मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-९

भिजउ सिजउ कंबली ,अलह वरसउ मेहु॥
जाइ मिला तिना सजणा,तुटौ नाहिं नेहु॥२५॥

फरीदा मैं भोलावा पग दा, मैली होइ जाइ॥
गहिला रुहु ना जाणहि,सिर भी मिट्टी खाइ॥२६॥

फरीदा खंड निवात गुड़, माखिओ मांझां दुधु॥
सभे वसतु मिठीआं रब ना पुजन तुधु॥२७॥

फरीद जी कहते है कि हे प्रभू जितना मर्जी पानी बरसे मुझे इस की कोई परवाह नही है।भले ही इस से मेरी कंबली भीग जाए,बिल्कुल पानी से सराबोर हो जाए।मुझे तो बस एक ही इच्छा है कि उस प्यारे का प्रेम कहीं टूट ना जाए।इस लिए मुझे तो उस से मिलना ही है।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि यह जो जीवन में सुख-दुख है यह तो हमेशा साथ रहते ही हैं।इन्हें तो जीवन में सभी को भोगना ही पड़ता है। इस से घबरा के यदि मेरा ध्यान तुझ से हटता है तो मेरा जीना व्यर्थ हो जाएगा।इस लिए सदा उस से मिलने की चाह बनी रहने से उस के प्रति मेरा प्रेम कभी कम नही हो सकता।

देतीफरीद जी आगे कहते है कि मुझे तो इस बात कि चिन्ता थी कि कहीं मेरी यह पगड़ी मैली ना हो जाए। लेकिन में नासमझ इतना भी ना जान सका यह मिट्टी तो सिर को भी मिट्टी कर देती है।जो मिट्टी मेरी पगड़ी को मैला कर है वही मेरे सिर पर भी पड़नी है।अर्थात फरीद जी कहते हैं कि मुझे तो सदा अपने मान -अपमान कि चिन्ता ही रहती थी। इस लिए मै दुनियावी कामों मे ही उलझ कर यह सोच रहा था कि इस से मेरी इज्जत सदा बनी रहेगी। लेकिन यह सब भ्रम था।क्यूँकि एक दिन यह शरीर भी नाश हो जाना है।ऐसे में उस प्रभू की ही चिन्ता करनी चाहिए।

आगे फरीद जी कहते हैं। कि शकर से ज्यादा गुड़ मीठा होता है और गुड़से भी ज्यादा मीठा शहद होता है।भले ही यह सभी वस्तुएं एक से बड़ कर एक मीठी हैं। लेकिन यह सारी चीजें उस प्रभु को पाने की जो मिठास है उस का मुकाबला नही कर सकती।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि भले ही संसार में मन को मोहनें वाले एक से बड़ कर एक पदार्थ व चीजें मौजूद हैं। जिन्हे भोगनें पर मन बहुत आनंदित होता है।समाज में बहुत इज्जत व मान पाता है।लेकिन यह सारे संसार के सुख भोग मिल कर भी उस प्रभु को पाने से जो आनंद मिलता है,उस के सामने बहुत ही फीके साबित होते हैं।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-८

फरीदा राती वडिआं,धुखि धुखि उठ्नि पास॥
धिगु तिना दा जीविआ , जिना विडाणी आस॥२१॥

फरीदा जे मै होदा वारिआ,तिना आइणिआं॥
हेड़ा जलै मजीठ जिउ उपरि अंगारा॥२२॥

फरीदा लोड़ै दाख बिजउरिआ,किकरि बीजै जटु॥
हंढै ऊंन कताइदा,पैदा लोड़ै पटु॥२३॥

फरीदा गलीए चिकड़ु,दूर घरु,ना्लि पिआरे नेहु॥
चला ता भिजै कांबली, रहा त तुटे नेहु॥२४॥


फरीद जी कहते हैं कि रात बहुत बड़ी है।जिस के कारण शरीर में जगह जगह दर्द होने लगा है और उन लोगो का जीवन तो बिल्कुल बेकार है जो दुसरों के भौतिक पदार्थो के प्रति आसक्त हैं। अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि दुख के कारण या किसी इच्छा के कारण राते बहुत लम्बी हो जाती है।क्यों कि जब भी हम किसी आस में जीते हैं तो हमें बैचेनी महसूस होनें लगती है।जिस कारण सरीर और मन दोनों परेशान होनें लगते हैं।जब हम पराई संम्पदा को पानें का लोभ करने लगते हैं तो यह और भी बुरा होता है।वह कहते है कि ऐसा जीवन धिक्कारनें लायक है जो उस प्रभु के बजाय दुसरी संसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्त हो जाता है।

इसी तरह यदि हम अपने घर आए मित्रों से कुछ छिपाते हैं तो जिस प्रकार मास अंगारों पर जलता है वैसा ही हम को भीतर जलना पड़ता है।अर्थात वह जो परमात्मा रूपी हमारा मित्र है।यदि हम उसके सामने अपनी पूरी बात नही कहते अर्थात दिखावा करते हैं तो इस से हम ही लाभ से वंचित रहते हैं।जब तक हम उस के समक्ष पूरी तरह समर्पित नही होगें,हमारे मन को कभी शांती नही मिल सकती।

फरीद जी कहते हैं कि जिस तरह कोई कीकर को बो कर उस से अंगूर का फल प्राप्त नही कर सकता उसी तरह ऊंन की जीवन भर का्ताई करवानें वाला अगर यह सोचे कि वह उं की कताई करके रेशम पहन सकता है तो यह नासमझी ही होगी।अर्थात फरीद जी कहते है कि बिना बंदगी किए सुख की आस करनें वाला ठीक उसी व्यक्ति की तरह है जो कीकर को बो कर अंगूर और ऊन की कताई करवा कर रेशम पहननें की अभिलाषा मन मे करता है।अर्थात हम तो वही पा सकते हैं जो हम जीवन भर कमाते रहते हैं।बिना प्रभू भक्ति के जीवन में कभी भी सुख नही आ सकता।

आगे फरीद जी कहते हैं कि उस परमात्मा की गली में जाना भी मुश्किल है। क्यों कि गली में बहुत कीचड़ है और उस का घर भी बहुत दूर नजर आ रहा है। लेकिन जो लोग उस के प्यार में जरा से भी पड़ चुके हैं।वह उस को नही छोड़ सकते।उन के लिए उस को छोड़ना दुख का कारण बन जाता है।इस लिए अगर उस से मिलनें को जाता हूँ तो मेरा कंबल भीग जाता है और अगर नही जाऊंगा तो वह मेरा प्यारा रूठ जाएगा।अर्थात परमात्मा को पानें के लिए संसार के मोह माया की ओर से ध्यान हटाना पड़ेगा।क्यूँ कि जीवन में कदम कदम पर हमारा मन संसार की माया के कारण उस ओर खिचने लगता है।जिस कारण वह हम से निरन्तर दूर होता जाता है।जब यह दूरी बड़ती है तो हम विकारों से ग्रस्त हो कर दुखी होनें लगते है।लेकिन यदि हम हिम्मत करके उस प्रभु की ओर बढे तो बेशक यह संसारी रिशते नातों को छोड़ने का दुख महसूस हो, लेकिन हमे उसे नही भूलना चाहिए।


गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-७

फरीदा थीउ पवाही दभु॥जे सांई लोड़हि सभु॥
इकु छिजहि बिआ लताडी़अहि तां सांई दै दरि वाड़िअहि॥१६॥
फरीदा खाकु ना निंदिए,खाकु जेडू ना कोइ॥
जीवदिआ पैरां तलै मुइआ उपरि होइ॥१७॥
फरीदा जा लबु ता नेहु किआ ,लबु ता कूड़ा नेहु॥
किचरु झति लघाईए छपरि तुटै मेहु॥१८॥
फरीदा जगंलु जगंलु किआ भवहि, वणि कंढा मोड़ेहि॥
वसि रबु हवालिआ ,जगंलु किआ ढुंढेहि॥१९॥
फरीदा इंनी निकी जंगिए, थल डुंगर भविउमि॥
अज फरीदा कूजड़ा , सो कोहा थिउमि॥२०॥

फरीद जी कहते हैं कि यदि उस प्रभु की कृपा पानी है तो घास के समान एक पौध बन जा।यहाँ फरीद जी पौधे के उदाहरण देते हुए समझा रहे हैं कि जिस प्रकार वह पौधा सदा सब के पैरों तले रहता है।उसी तरह तू अपने मन को बना ले।अर्थात अपने मन को विनम्र बना ले।क्यूँकि बिन विनम्रता के उस परमात्मा को नही पाया जासकता।अंहकारी लोग कभी भी उस को नही पा सकते।जिस प्रकार वह पौध या झाड़ी लोगो के पैरों तले रौदी जाती है लेकिन फिर भी वह वैसी ही बनी रहती है।तू भी ठीक ऐसा ही विनम्र हो जा ।तभी तुझे उस प्रभु के दर पर प्रवेश मिल सकेगा।पिछले श्लोक में जो प्रश्न उठाया था यह उसी का उत्तर फरीद जी यहाँ दे रहे हैं।
फिर फरीद जी कहते हैं कि है भाई खाक को छोटा जान कर उस की निंदा मत करना।अर्थात जो लोग विनम्र हैं उन को छोटा जान कर निंदा मत करना। क्यूँ कि उनकी विनम्रता ही उन का हथियार है।जिस प्रकार खाक हमेशा जमीन पर पैरों तले पड़ी रहती है। भले ही तेरे जीवित तहते समय तेरे पैरों के नीचे होती है लेकिन जब तू मरता है तो यही खाक तेरे मरनें के बाद तेरे ऊपर होती है।अर्थात विनम्रता सदा ही अंहकार से बड़ी होती है।

फरीद जी आगे कहते है कि यदि किसी के मन में लोभ है और इस कारण से वह प्रेम करता है तो उस का कुछ भी फायदा होनें वाला नही है।लोभ के कारण किया जानें वाला प्रेम तो झूठा है।जिस तरह टूटे छप्पर पर जब पानी बरसता है तो वह उस पानी की बौछारों को कब तक बर्दाश्त कर सकेगा।अर्थात एक दिन वह अवश्य ही टूट जाना है।यहाँ पर परीद जी कहना चाह रहे हैं कि जो लोग परमात्मा की भक्ति किसी लोभ या किसी भी प्रकार के लालच के वशीभूत हो कर करते हैं,वह धन का हो,यश पानें का हो, फिर किसी भी प्रकार का हो ।इस प्रकार का प्रेम या उपासना वह असल में प्रभु भक्ति है ही नही। यह प्रेम तो तभी तक बना रह सकेगा जब तक आप की जरूरतें पूरी हो रही हैं। जिस दिन भी आप की जरूरते पूरी होना बंद हो जाएगीं उसी दिन आप का प्रेम भी उस के प्रति छूट जाएगा।इस लिए ऐसे प्रेम को प्रेम नही कहा जा सकता।भले ही हम उसे प्रभु के प्रति अपना प्रेम मानते रहें।
पुराने समय में लोग प्रभु भक्ति के लिए अक्सर जगंलों मे चले जाते थे।उसी के लिए फरीद जी कहते हैं कि तू जगंलो की खाक क्योँ छानता फिर रहा है ,वहाँ तो बहुत ही काँटें अर्थात कष्ट होते हैं।उन कष्टों के बीच उस परमात्मा को कैसे याद किया जा सकता है।अर्थात वह प्रभु जिसे तू जगंलों मे खोज रहा है, बाहर खोज रहा है, वह तो असल में तेरे भीतर ही मौजूद है।इस लिए तू जगंल में क्या ढूँढ रहा है?

आगे फरीद जी कहते हैं कि इन छोटी-छोटी टांगों के सहारे मैं भी उसे जगंल जगंल खोजता रहा। लेकिन अब पता लग चुका है कि वह तो भीतर ही है।और मै सदा यह समझता रहा कि वह बहुत दूर है।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-६

फरीदा काली धउली साहिब सदा है,जे को चिति करे॥
अपणा लाइया पिरमु ना लगयि, जे लोचै सब कोइ॥
ऐह पिरमु पिआला खसम का,जै भावै ता देइ॥१३॥
फरीदा जिन लोइण जगु मोहिआ, सो लोइण मै डिठु॥
कजल रेख ना सहदिआ,से पंखी सुइ बहिठु॥१४॥
फरीदा कूकेदिआ चांगेदिआ,मति देदिआ नित॥
जो सैतानि वंयाइआ,से कितिफेरहि चित॥१५॥

फरीद जी ने जैसे कि पहले कहा है कि जवानी में हम विषय विकारों के आधीन होते हैं और बुढापे में हमारा कमजोर हो जाना उस प्रभु की ओर से हमारा ध्यान हटा देता है। लेकिन फिर भी यह भक्ति हमे कभी भी प्राप्त हो सकती है।इन श्लोकों मे फरीद जी कहते हैं कि वैसे तो हम जवानी और बुढापे दोनों मे ही उस की बंदगी कर सकते हैं।लेकिन यह जान लो कि यह प्रभु भक्ति हमारे करनें से ही हमे नही मिल सकती।चाहे हम कितनी भी कोशिश कर ले।हम अपनी मरजी से कभी भी उस ओर ध्यान नही दे सकते।हम कभी भी उस प्रेम-प्याले को नही पा सकते।जब तक कि उस की कृपा ना हो। अर्थात जब भी हम कोई यत्न करते हैं तो उस यत्न के साथ हमारा अहंम जुड़ जाता है।कि यह काम मैं कर रहा हूँ।इस अहंम के कारण ही हम उस तक नही पहुँच सकते।वहाँ तो वही पहुँचते हैं जो अपना अहंम त्याग चुके हैं। जब तक पूर्ण समर्पण नही किया जाता तब तक उसे नही पाया जा सकता।

आगे फरीद जी कहते हैं कि जिन आँखों के कारण (शरीर की व मन की) यह जगत हमें मोहित करता है।उन आँखों के बारे मॆ सभी जानते हैं।ये आँखें तो काजल को भी सहन नही करती थी।जो अब नए जनमें पक्षी के बच्चे की तरह बैठकर इस संसार को कोतुहल से ताकनें लगता है।अर्थात जब हम इस संसार को शरीर की व मन की आँखों से देखते हैं तो हमारे अंदर इस संसार के प्रति आसक्ती पैदा हो जाती है। इस बात को हम सभी जानते हैं।लेकिन जब कोई बच्चा जनमता है तो उस समय उस के मन में कोई भावना नही होती,कोई विकार नही होता।वह एकदम निश्छल होता है। उस समय वह सब कुछ कौतुहल से देखता है। लेकिन फिर इस में भी समय के साथ-साथ विकार,दुनिया के प्रति मोह आदि पैदा हो जाते हैं।समझ्दार लोग हमें इन बातोम के प्रति सदा सावधान करते रहते हैं।चैताते रहते हैं।सीख देते रहते हैं।लेकिन फरीद जी कहते हैं कि फिर भी हम इन सब से बच नही पाते।आगे वह प्रश्न करते है कि हम इस से बच कैसे सकते है?अर्थात हम किस प्रकार उस परमात्मा का प्यार पा सकते हैं?

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-५

फरीदा अखी देखि पतीणीआं,सुणि सुणि रीणे कंन॥
साख पंकदी आया,होर करेंदी वंन॥११॥
फरीदा कांली जिनी ना राविआ धउली रावै कोई॥
करि सांई सिउ पिरहणी,रंगु नवेला होई॥१२॥

फरीद जी ने जो पीछले श्लोकों में कहा है उसी बा्त को आगे ले जाते हुए कहते हैं कि हमरी आँखें भी इस दुनिया के रंग तमाशे देख-देख कर उकता जाती हैं और कान भी सुन-सुन कर बहरे हो जाते हैं।अर्थात इस दुनिया में सभी तो अपना-अपना स्वार्थ साधनें मे लगे हुए हैं।हम कुछ भी बोलते रहे लेकिन लोग तो वही सुनते हैं जो उन के मतलब का होता है।बाकी का तो सुन कर अनसुना ही कर देते हैं।इसी तरह उन्हें वही कुछ दिखाई देता है जो उन के मन के अनुसार उन्हें भाता है।बाकी जो सच को उजागर कर सकता है वे उसे देखते ही नही।

हमारा इस तरह का आचरण ही हमे बेकार के कामों मे मजबूती प्रदान करता चलता है।अर्थात बुढापे में कान और आँखें ही नही हमारा शारीर भी कमजोर हो चुका है।क्यूँकि हम जीवन भर जो भी करते रहते हैं हमे उस की ही आदत पड़ जाती है।

आगे फरीद जी कहते हैं कि जब हम जवानी में उस परमात्मा को याद नही करते तो बुढापे में उसे कैसे याद करेगें|अर्थात जब हमारे सर के बाल काले थे यानी जब हम जवान थे और हम कुछ भी करनें में समर्थ थे यदि उस समय हम इस सही रास्ते पर नही चल सके तो अब जब हमारे बाल सफेद पड़ चुके हैं,शरीर का हरेक अंग कमजोर हो चुका है ऐसे में हम उस रास्ते पर कैसे चलेगें।अर्थात कोई बिरला ही उस पर चल पाता है।लेकिन फरीद जी कह्ते है कि वह परमात्मा तो सदा नया ही बना रहता है इस लिए यदि तू अभी भी उस परमात्मा की भक्ति में डूब जाए तो फिर से तू जवान हो सकता है।अर्थात आनंदित हो सकता है।
फरीद के श्लोक-४

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-४

फरीदा जा तौ खटण वेल,तां तू रता दुनी सिउ॥
मरग सुवाही निही,जां तरीया तां लदिया॥८॥
देखु फरीदा जु थिआ,दाड़ी होई भूर॥
अगहु नेड़ा आएआ,पिछो रहिआ दूरि॥९॥
देख फरीदा जि थिआ,सकर होई विसु॥
सांई बाझहु आपणे ,वेदण कहिए किसु॥१०॥


फरीद जी कहते है कि जब तेरे पास उस परमात्मा को याद करने का समय था,उस वक्त तो तू दुसरे कामों में व्यस्त रहा।इस कारण मौत की नीवं पक्की होती रही। अर्थात मौत का समय पास आता गया।जब तेरे श्वास पूरे हो जाएगें तो तुझे इस संसार को छोड़ कर जाना पड़ेगा।फरीद जी आगे कहते है कि चल छोड़,अब तक जो हुआ उस की परवाह मत कर,उस ओर ध्यान मत दे।लेकिन भाई अब तो तेरी दाड़ी भी सफेद हो चुकी है ओर अब तो मौत का समय भी पास आ चुका है।अब जो तेरे आगे का समय है उस की फिक्र कर,कहीं ऐसा ना हो कि तू पिछली बातों को याद करता रहे या फिर से अपनी पुरानी नासमझी दोहराता रह जाए और तेरा आगे का समय जो शेष रह गया है,जोकि बहुत कम है ।वह भी व्यर्थ ही गंवा बैठे।इस लिए तेरे पास जो समय रह गया उस का सदुपयोग कर ले।

फिर फरीद जी कहते है कि अब तक जो हुआ सो हुआ।अब तो बुढापा आ चुका है,इस कारण दुनिया के मीठे काम भी जहर लगनें लगते हैं अर्थात बुढापे में इन्द्रियों के कमजोर पड़ने के कारण अब तू उन को नही भोग सकता,उन का रस नही ले सकता।इस लिए अब वह सब तेरे लिए विष के समान हैं।अब तू इस अपने दुखड़े को किस के सामनें रोएगा अर्थात अब तो तेरा एक मात्र सहारा वही परमात्मा ही है,इस लिए तू उसी से फरियाद कर।जिस से तेरी सभी समस्याओं का समाधान हो सके।