मंगलवार, 27 मार्च 2012

कबीर के श्लोक - १००

कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु॥
दफतर बही जब काडि है होइगा कऊनु हवालु॥१९९॥


कबीर जी कहते हैं कि जो लोग जीवों   के साथ जोर  जबरदस्ती करते हैं  और उन्हें मार कर कहते ही कि हमनें इस जीव को हलाल किया है अर्थात इस जीव को मार कर इसी का भला किया है।क्योकि इसे ईश्वर के नाम पर मारा गया है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि तेरे इस कृत्य का फल तुझे जरूर भुगतना पड़ेगा।जब वह ऊपर वाला अपने बही खाते मे तेरे इस कृत्य को देखेगा।उस समय तेरे इस कर्मफल से कौन बचाएगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारे प्रत्येक कर्म का हिसाब-किताब हमे ही देना पड़ेगा। भले ही हम परमात्मा के नाम का सहारा लेकर यह कहे की हमारे द्वारा दी गयी कुर्बानी जायज़ है।


कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है लेइ जवाबु खुदाइ॥
दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ॥२००॥


कबीर जी इसी बारे मे आगे कहते हैं कि इस तरह के कृत्य भले ही कोई हलाल माने लेकिन यह एक तरह का जुल्म ही है। इस काम का हिसाब खुदा तुझ से जरूर माँगेगा। कबीर जी कहते हैं कि जब तेरे खाते में तेरे इन कर्मों को खुदा देखेगा तो तुझे इस की सजा जरूर मिलेगी।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारे द्वारा किये गये पाप भले ही वह परमात्मा के नाम का सहारा लेकर किये हो।लेकिन इन पाप कर्मों की सजा जरूर भुगतनी पड़ती हैं। वा्स्तव मे कबीर जी विभिन्न धर्मों व संप्रदायों में इस प्रकार की भ्रांतियों का विरोध कर रहे हैं जो धर्म के नाम पर तो की जाती हैं लेकिन जिस से दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचता है।



रविवार, 18 मार्च 2012

कबीर के श्लोक - ९९

कबीर हज काबै हऊ जाइ बा आगै मिलिआ खुदाइ॥
सांई मुझ सिऊ लरि परिआ  तुझे किनि फुरमाई गाइ॥१९७॥


कबीर जी कह्ते हैं कि जब मैं हज के लिये काबा की यात्रा पर निकला तो मुझे रास्ते में खुदा मिल गया। जब वह मुझ से मिला तो वह सांई मुझ से लड़ने लगा। कहने लगा कि इस गाय की कुर्बानी मेरे नाम पर करने के लिये तुझे किसने कहा ?

कबीर जी समझाना चाहते है कि परमात्मा के लिये तो सभी जीव समान हैं ऐसे में यह मान कर कि गाय आदि किसी पशु की कुरबानी खुदा के नाम पर देने से वह खुदा खुश हो जायेगा और तेरे सभी गुनाह बख्श देगा यह सब नासमझी की बातें हैं। इसी ओर संकेत करने के लिये कबीर जी ने उपरोक्त विचार व्यक्त किया है।

कबीर हज काबै होइ होइ गईआ केती बार कबीर॥
सांईं मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर॥१९८॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि मैं कितनी ही बार सांई के घर उसका दीदार करने के लिये गया हूँ लेकिन सांई मेरे साथ बात ही नही करता। ऐसा लगता है वह मुझ से नाराज हो गया हैं। पता नही तू मुझ मे कैसी कैसी खता देख रहा हैं जो मुझ से हुई हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा के नाम पर जब हम किसी जीव की बलि देते हैं या किसी से कोई जोर जबर्दस्ती करते हैं तो हमारे इस कृत्य से परमात्मा हम से नाराज हो जाता है।जब कि हम यह सब कृत्य उस परमात्मा के नाम पर उसे खुश करने के लिये करते हैं।अर्थात जब हम परमात्मा कि शरण मे जाते हैं तो परमात्मा की हम पर कृपा ना होने का कारण मात्र हमारी ही कुछ भूलें होती है। यदि हम अपनी इन भूलों को सुधार ले तो परमात्मा की कृपा प्राप्त हो सकती है।कबीर जी इसी ओर इशारा कर रहे हैं।





शुक्रवार, 9 मार्च 2012

कबीर के श्लोक - ९८


कबीर निरमल बूंद अकास की परि गई भुमि बिकार॥
बिनु संगति इऊ मांनई होइ गई भठ छार॥१९५॥

कबीर जी कहते हैं कि जब बरसात होती है आकाश से जो बूँदें धरती पर गिरती हैं यदि वह कुछ सँवार ना सके तो बेकार ही जाती है। धरती की तपिश में नष्ट हो जाती हैं।यही हाल जीव का होता है। जबकि वह परमात्मा की ही अंश है लेकिन बुरी संगत होने के कारण अपना जीवन व्यर्थ ही गवा देता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि आकाश की बूँद बंजर धरती पर पड़े तो उस से किसी को कोई फायदा नही होता लेकिन यदि यही बूँद किसी खेत खलिहान पर पड़े तो धरती को लाभ पहुँचाती हैं।इसी तरह मनुष्य के जीवन पर संगत का प्रभाव पड़ता हैं यदि वह अच्छी व साध लोगों की संगत मे रहता है तो अपने जीवन को सँवार लेता है अन्यथा उसका यह जीवन विषय -विकारों से ग्रस्त लोगो की संगत करने के कारण व्यर्थ जी जाता है। कबीर जी यहाँ हमें सगति के प्रभाव के बारे मे बताना चाह रहे हैं।

कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाऐ॥
 अनिक सिआने पचि गए ना निरवारी जाऐ॥१९६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि धरती उस बूँद को अपने भीतर समाहित कर लेती है फिर वह उससे अलग होना उस बूँद के लिये कठिन होता है। भले ही कितने सयाने हो वह बूँद को धरती में मिलने के बाद पूर्णत: अलग नही कर सकते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि बूँद का धरती  मे समाहित होने के बाद जैसे उन्हें अलग करना कठिन हो जाता है ।ठीक वैसे ही जब कोई सतगुरू की कृपा का पात्र बन जाता है तो ऐसे साधक परमात्मा के रंग मे रंग कर विषय विकारों से दूर हो जाते हैं। फिर कोई भी विकार या बुरी संगति उन्हें नुकसान नही पहुँचा सकती।अर्थात कबीर जी कहना चाह रहे हैं कि जिस प्रकार उपजाऊ व बंजर धरती और बूँद के मिलने से परिणाम निकलते हैं ठीक वैसे ही अच्छी और बुरी संगत करने से प्रभाव पडता है।