बुधवार, 28 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - ३१

कबीर मुहि मरने का चाउ है, मरऊ त हरि कै दुआर॥
मत हरि पूछै कऊनु है परा हमारै बार॥६१॥

कबीर जी कहते है कि मुझे मरने की इच्छा है कि मैं उस परमात्मा के द्वार पर मर जाँऊ।लेकिन आगे वे अपनी शंका जताते हुए कहते हैं कि कहीं मुझे अपने द्वार पर पड़ा देख कर परमात्मा यह तो नही पूछेगा कि यह कौन है जो मेरे द्वार पर पड़ा है।

कबीर जी भगत के मन में उठने वाले भाव को समझाना चाहते कि जब परमात्मा का प्यारा परमात्मा के प्रति पूर्णता से समर्पण की भावना लाता है अर्थात हरि के द्वार पर मरने की चाह करता है, तो मन मे इस तरह के भाव उठने लगते हैं। कि मेरे पूर्ण समर्पण के बाद हरि क्या मुझे स्वीकार लेगें ?वास्तव मे ऐसे भाव हमारे मन मे आते ही तभी हैं जब हम यह समझते है कि यह सब हम कर रहे हैं। इसी बात की ओर कबीर जी इंगित कर रहे हैं।


कबीर ना हम कीआ न करहिगे, ना करि सकै सरीरु॥
किआ जानऊ किछु हरि कीआ, भईउ कबीर कबीर॥६२॥

कबीर जी इस श्लोक मे पिछले श्लोक मे उठाई शंका का समाधान हमे बता रहे हैं कि वास्तव में हम तो कुछ करते ही नही। ना ही हम कुछ कर सकते है। ना ही हमारे शरीर मे इतनी सामर्थता है कि वह कुछ कर सकेगा। हम तो कुछ जानते ही नही क्योकि जो कुछ भी किया है वह परमात्मा ही कर सकता है जिस कारण लोग कबीर को पहचानने लगे हैं।

कबीर जी पिछले श्लोक मे उठाई शंका के निवारणार्थ हमे समझाते हुए कह रहे हैं कि परमात्मा के स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न ही नही उठता। क्योकि हमने कुछ किया ही नही है और ना ही हम कुछ करने मे कभी समर्थ ही हो सकते हैं। हम तो इस बारे मे कुछ जानते ही नही,जो कुछ कर रहा है वह तो परमात्मा ही करता है। इस लिए स्वीकारना या अस्वीकारना उसी के हाथ मे हैं। यह जो हमे सम्मान या प्रभु का प्रेम मिलता है यह तभी मिलता है जब वह परमात्मा हम पर कृपा करता है।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - ३०

कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै, तुठा करे पसाउ॥
मुकति दुआरा मोकला, सहजे आवऊ जाउ॥५९॥

कबीर जी कहते है कि यदि कोई ऐसा सतगुरु मिल जाए जो प्रसन्न हो कर हम पर कृपा कर दे, जिस से मुक्ति का दरवाजा खुल्ला हो जाए ताकि हम उसमे से आसानी से आ जा सके। अर्थात फिर मुक्त हो कर संसार मे विचरण करते रहे, अपने कार विहार करते रहें।

कबीर जी यहाँ हमे गुरू का महत्व समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि यदि सतगुरु अर्थात ऐसा गुरु जो मुक्त हो चुका है, हम पर प्रसन्न हो जाए तो वह हमे मुक्ति का सही रास्ता बता सकता है। जिस से हम भी स्थिर अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं और उस परमात्मा की कृपा के पात्र बन सकते हैं। फिर हम संसार मे वैसे ही रहेगे जैसे परमात्मा हमे रखना चाहता है, क्यो कि मुक्ति की अवस्था मे पहुँचने के बाद विषय विकार, मोह मायादि की तृष्णा नही सता पाती।


कबीर ना मोहि छानि न छापरी, ना मोहि घरु नही गाउ॥
मत हरि पूछै कऊन है, मेरे जाति न नाउ॥६०॥

कबीर जी कहते है कि मेरे पास ऐसी कोई संपदा नही है जिसे मै अपना कह सँकू और ना ही मेरे पास कोई घर या गाँव  है और ना ही समाज द्वारा बनाई गई कोई जाति या नाम ही अब शेष रह गया है। ऐसे में संभव हो सकता है कि हरि हम पर ध्यान दे ।

कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात संसार मे कुछ भी सदा रहने वाला नही है, यह समझ जाते है। तब मन इन से विरक्त को कर स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था मे जब हम परमात्मा की शरण मे जाते हैं तो कबीर जी कह्ते है कि परमात्मा भी हमारी ओर ध्यान दे सकता है। अर्थात विकार रहित और मोह रिक्त मन ही परमात्मा को पा सकता है। कबीर जी हमे यही समझना चाहते हैं।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक -२९

कबीर हरदी पीरतनु हरै, चून चिहनु न रहाइ॥
बलिहारी ऐह प्रीति कऊ, जिह जाति बरन कुलु जाइ॥५७॥

कबीर जी कहते है कि उस परमात्मा की प्रीत पर बलिहारी हुआ जाता हूँ जिसने जाति, वर्ण और कुल का भेद भाव नष्ट कर दिया। यह सब ठीक वैसे ही हुआ है जैसे हल्दी और चूने के मिलने से उन दोनो का रंग छूट जाता है।

कबीर जी कहना चाह्ते है कि परमात्मा से प्रीती करने से वे सभी चीजे ,मन के भाव छूट जाते है जिस कारण हम सुख दुख को महसूस करते हैं, जो हमारे विषय विकारो के पोषक होते है, उनका प्रभाव हमपर नही पड़ता, यदि हमारी प्रीती उस परमात्मा के साथ होती है। यहाँ कबीर जी ऐसा नही कह रहे कि हम वे काम करना ही छोड़ देते है, बल्कि वे कहना चाहते हैं कि वे तो वहीं रहते हैं, वैसे ही रहते हैं, लेकिन हमारे मन का भाव ऐसा हो जाता है कि उन विषय विकारों कुल जाति के अभिमानादि से हमारे मन का संबध टूट जाता है। जिस कारण हमारा मन शांत हो जाता है और जब मन शांत होता है तभी हमे उस परमात्मा की प्रीती का पता चल पाता है। उस प्रीती के महत्व का पता चल पाता है। तभी हम उस पर बलिहारी जाते है।


कबीर मुकति दुआरा संकरा, राई दसएं भाइ॥
मनु तऊ मैगलु होइ रहिउ, निकसो किऊ कै जाइ॥५८॥

कबीर जी कहते है कि मुक्ति का द्वार बहुत ही छोटा है, वह इतना छोटा है कि राई के दसवें हिस्से जैसा लगता है और हमे इसे ही पार करना होता है मुक्ति के लिए। लेकिन हमारा मन तो हाथी जितना बड़ा ही रहता है ऐसे मे उस द्वार से पार कैसे हो सकते हैं।

कबीर जी इस सवाल को उठा कर हमसे कहना चाहते हैं कि यदि हमे मुक्ति चाहिए, उस परमात्मा से एकाकार होने की चाह हैं, तो सबसे पहले इस मन से ही निपटना होगा।क्योकि हमारा ये मन संसारी बातों से, विषय विकारो से, धरम कर्म की बातो से, कर्म कांडो से, धन संपत्ति के लालच से, अपने लोगो के मोह से इतना भर गया है कि अब ये हाथी जितना बड़ा नजर आने लगा है।ऐसे मे मुक्ति के द्वार को पार करना असंभव है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि अंहकार और मोह मायादि विषय विकारों से ग्रस्त होने के कारण मन बड़ा प्रतीत होने लगता है, इसी लिए वह परमात्मा के मुक्ति द्वार को पार नही कर सकता। यहाँ पर कबीर जी हमे मुक्ति से वंचित रहने का कारण समझा रहे हैं।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - २८

कबीर मनु निरमलु भईआ, जैसा गंगा नीरु॥
पाछै लागो हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥५५॥

कबीर जी कह्ते है कि जब मन गंगा के पानी के समान निर्मल हो जाता है तो तुम परमात्मा के पीछे जाओ इसकी बजाय निर्मल मन होने पर परमात्मा तुम्हारे पीछे तुम्हे तलाशता हुआ पहुँच जाता है।स्वाभाविक रूप से तो हम सभी का मन जब हम संसार मे आते हैं तो निर्मल ही होता है।लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे मन मे विकारों का जन्म होने लगता है।जिस कारण मन कलुषित हो जाता है।इसी लिए कबीर जी कह रहे हैं कि यदि हमारा मन निर्मल हो अर्थात वैसा ही हो जैसा प्रकृति द्वारा हमे दिया गया था। तो ऐसे मे परमात्मा के साथ स्वाभाविक रुप से हमारा मन एकाकार हो जाता है।

कबीर जी समझाना चाहते है कि बाहरी परिवर्तन की अपेक्षा भीतरी परिवर्तन करने से ही परमात्मा की समीपता को पाया जा सकता है। जिस तरह दो समान गुण धर्म वाली वस्तुएं स्वत:आपस मे मिल कर एक ही हो जाती है। उसी तरह हमारे मन के निर्मल हो जाने से परमात्मा भी हमारी ओर आकर्षित हो कर हमे अपने मे समाहित कर लेता है। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते है यदि हमे परमात्मा को पाना है तो हमे उसी के समान गुण धर्म का होना होगा। तब हमे उस से एकाकार होने के लिए कोई कोशिश नही करनी पड़ेगी। बल्कि यह स्वत: ही हो जाएगा।


कबीर हरदी पीआरी, चूंनां ऊजल भाइ॥
राम सनेही तऊ मिलै, दोनउ बरन गवाइ॥५६॥

कबीर जी कहते हैं कि हल्दी पीले रंग की होती है और चूना सफेद रंग का होता है। लेकिन जब ये दोनो परस्पर मिलते है तो दोनो ही अपना अपना रंग छोड़ देते हैं और किसी तीसरे रंग मे नजर आने लगते हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि जिस प्रकार हल्दी और चूना अर्थात अलग अलग वर्ण और जाति के लोग जो कि उस राम के प्रेम में डूबे हुए हो यदि परस्पर मिलते हैं जो दोनों ही अपनी जाति,वर्ण का अभिमान भुल कर एक नये रंग में रंगे हुए आपस मे मिलते हैं। जैसे हल्दी और चूना  आपस मे मिलने पर तीसरा रंग धारण कर लेते हैं। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि राम से प्रेम करने वालो को सभी मे राम के ही दर्शन होने लगते हैं।