा करना। इन भूखे साधूओं को भोजन करानें से बड़ा सच्चा सौदा और क्या हो सकता है? यह कह कर उन्होनें सारे रुपये उन भूखे साधुओं के लिए भोजन पर खर्च कर दिए और घर लौट आए। उन्हें वापिस लौट कर आनें पर उन के पिता ने पूछा-"तुम व्यापार करने गए थे। कौन-सा व्यापार किया?"तब उन्होनें कहा आप ने सच्चा सौदा करनें को कहा था। इस से सच्चा सौदा कर के आया हूँ।" उन्होनें पूछा कितना लाभ कमाया? इस पर सारी बात उन्होनें अपने पिता को बताई।वह बात सुन कर उन के पिता ने उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया। इस पर उन की बड़ी बहन नानकी नें कहा की उन्हें ना मारें..क्यूँ कि उन की बहन उन्हें अवतारी बालक मानती थी।

जब उन के पिता ने देखा कि यह अभी भी अपनी प्रभू भक्ति में ही लगा रहता है , तो उन्होने उनका विवाह करा दिया। जिस से उन्हें दो संतानें प्राप्त हुई। जिन के नाम लक्ष्मी चंद और श्रीचंद जी थे।


सिख धर्म की नींव गुरू नानक देव जी ने ही रखी थी। वह सिखों के पहले गुरू थे।उन की लिखी रचनाएं "गुरू ग्रंथ साहिब" में दर्ज हैं।उन्होनें अपने जीवन काल में चार बड़ी यात्राएं की। यह यात्राएं उन्होनें अपनें विचारॊं को जन मानस तक पहुँचानें के लिए और उस समय लोगों में फैलें अंधविश्वास और कुरीतियों को दूर करनें के लिए की थी। आज ५००सालो से भी ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन उन के कहे उपदेश आज भी सार्थक हैं और जन कल्याण करनें वाले हैं।उस समय जब प्राकृतिक रहस्यों को जाननें का कोई साधन भी नही था। उन्होनें उस समय अपनी दिव्य दृष्टि से देख कर जो बातें कहीं हैं वह आज भी विज्ञान की कसौटी पर एक दम खरी उतरती हैं। "जपुजी साहिब" उन की प्रथम बाणी है। जिस में प्रभू के स्वरूप को बताते हुए,प्राकृति के अनेक रहस्यॊं को भी बताया गया है। "गुरु ग्रंथ साहिब" में आप के मन में उठनें वाले हरेक प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। चाहे वह परमात्मा प्राप्ती से संबधित हो या प्राकृतिक रहस्यों से ।

उन्होनें २२ सितम्बर १९३९ को ६९ वर्ष की आयू में अपनी भौतिक देह का त्याग किया।

बुधवार, 12 सितंबर 2007

ओम......


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

ऊँ हनुमंतें नमः

मंगलवार, 28 अगस्त 2007

सच्ची बात




ईश्वर को मानना या ना मानना व्यक्तिगत मामला है। इस विषय पर बहस करने से कोई लाभ होने वा्ला नही।


१.यदि आप उसे मानते हैं तो उस का लाभ आपको मिलेगा।(अधूरे आस्तिक)


२.यदि नही मानते तो उस लाभ से आप वंचित रहेगें।(नास्तिक)


३.यदि आप अभी निर्णय नही कर पाए..और उस सत्य की अभी तलाश कर रहें हैं...और अपना फैसला तभी लेगें...जब सत्य को जान लेगें।(आस्तिक)



जो है, उसे नही मानने से वह खोएगा नही । जो नही है,वह मान लेने से पैदा ना होगा।