शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५५

कबीर चतुराई अति घनी,हरि जपि हिरदै माहि॥
सूरी ऊपर खेलना, गिरै त ठाहर नाहि॥१०९॥

कबीर जी कहते हैं कि यदि दुनिया के भरमो-वहमों से बचना है तो सब से बढ़िया समझादारी यह है कि हम उस परमात्मा को अपने ह्र्दय मे बसा ले। लेकिन परमात्मा की याद सदा दिल मे बनाये रखना बहुत मुश्किल काम है, क्योकि संसार में अनेक तरह के प्रलोभन और विकार हैं जो हमे अक्सर अपनी ओर खीचते रहते हैं जिस कारण उस परमात्मा की याद बिसर जाती है।कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा की याद सदा दिल मे बनाये रखना,ठीक ऐसा है जैसे सॊली के ऊपर चड़ना।लेकिन इस के सिवा दूसरा कोई रास्ता भी नही है जिस से संसारिक दुख -कलेशों से बचा जा सके।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा की याद सदा दिल मे बनाये रखना भले ही आसान नही है लेकिन यदि हमे दुखो-कलेशों और भरमो से मुक्ति पानी है तो उस परमात्मा की याद को सदा दिल मे जागाये रखना होगा।

कबीर सोई मुखु धंनि है,जा मुखि कहीऐ रामु॥
देही किस की बापुरी, पवित्रु होइगो ग्रामु॥११०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस तरह जो परमात्मा को अपने दिल मे सदा के लिये बसा लेते हैं और मुँह से उस का नाम लेते हैं वे धन्य हैं। क्योकि उस परमात्मा के नाम के प्रभाव के कारण यह मात्र शरीर ही नही बल्कि पूरा गाँव ही पवित्र ही जाता है।

क्बीर जी कहना चाहते हैं कि जब कोई उस परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है तो ऐसे भक्त के आस-पास का माहौल भी राममय होने लगता है।क्योकि हमारी भावनाओं को प्रभाव हमारे आस-पास रहने वालों पर भी पड़ता है। जिस कारण उन के मन मे भी पवित्रता का संचार होने लगता है।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५४

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,राति जगावन जाए॥
सरपनि होइ कै अऊतरै, जाइ अपुने खाए॥१०७॥


कबीर जी कहते हैं कि जो उस परमात्मा का सिमरन छोड़ कर ऐसे कामों मे लग जाते हैं जो रात मे किए जाते हैं और जीव को अंधेरे मे ले जाते हैं। ऐसे लोग साँप की तरह ही पैदा होते हैं, जो अपने बच्चों को ही खा जाता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि हम परमात्मा का ध्यान करना छोड़ देते है तो हमारा मन गलत रास्तों मे भटकने लगता है। ऐसे मे वह जो काम करता है वह उस के ही अहित का कारण बन जाता है।

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,अहोई राखै नारि॥
गदही होइ कै अऊतरै,भारु सहै मन चारि॥१०८॥


कबीर जी अपनी बात को पुन: दोहराते हुए कहते हैं कि परमात्मा की भक्ति छोड़ने से बहुत-सी स्त्रीयां व्रत आदि रखने लगती हैं कि इस तरह करने से  इष्ट खुश हो जाएगा। लेकिन कबीर जी कहते है कि ऐसी स्त्रीयां गधी के समान है जो व्यर्थ का चार मन  का बोझा ढोती रहती हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम उस परमात्मा का ध्यान ना कर के  व्यर्थ के कर्म कांडो को करते रहते हैं ।इस तरह के कर्म कांडो से सिर्फ हमारे मन पर बोझ ही बढ़ता है। हम इसी उधेड़ बुन मे उलझे रहते हैं कि हमने अपने कर्म कांड सही किए या नही। इस तरह व्यर्थ का बोझ हमारे मन पर बढ़ता रहता है और हम गधे की तरह उसे ढोते रहते हैं।वास्तव मे कबी जी हमे ऐसे व्यर्थ के कर्म कांडो से बचने के लिए सचेत कर रहे हैं।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५३

कबीर जेते पाप कीऐ,राखे तलै दुराऐ॥
परगट भऎ निदान सभ,जब पूछे धरम राऐ॥१०५॥

कबीर जी कहते हैं कि जीव जितने भी पाप करता है उन्हें वह हमेशा सब से छुपा कर रखता है। लेकिन उन पापों का फल तो समय पा कर प्रगट हो ही जाता है और इन पापो से कैसे बचा जा सकता था यह भी सामने आ जाता है  जब हमारे पापो के संबध  में धर्मराज हमसे पूछता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम जो पाप सब से छुपा कर करते हैं, उन से बचने का उपाय भी हमारे भीतर ही होता है। इन पापों का निदान तभी प्रकट होता है जब हमने अपने अंतकरण रूपी धर्मराज को जाग्रत कर रखा हो।


कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,पालिउ बहुतु कुटंबु॥
धंधा करता रहि गयिआ,भाई रहिआ न बंधु॥१०६॥

कबीर जी कहते हैं कि उस परमात्मा का ध्यान छोड़ कर जीव  अपने कुटुंब के पालन करने मे ही लगा रहता है। अपने परिवार की पालना करते हुए वह अपना सारा समय गँवा देता है और अंतत: जिन के लिए वह यह सब कर रहा था वे लोग भी उस के साथ नही रहते।

कबीर जी हमे समझाना चाह्ते हैं कि जीव अपने मोह और लालच के कारण पाप मे पड़ता है।इन सब का मूल कारण परमात्मा का ध्यान ना करना ही है।यदि हम उस परमात्मा का ध्यान करते हुए अपने सारे कार-विहार करेगें तो हमे कोई परेशानी नही होगी। लेकिन जीव तो उस परमात्मा को बिसार कर, अपने काम -धंधे मे ही लगा रहता है और जिन के लिए वह ये सब करता है अंतत: वह भी उसे छोड़ कर चले जाते हैं।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५२

कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार॥
जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार॥१०३॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस यंत्र को हम बजा रहे हैं उस यंत्र के तो सभी तार टूट ही गये हैं।कबीर जी आगे कहते हैं कि इस मे इस यंत्र का क्या कसूर है,यह तो घिस-पिट कर एक दिन नष्ट होना ही था। लेकिन यह यंत्र भी क्या करे,जो इस यंत्र को बजा रहा था वह भी चला गया।

कबीर जी हमे इस श्लोक द्वारा समझाना चाहते हैं कि हमारे इस शरीर रूपी यंत्र को यह मन विषय-विकारों में उलझा कर खूब नचाता रहता है,लेकिन जब हम उस परमात्मा के नाम का सहारा पकड़ लेते हैं तो इस शरीर रूपी यंत्र के विषय-विकार रूपी तार टूट जाते हैं, ऐसे मे यह शरीर रूपी यंत्र विकारों से मुक्त हो जाता है। आगे कबीर जी हमे समझाते है कि सिर्फ यह तार ही नही टूटते बल्कि इस यंत्र को बजाने वाला हमारा मन भी चला जाता है अर्थात हमारा मन एक जगह ठहर जाता है।इस श्लोक मे कबीर जी परमात्मा के नाम का महत्व समझाना चाहते है।


कबीर माइ मूँढऊ तिहु गुरू की,जा ते भरम न जाइ॥
आप ढुबे चहु बेद महि,चेले दिऐ बहाइ॥१०४॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसे गुरू जो तुम्हारे भरमों को दूर नही कर सकते, उन गुरुओं की तो माँ का सिर ही मूंड देना चाहिए।क्योकि ऐसे गुरू स्वयं तो कर्म कांडो मे पड़े रहते है और अपने चेलों को भी इन्हीं कर्मकांडो मे उलझा देते हैं।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि ( जैसा की पिछले श्लोक मे कहा है) सारा खेल तो इस मन का है। लेकिन बहुत से गुरु स्वयं तो वेदों को रट कर, उन की सुन्दर सुन्दर व्याख्याएं कर के अपने चेलों को भी भरमाते हैं और शास्त्र आदि रटवाने लगते है। कबीर जी कहते हैं कि इस तरह के कर्मकांडो से कोई लाभ नही होने वाला। ऐसे गुरू स्वयं तो भटकते है ,साथ ही अपने चेलों को भी गलत रास्ते पर ले जाते हैं। कबीर जी इस आध्यात्मिक भटकाने वालों को बहुत बड़ा पापी मानते हैं इसी लिए वह कहते है कि ऐसे गुरूओ की माँ का सिर मूड देना चाहिए।यहाँ पर माँ का सिर मूंडने का भाव ऐसे गुरुओ के प्रति एक सांकेतिक विरोध करना मात्र ही है।