सोमवार, 29 दिसंबर 2008

फरीद के श्लोक - १६

फरीदा कोठे मंडप माणीआ,उसारेदे भी गए॥
कूड़ा सउदा करि गए,गोरी आऐ पए॥४६॥

फरीदा खिंथड़ि मेखा अगलिआ,जिंदु
ना काई मेख॥
वारी आपो आपणी,चले
मसाइक सेख॥४७॥

फरीदा दुहु दीवी बलदिंआ,मलकु बहिठा जाए॥
गड़ु लीता,घट लुटिआ,दीवड़े गईआ बुझाए॥४८॥


फरीद जी कहते हैं कि इस दुनिया में जीव जब आ जाता है तो उसे अपने जीवन को सुखी बनाने का ही ख्याल सबसे पहले आता है और वह इसी लिए घर बार बनानें में तल्लीन हो जाता है।वह चाहता है कि उस के पास अपार धन संम्पदा हो।वह अपनी सारी उर्जा इसी को कमानें मे लगा देता है।लेकिन वह जीव यह नही समझ पाता कि यह जो यत्न वह कर रहा है ,वह अन्तत: व्यर्थ साबित होगा और खाली हाथ ही हमें जाना होगा।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि ईश्वर भक्ति के सिवा बाकी के काम हमारे साथ नही जाते। वह सारे काम तो शरीरिक सुख के लिए किए जाते हैं।इस लिए ईश्वर भक्ति ही सर्वोतम है।

आगे फरीद जी कहते हैं कि यह जो तेरी गोदड़ी है इस में नाजाने कितने ही टांके लगे हुए हैं।इस लिए हमे सदा पता रहता है कि यह किसी ना किसी कमजोर टांके वाली जगह से ही दुबारा फट सकती है।इस लिए इस की मरम्मत की जा सकती है। लेकिन यह जो हमारा जीवन है इस में कोई टांका नही लगा हुआ।इस लिए यह कब अचानक ही हमारे हाथ से कब छूट जाएगा यह कोई नही जानता। राजा और रंक चाहे कोई भी हो अन्तत: वह मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है।लेकिन फिर भी हम इस बात को याद नही रखते।अर्थात फरीद जी कहना चाह रहे हैं कि यह जो दुनियावी पदार्थ हम एकत्र करते रहते हैं यदि यह कभी नष्ट हो जाए तो हम इस को दुबारा कमा सकते हैं। लेकिन यदि यह जीवन एक बार हमारे हाथ से निकल गया तो फिर यह हमारे हाथ दुबारा नही आ सकता।वैसे भी यह तो निश्चित ही है कि जब हमारी बारी आएगी तो हमें भी यह शरीर छोड़ कर जाना ही पड़ेगा।

फरीद जी इसी बात को आगे कह रहे हैं कि यह जो दो दीपक जल रहे हैं,इन के सामनें मृत्यु का फरिशता आ कर बैठा रहता है।वह कब तुझे अपने आगोश मे लेता है और कब तेरा घर लूट लेता है और फिर तेरे इन जलते हुए दोनों दीवों को बुझा के चला जाता है यह तुझे पता भी नही चलता। अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि यह जो मौत है यह हमेशा हमारे साथ ही रहती है।वह मौत कब हमारा जीवन लूट कर, हमारी साँसों को छीन कर ,हमारी इन दो आँखों को बन्द कर दे।यह कोई नही जानता। इस लिए हमें इस जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिए।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

फरिद के श्लोक - १५

कंधि कुहाड़ा,सिरि घड़ा,वणि कै सरु लोहारु॥
फरीदा हौ लोड़ी सहु आपणा,तू लौड़हि अंगिआर॥४३॥

फरीदा इकना आटा अगला,इकना नाही लोणु॥
अगै गए सिंयापसनि चोटा खासी कौणु॥४४॥

पासि दमामे,छतु सि्रि,भेरी सडो रड॥
जाऐ सुते जीराण महि,थीऐ अतीमा गड॥४५॥

फरीद जी कहते हैं कि कंधे पर कुल्हाड़ी और सिर पर पानी का घड़ा लेकर यह अपने को जंगल का राजा समझ रहा है।अर्थात जब इन्सान शक्तिशाली होता है और उस के पास बहुत धन संम्पदा होती है तो वह अपने को बहुत मजबूत व शक्तिशाली समझता है।लेकिन ऐसा होने पर भी वह अंगियार अर्थात ऐसी वासनाओ की कामना करता है जो आग की तरह होती है जैसे विषय विकार आदि।इन्सान इन्ही के पीछे भागता रहता है।लेकिन फरीद जी कहते हैं कि मै तो अपना प्यारा ढूंढ रहा हूँ।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है जब प्रभू ने तुझे सब कुछ दे रखा है तो ऐसे में व्यर्थ की कामनाओं के पीछे भागना छोड़ कर उस प्रभू की प्राप्ती का यत्न करना चाहिए।

आगे फरीद जी कहते हैं कि यह अक्सर देखने मे आता है कि एक इन्सान तो बहुत संम्पन्न है ।उस के पास दुनियावी सभी पदार्थ हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जिन के पास कुछ भी नही है।उन का गुजारा बहुत मुश्किल से हो रहा है।लेकिन ऐसा सब होनें पर भी यह तो आगे जा कर पता लगेगा कि कौन चोट खाएगा अर्थात अपमानित होगा और कौन उस परमात्मा की नजर में सम्मानित होगा।

फरीद जी कहते हैं कि भले ही कितना ही धन पास हो।भले ही समाज में हम कितना ही सम्मान पाते हो।लेकिन आखिर में धनी और कंगाल दोनों को श्मशान में लेजा कर जला दिया जाता है।अर्थात अंत में दोनों के शरीर का हाल एक जैसा ही होता है।असल में फरीद जी हमे समझाना चाहते हैं कि यह जो धन संम्पदा है और यह जो हमे लोगो से सम्मान मिल रहा है या फिर हम जो फटेहाल जीवन गुजारते हैं। इन सब की कोई कीमत नही है।हमारी असली कीमत तो प्रभु प्राप्ती से ही हो सकती है।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

फरीद के श्लोक - १४

घड़ीऐ घड़ीऐ मारिऐ,पहरी लहै सजाए॥
सो हेड़ा घड़ीआल जिउ,ढुखी रैण विहाए॥४०॥

बुढा होआ शेख फरीद, कंबणि लगी देह॥
जे सौ वरिआ जीवणा,भी तनु होसी खेह॥४१॥

फरीदा बारि पराइऐ बैसणा,साईं मुझै देहि॥
जे तू ऐवै रखसी,जिउ सरीरहु लेहि॥४२॥


फरीद जी कहते हैं कि हर पल,हर घड़ी इस शरीर रूपी घड़ियाल को मरना पड़ रहा है।इस तरह यह पल-पल, पहर-पहर में बदल जाते हैं और तब भी वह सजा भोग रहा होता है।इसी तरह दुख और कष्ट भोगते-भोगते हमारा सारा जीवन बीत जाता है।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि जैसे ही इन्सान इस दुनिया में जन्म लेता है,उसी समय से यह शरीर मरनें लगता है। धीरे-धीरे यह समय पहरो में फिर महीनों और सालों मे बदल जाता है।इस तरह हमारा सारा जीवन ही दुख और तकलीफों को सहता हुआ बीतनें लगता है।

आगे फरीद जी कहते है कि इसी तरह शरीर बूढ़ा हो जाता है और हमारी देह काँपनें लग जाती है। भले ही हम सो बरस तक जीते रहे,लेकिन फिर भी इस शरीर ने आखिर में स्वाह हो जाना है।फरीद दी इस तरह की चर्चा इस लिए कर रहे हैं क्यूँकि हम सदा भोग-विलास के पीछे जीवन भर भागते रह्ते हैं।वह कह रहे है कि यदि हम सारी उमर इसी तरह अपना जीवन बीताते रहे तो भी यह जीवन एक दिन समाप्त हो जाना है।

फरीद जी अगले श्लोक में प्रभू से प्रार्थना करते हुए कह रहे हैं कि हे प्रभू! यदि तूनें मुझे इसी तरह दुनिया में भोग-विलासो के मोह में फँसाए रखना है तो यह जीवन आप अभी वापिस ले लो।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हे प्रभु यह तो अनमोल जीवन हमें मिला है यह व्यर्थ ही ना चला जाए।हमारा यह जीवन ऐसा हो कि हम तुम्हारे प्रेम में डूब कर आनंद से बिताएं।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

फरीद के श्लोक - १३

फरीदा विसु गंदला,धरिए खंड लिवाड़ि॥
इकि राहेदे रहि गए,इकि राधी गए उजाड़ि॥३७॥

फरीदा चारि गवाइआ हंडि कै,चारि गवाइआ संमि॥
लेखा रब मंगेसीआ,तू आंहो केरे कंमि॥३८॥

फरीदा दरि दरवाजै जाऐ कै,किउ डिठो घड़िआलु॥
ऐहु निदोसां मारिऐ,हम दोसां दा किआ हालु॥३९॥

फरीद जी कहते हैं यह संसार तो बहुत ही गंदा है अर्थात जीव को उलझानें वाला है।लेकिन यह जिस तरह हमें नजरआता है वह बहुत ही मोहक और मीठा लगता है।यह ठीक ऐसे ही है जैसे किसी ने विष को चीनी की चासनी मे डुबोकर मीठा कर दिया है और उसे हमें ललचाने के लिए हमारे सामनें परोस दिया हो।इस लिए कई लोग तो इस कोपानें की लालसा में ही तरसते रह गए और जीवन भर रोते-रोते ही बिता कर चले गए और कुछ इसे जीवन भरकमाते रहे ,मेहनत करते रहे।लेकिन अतं मे उन को कुछ भी हाथ नही आया।अर्थात जीवन भर कमा कमा कर भीवह कुछ पा नही सके।

आगे फरीद जी कहते हैं कि तू इस कुछ पाने के लालच में अपने दिन तो इसे पानें की कोशिश मे गँवा रहा है औररात को इस व्यर्थ की भाग दोड़ से हुई थकान के कारण सो कर व्यर्थ गुजार रहा है।क्या कभी तूनें सोचा है कि जबपरमात्मा तुझ से हिसाब माँगेंगा कि मैनें यह मुनुष्य का जीवन तुझे किस काम के लिए दिया था और तू इस मनुष्य के जीवन को पा कर कौन से काम करता रहा है? उस समय तू उस परमात्मा को क्या जवाब देगा?
असल मे फरीद जी इन सवालों को उठा कर हमें समझना चाह रहे हैं कि हमें अपनें जीवन को व्यर्थ के कामों के पीछे भागते हुए,व्यर्थ के पदार्थों को भोगते हुए अपना यह अनमोल जीवन व्यर्थ नही गवाना चाहिए।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि इस तरह जीवन को बिता कर जब हम अपनी अंतिम घड़ी के करीब पहुँचेगें अर्थात मृत्यू के द्वार पर पहुँचेगें तो वहाँ हमें मृत्यु रूपी घड़ियाल से सामना करना पड़ेगा।यह मृत्यु रूपी घड़ियाल तो उन्हें भी खा जाता है जिन्होनें कभी कोई बुरा काम नही किया है,ऐसे में हम जैसे का क्या हाल होगा जो जीवन भर स्वार्थ के वशीभूत होकर बुरे से बुरा काम करते रहे हैं।अर्थात इस श्लोक में फरीद जी कहना चाहते हैं कि जीवनं के बाद मौत तो हर हाल में आनी ही है।लेकिन जो लोग निर्दोष अर्थात जीवन के उद्देश्य को समझ कर अपना जीवन बिताते है वह तो सुखद मत्यु को प्राप्त होते हैं। लेकिन जो बुरा करते हैं उन का तो बहुत बुरा हाल होता हैं।

हम सभी ने इस तरह की मौतें जरूर देखी है। जब कुछ लोग तो प्रभू भजन करते करते अपनी अंतिम साँस लेते है और कुछ लोग बीमारीयां और नाना प्रकार के कष्ट भोग कर तड़प-तड़प कर मरते हैं।यहाँ फरीद जी इसी का जिक्र कर रहे हैं।

शनिवार, 22 नवंबर 2008

फरीद के श्लोक -१२

जोबन जांदे ना डरां,जे सह प्रीति ना जाए॥
फरीदा किंती जोबन प्रीति बिनु,सुक गए कुमलाए॥३४॥

फरीदा चिंत खटोला,वाणु दुखु, विरह विछावण लेफु॥
ऐह हमारा जीवणा,तू साहिब सच्चे वेखु॥३५॥

बिरहा बिरहा आखिऐ, बिरहा तू सुलतानु॥
फरीदा जितु तनि बिरहु ना ऊपजै,सो तनु जाण मसानु॥३६॥


फरीद जी कहते हैं कि यौवन मे यदि हमारा किसी के साथ प्रेम होता है तो हमें जवानी जाने का डर नही सताता।जबकि कितने ही ऐसे लोग होते हैं जो जवानी में प्रेम किए बिना ही अपनी जवानी को व्यर्थ गँवा देते हैं।बिना प्रेम के यह जीवन बहुत नीरस हो जाता है।कुम्हला जाता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जो यौवनावस्था में उस परमात्मा से प्रेम करने लगता है।फिर उसे कोई भय नही रहता।यदि हम जवानी के समय अपने को सम्भाल कर उस प्रभू के प्रति प्रेम मे समर्पित नही करते तो हमारा जीवन फूल की तरह कुम्हलाया -सा नजर आता है।प्रेम के बिना जीवन का रस सूख जाता है और हमारा जीवन व्यर्थ हो जाता है।इस प्रीत के अभाव में कितने ही जीवन पूरी तरह खिलने से पहले ही कुम्हला जाते हैं अर्थात मुरझा जाते हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि हे प्रभू आप तो जानतें हैं कि हम कैसे जीते हैं, यह चिन्ता हमारी चरपाई है और इस का बान हमारा दुख है।बिछोना और ओड़्नी हमारी विरह वेदना बनी हुई है।अर्थात इस जीवन में कुछ भी तो ऐसा नजर नही आता जो सच्चा सुख प्रदान करता हो।हमे हमेशा ही किसी से मिलनें की,कुछ पाने की ललक लगी रहती है।हमे हमेशा ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा है जो हमसे छूट गया है।लेकिन वह क्या है? वह हम समझ नही पाते।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते है कि सभी विरह -विरह कहते रहते हैं लेकिन यह विरह का भाव बहुत सुन्दर है।महान है।क्यूँकि इस विरह के बिना तो हमारा जीवन मसान की भाँति है। अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि यदि हमारे भीतर इस दुनिया में आने पर यह भाव नही जगता कि हम उस परमात्मा से बिछुड़ कर यहाँ आएं हैं और हमें उस प्रभू से फिर से मिलना है।तो हमारा जीवन मसान की भाँति हो जाता है।इस जीवन मे हमें जो अभाव-सा महसूस होता रहता है वही हमे जीवन जीनें की प्रेरणा देता रहता है।जिस मनुष्य के अंदर यह विरह की ललक समाप्त हो जाती है उसका जीवन मुर्दा हो जाता है।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

फरीद के श्लोक-११

साहुरै ढोई ना लहै,पैइए नाही थाउ॥
पिर वातड़ी पुछई,धन सोहागणि नाउ॥३१॥

साहुरै पईए कंत की,कंतु अगंमु अथा्हु॥
नानक सो सोहागणी,जु
भावै बेपरवाहु॥३२॥

नाती धोती संबही,सुती आइ निचिंडु॥
फरीदा रही सु बेणी हिंज्ञु दी,गई कथूरी गंधु॥३३॥


फरीद जी कहते है कि
जिस स्त्री की बात उस का पति जरा भी नही सुनता।ऐसी औरत भले ही अपना नाम सुहागन रख ले,लेकिन उस का सम्मान ना तो सुसराल में होता है और ना ही मायके में ही होता है।अर्थात फरीद जी कह रहे है कि जिस के अंदर उस परमात्मा की याद नही रहती वह इन्सान लोक और परलोक दोनों मे ही दुखी होते हैं।वह सदा तृष्णा की आग मे जलते रहते हैं।ऐसे लोग दुनिया को दिखानें के लिए भले ही धर्मात्मा का रूप धारण कर ले।वह इस दुनिया को तो धोखा दे सकते हैं लेकिन उस परमात्मा तक कभी नही पहुँच पाता।अर्थात उस की कृपा कभी नही पा सकते।

अगले श्लोक में गुरु नानक देव जी फरीद जी के श्लोक का मर्म समझाते हुए कह रहे हैं कि वह परमात्मा जीवों की पहुँच से बहुत गहरा है।क्यूँ कि जो लोग उसे भूले रहते हैं वह कभी उन पर भी नाराज नही होता।उस के लिए तो सच्ची सुहागन वही है जो उस के इस तरह लापरवाह रहने पर भी उस से प्रेम करती रहती है।ऐसी सुहागन इस लोक में और परलोक में भी उसी की प्यारी बनी रहती है।अर्थात गुरु जी कह रहे है कि जो लोग उस प्रभु से निष्काम भाव से प्रेम करते हैं वही उस परमात्मा की कृपा का अनुभव कर सकते हैं।

फरीद जी कहते है कि जो स्त्री नहा-धो कर उस परमात्मा से मिलन की आस तो कर रही है।लेकिन फिर अपने पति से मिलने की बात को भूल कर सो जाती है।ऐसी सवरी स्त्री श्रंगार किए हुए स्त्री सो जाने के कारण सभी लगाई हुई सुगंधी उड़ जाती है।अर्थात जो लोग उस परमात्मा के मिलन के सारे साधन तो जरूर करते हैं लेकिन भीतर से उन मे प्रभु को मिलनें की तड़प मौजूद नही होती ऐसा प्रभु की भक्ति का दिखावा करने वाले लोग धीरे धीरे भक्ति तो करते नजर आते हैं लेकिन उन की यह भक्ति भकित ना हो कर एक अवगुण बन जाता है।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

फरीद के श्लोक-१०

फरीदा रोटी मेरी काठ की,लावणु मेरी भुख॥
जिना खाधी चोपड़ी,घणे सहनिगे दुख॥२८॥

रुखी सुखी खाइ कै,ठंडा पाणी पीओ॥
फरीदा देखि पराई चौपड़ी,ना तरसाओ जीओ॥२९॥

अजु ना सुती कंत सिउ,अंग मुड़े मुड़ि जाइ॥
जाइ पुछो ढोहागणी,तुम क्युँ रैणि विहाइ॥३०॥

फरीद जी कहते है कि मै तो काठ की रोटी खाता हूँ जिस से मेरी भूख शांत हो जाती है।जो लोग चुपडी व स्वादिष्ट भोजन करते हैं वह हमेशा दुख ही सहते रहते हैं।अर्थात जो लोग मेहनत की कमाई की रोटी खाते हैं वही शांती पा सकते हैं।उन्ही की भूख शान्त हो सकती है।लेकिन जो लोग मुफ्त का माल खाते हैं भले ही वह कितना ही स्वादी हो,ऐसा भोग करने वाले अन्तत: दुख ही भोगते हैं।असल में फरीद जी यह कह रहे हैं कि ईश्वर भक्ति करते समय इन्सान को चाहिए कि वह अपनी मेहनत की कमाई ही खाए।इस से उस का मन प्रभु भक्ति में आसानी से लग जाता है।जब की मुफ्त का माल खा कर मन स्थिर नही रह पाता।

इस लिए अपनी मेहनत से जो भी रूखी-सूखी कमाई रोटी है तू उसी को खा के तृप्त हो सकता है। अत: फरीद जी कहते हैं कि दुसरों को अच्छा व सुस्वादिष्ट भोग करते देख कर अपने मन को भटकाना मत।क्यूँकि मन का स्वाभाव होता है कि वह हमेशा अधिक पाना चहाता है।यह लालसा मनुष्य को प्रभु से दूर कर देती है।

फरीद जी कहते हैं कि यह देखने मे आता है कि जो लोग प्रभु से कुछ देर के लिए भी दूर हो जाए वह दुखों से घिरनें लगते हैं।लेकिन उन लोगो का क्या हाल होता होगा जो कभी उस को याद ही नही करते।अर्थात जो लोग अपनी मेहनत से कमा कर खाते हैं उन के मन मे संतोष पैदा हो जाता है। तथा संतोषी आदमी ही उस प्रभु का मन लगा कर ध्यान कर पाता है।लेकिन जो लोग छल कपट से कमाई करते हैं और दुनिया के सारे भोगो को भोगते है। उन को देखने से तो यही लगता है कि वह सारे सुख भोग रहे हैं लेकिन वास्तव में असंतोष के कारण उन का मन हमेशा भटकता ही रहाता है।जिस कारण वह हमेशा तृष्णा की आग मे जलते रहते हैं और दुखी रहते है।ऐसा आदमी कभी भी उस प्रभु की कृपा नही पा सकता।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-९

भिजउ सिजउ कंबली ,अलह वरसउ मेहु॥
जाइ मिला तिना सजणा,तुटौ नाहिं नेहु॥२५॥

फरीदा मैं भोलावा पग दा, मैली होइ जाइ॥
गहिला रुहु ना जाणहि,सिर भी मिट्टी खाइ॥२६॥

फरीदा खंड निवात गुड़, माखिओ मांझां दुधु॥
सभे वसतु मिठीआं रब ना पुजन तुधु॥२७॥

फरीद जी कहते है कि हे प्रभू जितना मर्जी पानी बरसे मुझे इस की कोई परवाह नही है।भले ही इस से मेरी कंबली भीग जाए,बिल्कुल पानी से सराबोर हो जाए।मुझे तो बस एक ही इच्छा है कि उस प्यारे का प्रेम कहीं टूट ना जाए।इस लिए मुझे तो उस से मिलना ही है।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि यह जो जीवन में सुख-दुख है यह तो हमेशा साथ रहते ही हैं।इन्हें तो जीवन में सभी को भोगना ही पड़ता है। इस से घबरा के यदि मेरा ध्यान तुझ से हटता है तो मेरा जीना व्यर्थ हो जाएगा।इस लिए सदा उस से मिलने की चाह बनी रहने से उस के प्रति मेरा प्रेम कभी कम नही हो सकता।

देतीफरीद जी आगे कहते है कि मुझे तो इस बात कि चिन्ता थी कि कहीं मेरी यह पगड़ी मैली ना हो जाए। लेकिन में नासमझ इतना भी ना जान सका यह मिट्टी तो सिर को भी मिट्टी कर देती है।जो मिट्टी मेरी पगड़ी को मैला कर है वही मेरे सिर पर भी पड़नी है।अर्थात फरीद जी कहते हैं कि मुझे तो सदा अपने मान -अपमान कि चिन्ता ही रहती थी। इस लिए मै दुनियावी कामों मे ही उलझ कर यह सोच रहा था कि इस से मेरी इज्जत सदा बनी रहेगी। लेकिन यह सब भ्रम था।क्यूँकि एक दिन यह शरीर भी नाश हो जाना है।ऐसे में उस प्रभू की ही चिन्ता करनी चाहिए।

आगे फरीद जी कहते हैं। कि शकर से ज्यादा गुड़ मीठा होता है और गुड़से भी ज्यादा मीठा शहद होता है।भले ही यह सभी वस्तुएं एक से बड़ कर एक मीठी हैं। लेकिन यह सारी चीजें उस प्रभु को पाने की जो मिठास है उस का मुकाबला नही कर सकती।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि भले ही संसार में मन को मोहनें वाले एक से बड़ कर एक पदार्थ व चीजें मौजूद हैं। जिन्हे भोगनें पर मन बहुत आनंदित होता है।समाज में बहुत इज्जत व मान पाता है।लेकिन यह सारे संसार के सुख भोग मिल कर भी उस प्रभु को पाने से जो आनंद मिलता है,उस के सामने बहुत ही फीके साबित होते हैं।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-८

फरीदा राती वडिआं,धुखि धुखि उठ्नि पास॥
धिगु तिना दा जीविआ , जिना विडाणी आस॥२१॥

फरीदा जे मै होदा वारिआ,तिना आइणिआं॥
हेड़ा जलै मजीठ जिउ उपरि अंगारा॥२२॥

फरीदा लोड़ै दाख बिजउरिआ,किकरि बीजै जटु॥
हंढै ऊंन कताइदा,पैदा लोड़ै पटु॥२३॥

फरीदा गलीए चिकड़ु,दूर घरु,ना्लि पिआरे नेहु॥
चला ता भिजै कांबली, रहा त तुटे नेहु॥२४॥


फरीद जी कहते हैं कि रात बहुत बड़ी है।जिस के कारण शरीर में जगह जगह दर्द होने लगा है और उन लोगो का जीवन तो बिल्कुल बेकार है जो दुसरों के भौतिक पदार्थो के प्रति आसक्त हैं। अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि दुख के कारण या किसी इच्छा के कारण राते बहुत लम्बी हो जाती है।क्यों कि जब भी हम किसी आस में जीते हैं तो हमें बैचेनी महसूस होनें लगती है।जिस कारण सरीर और मन दोनों परेशान होनें लगते हैं।जब हम पराई संम्पदा को पानें का लोभ करने लगते हैं तो यह और भी बुरा होता है।वह कहते है कि ऐसा जीवन धिक्कारनें लायक है जो उस प्रभु के बजाय दुसरी संसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्त हो जाता है।

इसी तरह यदि हम अपने घर आए मित्रों से कुछ छिपाते हैं तो जिस प्रकार मास अंगारों पर जलता है वैसा ही हम को भीतर जलना पड़ता है।अर्थात वह जो परमात्मा रूपी हमारा मित्र है।यदि हम उसके सामने अपनी पूरी बात नही कहते अर्थात दिखावा करते हैं तो इस से हम ही लाभ से वंचित रहते हैं।जब तक हम उस के समक्ष पूरी तरह समर्पित नही होगें,हमारे मन को कभी शांती नही मिल सकती।

फरीद जी कहते हैं कि जिस तरह कोई कीकर को बो कर उस से अंगूर का फल प्राप्त नही कर सकता उसी तरह ऊंन की जीवन भर का्ताई करवानें वाला अगर यह सोचे कि वह उं की कताई करके रेशम पहन सकता है तो यह नासमझी ही होगी।अर्थात फरीद जी कहते है कि बिना बंदगी किए सुख की आस करनें वाला ठीक उसी व्यक्ति की तरह है जो कीकर को बो कर अंगूर और ऊन की कताई करवा कर रेशम पहननें की अभिलाषा मन मे करता है।अर्थात हम तो वही पा सकते हैं जो हम जीवन भर कमाते रहते हैं।बिना प्रभू भक्ति के जीवन में कभी भी सुख नही आ सकता।

आगे फरीद जी कहते हैं कि उस परमात्मा की गली में जाना भी मुश्किल है। क्यों कि गली में बहुत कीचड़ है और उस का घर भी बहुत दूर नजर आ रहा है। लेकिन जो लोग उस के प्यार में जरा से भी पड़ चुके हैं।वह उस को नही छोड़ सकते।उन के लिए उस को छोड़ना दुख का कारण बन जाता है।इस लिए अगर उस से मिलनें को जाता हूँ तो मेरा कंबल भीग जाता है और अगर नही जाऊंगा तो वह मेरा प्यारा रूठ जाएगा।अर्थात परमात्मा को पानें के लिए संसार के मोह माया की ओर से ध्यान हटाना पड़ेगा।क्यूँ कि जीवन में कदम कदम पर हमारा मन संसार की माया के कारण उस ओर खिचने लगता है।जिस कारण वह हम से निरन्तर दूर होता जाता है।जब यह दूरी बड़ती है तो हम विकारों से ग्रस्त हो कर दुखी होनें लगते है।लेकिन यदि हम हिम्मत करके उस प्रभु की ओर बढे तो बेशक यह संसारी रिशते नातों को छोड़ने का दुख महसूस हो, लेकिन हमे उसे नही भूलना चाहिए।


गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-७

फरीदा थीउ पवाही दभु॥जे सांई लोड़हि सभु॥
इकु छिजहि बिआ लताडी़अहि तां सांई दै दरि वाड़िअहि॥१६॥
फरीदा खाकु ना निंदिए,खाकु जेडू ना कोइ॥
जीवदिआ पैरां तलै मुइआ उपरि होइ॥१७॥
फरीदा जा लबु ता नेहु किआ ,लबु ता कूड़ा नेहु॥
किचरु झति लघाईए छपरि तुटै मेहु॥१८॥
फरीदा जगंलु जगंलु किआ भवहि, वणि कंढा मोड़ेहि॥
वसि रबु हवालिआ ,जगंलु किआ ढुंढेहि॥१९॥
फरीदा इंनी निकी जंगिए, थल डुंगर भविउमि॥
अज फरीदा कूजड़ा , सो कोहा थिउमि॥२०॥

फरीद जी कहते हैं कि यदि उस प्रभु की कृपा पानी है तो घास के समान एक पौध बन जा।यहाँ फरीद जी पौधे के उदाहरण देते हुए समझा रहे हैं कि जिस प्रकार वह पौधा सदा सब के पैरों तले रहता है।उसी तरह तू अपने मन को बना ले।अर्थात अपने मन को विनम्र बना ले।क्यूँकि बिन विनम्रता के उस परमात्मा को नही पाया जासकता।अंहकारी लोग कभी भी उस को नही पा सकते।जिस प्रकार वह पौध या झाड़ी लोगो के पैरों तले रौदी जाती है लेकिन फिर भी वह वैसी ही बनी रहती है।तू भी ठीक ऐसा ही विनम्र हो जा ।तभी तुझे उस प्रभु के दर पर प्रवेश मिल सकेगा।पिछले श्लोक में जो प्रश्न उठाया था यह उसी का उत्तर फरीद जी यहाँ दे रहे हैं।
फिर फरीद जी कहते हैं कि है भाई खाक को छोटा जान कर उस की निंदा मत करना।अर्थात जो लोग विनम्र हैं उन को छोटा जान कर निंदा मत करना। क्यूँ कि उनकी विनम्रता ही उन का हथियार है।जिस प्रकार खाक हमेशा जमीन पर पैरों तले पड़ी रहती है। भले ही तेरे जीवित तहते समय तेरे पैरों के नीचे होती है लेकिन जब तू मरता है तो यही खाक तेरे मरनें के बाद तेरे ऊपर होती है।अर्थात विनम्रता सदा ही अंहकार से बड़ी होती है।

फरीद जी आगे कहते है कि यदि किसी के मन में लोभ है और इस कारण से वह प्रेम करता है तो उस का कुछ भी फायदा होनें वाला नही है।लोभ के कारण किया जानें वाला प्रेम तो झूठा है।जिस तरह टूटे छप्पर पर जब पानी बरसता है तो वह उस पानी की बौछारों को कब तक बर्दाश्त कर सकेगा।अर्थात एक दिन वह अवश्य ही टूट जाना है।यहाँ पर परीद जी कहना चाह रहे हैं कि जो लोग परमात्मा की भक्ति किसी लोभ या किसी भी प्रकार के लालच के वशीभूत हो कर करते हैं,वह धन का हो,यश पानें का हो, फिर किसी भी प्रकार का हो ।इस प्रकार का प्रेम या उपासना वह असल में प्रभु भक्ति है ही नही। यह प्रेम तो तभी तक बना रह सकेगा जब तक आप की जरूरतें पूरी हो रही हैं। जिस दिन भी आप की जरूरते पूरी होना बंद हो जाएगीं उसी दिन आप का प्रेम भी उस के प्रति छूट जाएगा।इस लिए ऐसे प्रेम को प्रेम नही कहा जा सकता।भले ही हम उसे प्रभु के प्रति अपना प्रेम मानते रहें।
पुराने समय में लोग प्रभु भक्ति के लिए अक्सर जगंलों मे चले जाते थे।उसी के लिए फरीद जी कहते हैं कि तू जगंलो की खाक क्योँ छानता फिर रहा है ,वहाँ तो बहुत ही काँटें अर्थात कष्ट होते हैं।उन कष्टों के बीच उस परमात्मा को कैसे याद किया जा सकता है।अर्थात वह प्रभु जिसे तू जगंलों मे खोज रहा है, बाहर खोज रहा है, वह तो असल में तेरे भीतर ही मौजूद है।इस लिए तू जगंल में क्या ढूँढ रहा है?

आगे फरीद जी कहते हैं कि इन छोटी-छोटी टांगों के सहारे मैं भी उसे जगंल जगंल खोजता रहा। लेकिन अब पता लग चुका है कि वह तो भीतर ही है।और मै सदा यह समझता रहा कि वह बहुत दूर है।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-६

फरीदा काली धउली साहिब सदा है,जे को चिति करे॥
अपणा लाइया पिरमु ना लगयि, जे लोचै सब कोइ॥
ऐह पिरमु पिआला खसम का,जै भावै ता देइ॥१३॥
फरीदा जिन लोइण जगु मोहिआ, सो लोइण मै डिठु॥
कजल रेख ना सहदिआ,से पंखी सुइ बहिठु॥१४॥
फरीदा कूकेदिआ चांगेदिआ,मति देदिआ नित॥
जो सैतानि वंयाइआ,से कितिफेरहि चित॥१५॥

फरीद जी ने जैसे कि पहले कहा है कि जवानी में हम विषय विकारों के आधीन होते हैं और बुढापे में हमारा कमजोर हो जाना उस प्रभु की ओर से हमारा ध्यान हटा देता है। लेकिन फिर भी यह भक्ति हमे कभी भी प्राप्त हो सकती है।इन श्लोकों मे फरीद जी कहते हैं कि वैसे तो हम जवानी और बुढापे दोनों मे ही उस की बंदगी कर सकते हैं।लेकिन यह जान लो कि यह प्रभु भक्ति हमारे करनें से ही हमे नही मिल सकती।चाहे हम कितनी भी कोशिश कर ले।हम अपनी मरजी से कभी भी उस ओर ध्यान नही दे सकते।हम कभी भी उस प्रेम-प्याले को नही पा सकते।जब तक कि उस की कृपा ना हो। अर्थात जब भी हम कोई यत्न करते हैं तो उस यत्न के साथ हमारा अहंम जुड़ जाता है।कि यह काम मैं कर रहा हूँ।इस अहंम के कारण ही हम उस तक नही पहुँच सकते।वहाँ तो वही पहुँचते हैं जो अपना अहंम त्याग चुके हैं। जब तक पूर्ण समर्पण नही किया जाता तब तक उसे नही पाया जा सकता।

आगे फरीद जी कहते हैं कि जिन आँखों के कारण (शरीर की व मन की) यह जगत हमें मोहित करता है।उन आँखों के बारे मॆ सभी जानते हैं।ये आँखें तो काजल को भी सहन नही करती थी।जो अब नए जनमें पक्षी के बच्चे की तरह बैठकर इस संसार को कोतुहल से ताकनें लगता है।अर्थात जब हम इस संसार को शरीर की व मन की आँखों से देखते हैं तो हमारे अंदर इस संसार के प्रति आसक्ती पैदा हो जाती है। इस बात को हम सभी जानते हैं।लेकिन जब कोई बच्चा जनमता है तो उस समय उस के मन में कोई भावना नही होती,कोई विकार नही होता।वह एकदम निश्छल होता है। उस समय वह सब कुछ कौतुहल से देखता है। लेकिन फिर इस में भी समय के साथ-साथ विकार,दुनिया के प्रति मोह आदि पैदा हो जाते हैं।समझ्दार लोग हमें इन बातोम के प्रति सदा सावधान करते रहते हैं।चैताते रहते हैं।सीख देते रहते हैं।लेकिन फरीद जी कहते हैं कि फिर भी हम इन सब से बच नही पाते।आगे वह प्रश्न करते है कि हम इस से बच कैसे सकते है?अर्थात हम किस प्रकार उस परमात्मा का प्यार पा सकते हैं?

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-५

फरीदा अखी देखि पतीणीआं,सुणि सुणि रीणे कंन॥
साख पंकदी आया,होर करेंदी वंन॥११॥
फरीदा कांली जिनी ना राविआ धउली रावै कोई॥
करि सांई सिउ पिरहणी,रंगु नवेला होई॥१२॥

फरीद जी ने जो पीछले श्लोकों में कहा है उसी बा्त को आगे ले जाते हुए कहते हैं कि हमरी आँखें भी इस दुनिया के रंग तमाशे देख-देख कर उकता जाती हैं और कान भी सुन-सुन कर बहरे हो जाते हैं।अर्थात इस दुनिया में सभी तो अपना-अपना स्वार्थ साधनें मे लगे हुए हैं।हम कुछ भी बोलते रहे लेकिन लोग तो वही सुनते हैं जो उन के मतलब का होता है।बाकी का तो सुन कर अनसुना ही कर देते हैं।इसी तरह उन्हें वही कुछ दिखाई देता है जो उन के मन के अनुसार उन्हें भाता है।बाकी जो सच को उजागर कर सकता है वे उसे देखते ही नही।

हमारा इस तरह का आचरण ही हमे बेकार के कामों मे मजबूती प्रदान करता चलता है।अर्थात बुढापे में कान और आँखें ही नही हमारा शारीर भी कमजोर हो चुका है।क्यूँकि हम जीवन भर जो भी करते रहते हैं हमे उस की ही आदत पड़ जाती है।

आगे फरीद जी कहते हैं कि जब हम जवानी में उस परमात्मा को याद नही करते तो बुढापे में उसे कैसे याद करेगें|अर्थात जब हमारे सर के बाल काले थे यानी जब हम जवान थे और हम कुछ भी करनें में समर्थ थे यदि उस समय हम इस सही रास्ते पर नही चल सके तो अब जब हमारे बाल सफेद पड़ चुके हैं,शरीर का हरेक अंग कमजोर हो चुका है ऐसे में हम उस रास्ते पर कैसे चलेगें।अर्थात कोई बिरला ही उस पर चल पाता है।लेकिन फरीद जी कह्ते है कि वह परमात्मा तो सदा नया ही बना रहता है इस लिए यदि तू अभी भी उस परमात्मा की भक्ति में डूब जाए तो फिर से तू जवान हो सकता है।अर्थात आनंदित हो सकता है।
फरीद के श्लोक-४

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

फरीद के श्लोक-४

फरीदा जा तौ खटण वेल,तां तू रता दुनी सिउ॥
मरग सुवाही निही,जां तरीया तां लदिया॥८॥
देखु फरीदा जु थिआ,दाड़ी होई भूर॥
अगहु नेड़ा आएआ,पिछो रहिआ दूरि॥९॥
देख फरीदा जि थिआ,सकर होई विसु॥
सांई बाझहु आपणे ,वेदण कहिए किसु॥१०॥


फरीद जी कहते है कि जब तेरे पास उस परमात्मा को याद करने का समय था,उस वक्त तो तू दुसरे कामों में व्यस्त रहा।इस कारण मौत की नीवं पक्की होती रही। अर्थात मौत का समय पास आता गया।जब तेरे श्वास पूरे हो जाएगें तो तुझे इस संसार को छोड़ कर जाना पड़ेगा।फरीद जी आगे कहते है कि चल छोड़,अब तक जो हुआ उस की परवाह मत कर,उस ओर ध्यान मत दे।लेकिन भाई अब तो तेरी दाड़ी भी सफेद हो चुकी है ओर अब तो मौत का समय भी पास आ चुका है।अब जो तेरे आगे का समय है उस की फिक्र कर,कहीं ऐसा ना हो कि तू पिछली बातों को याद करता रहे या फिर से अपनी पुरानी नासमझी दोहराता रह जाए और तेरा आगे का समय जो शेष रह गया है,जोकि बहुत कम है ।वह भी व्यर्थ ही गंवा बैठे।इस लिए तेरे पास जो समय रह गया उस का सदुपयोग कर ले।

फिर फरीद जी कहते है कि अब तक जो हुआ सो हुआ।अब तो बुढापा आ चुका है,इस कारण दुनिया के मीठे काम भी जहर लगनें लगते हैं अर्थात बुढापे में इन्द्रियों के कमजोर पड़ने के कारण अब तू उन को नही भोग सकता,उन का रस नही ले सकता।इस लिए अब वह सब तेरे लिए विष के समान हैं।अब तू इस अपने दुखड़े को किस के सामनें रोएगा अर्थात अब तो तेरा एक मात्र सहारा वही परमात्मा ही है,इस लिए तू उसी से फरियाद कर।जिस से तेरी सभी समस्याओं का समाधान हो सके।


सोमवार, 29 सितंबर 2008

फरीद के श्लोक-३

जे जाणा लड़ छिजणा,पीडी पाईं गंढि॥
तै जेवडु नाहि को,सब जग डिट्ठा हंढि॥५॥
फरीदा जे तू अकल लतीफ,काले लिख ना ले्खु॥
आपनड़े गिरीवान महि,सिरु नीवां करि देखु॥६॥
फरीदा जै तै मारनि मुकीआं,तिना ना मारे घुंमि॥
आपनड़े घरि जाइऐ,पैर तिन्ना दे चुंमि॥७॥

फरीद जी कहते हैं कि हमें पता होता कि यह जो पल्ला हमनें पकड़ा हुआ है।तेरे साथ बाँधा हुआ है,यह बार-बार जाएगा तो हम पहले ही इस बंधन को मजबूत कर लेते अर्थात हमनॆ भले ही अपना ध्यान तेरी ओर लगा रखा है।लेकिन यह जो संसार के प्रति हमारी आसक्ती है।यह बार-बार हमारा ध्यान अपनी ओर खींच लेती है।हम मोह के वशीभूत हम उस ओर खिचें चले जाते हैं।इस से बचनें क उपाय हम पहले ही खोज कर रख लेते,तो अच्छा होता।क्यूँकि हम सभी जानते हैं कि तुम से बड़ा हमारा हितैषि और कोई भी नही है।यह बात हमनें इस संसार में अच्छी तरह देखभाल कर जान ली है।आगे फरीद जी कहते हैं कि यदि तुझे लगता है कि तू बहुत अकलमंद है तो फिर सदा दूसरों की बुराईयां ,उन की कमियां क्यों ढूंढता रहता है।अर्थात समझदार आदमी कभी भी दूसरों की कमियां,बुराईयां नही निकालता।दूसरों की कमियां निकालनें से पहले तुझे अपनें गिरेबान मॆ झाँक कर देख लेना चाहिए।अर्थात दूसरो की गलतीयां देखनें की बजाए अपनी कमियों को दूर करना चाहिए। इसी को समझ् दारी कहते हैं।आगे कहते है कि जो लोग तुम्हें सताते हैं,उन को पलट कर तुम मत मारना।क्यूँकि उन के कारण ही तुझे इस दुखों के भवसागर से विरक्ति पैदा होगी।जिस से तेरा इस संसार से मोह टूटेगा और तू उस परमात्मा की शरण मे जाएगा।इस लिए तुझे उन के चरणों को चूमना चाहिए।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

फरीद के श्लोक-२

फरीदा दर दरवेसी गाखड़ी चलां दुनिया भति॥
बनि उठाली पोटली किथै वंजां घति॥२॥
किंजु ना बूझै, किंजु ना सूझै, दुनिया गुंझि भायि॥
सांई मेरे चंगा किता, नाहीं ता हंभी दझां आहि॥३॥
फरीदा जे जाणां तिल थोड़डे़, संमलि बुक भरीं॥
जे जाणां सहु नंढड़ा तां थोड़ा माणं करीं॥४॥


फरीद जी कहते है कि वह रास्ता बहुत मुश्किल नजर आता है जो परमात्मा की दिशा में जाता है ।हमें तो सिर्फ दुनियावी काम करने और उसी में लीन रहना अच्छा लगता है।क्यूँ कि इस रास्ते पर चलना बहुत आसान है।इस के लिए हमें कुछ भी बदलनें की जरूरत नही होती।इसी लिए यह रास्ता अच्छा लगता है।लेकिन हम जो यह दुनियावी गठरी ले कर चल रहे हैं। उसे हम रखेगें कहाँ? यह बात तो कोई नही जानता।हम जीवन भर सामान जोड़ते रहते हैं।जोड़-जोड़ कर बहुत कुछ इकट्ठा कर लेते हैं।जो बाद में हमारे ही जी का जंजाल बन जाता है।

इसी तरह जब हम जीवन जीते रह्ते हैं, तो एक दिन ऐसा आ जाता है जब हमें कुछ भी सूझता नही ,कुछ भी समझ में नही आता।यह संसार के प्रति हमारा मोह,ममता हमें ऐसा उलझा देता है कि हमारे लिए इस में से बाहर निकलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है।हमे ऐसा लगनें लगता है कि हम कभी भी इस से बाहर नही निकल सकेगें।लेकिन वह परमात्मा हम पर बहुत दयालु है, वह बहुत ही अच्छा है।वह हमेशा कुछ ऐसे अच्छे काम करता है कि हमारा ध्यान बीच-बीच में वह अपनी ओर खीच ही लेता है।ताकी हम इस संसार सागर की,दुनियावी गठरी को अपनें सिर से उतार फैंकें और सही रास्ता पकड़ लें ।फरीद जी कहते हैं कि हे प्रभू ,आपने यह सब बहुत अच्छा किया है, जो अपनी कृपा की है।वर्ना हम भी सभी की तरह इस संसार के मोह ,माया में ही उलझे रहते।अर्थात बिना प्रभू की कृपा के हम इस संसार से कभी नही छूट सकते।

आगे फरीद जी कहते हैं कि यदि मैं यह जानता होता कि तिल रूपी श्वास बहुत थोड़ें है तो मैं इस का इस्तमाल बहुत संभल कर करता।मैं बेकार ही इन संसार के विषय विकारॊ के आधीन हो कर,व्यर्थ के कामों में अपनें श्वास नही गँवाता।अर्थात अपनें समय को अपनी इस सम्पदा को यूँही इतना ज्यादा बड़-चड़ कर व्यर्थ नही गँवाता।यदि मुझे पहले ही पता लग जाता कि मेरा पति अर्थात प्रभू बहुत भॊले स्वाभाव का है तो यह जो संसारी कामों को कर-कर के मैनें यह गठरी अपनी मान कर बाँध रखी है,इस के प्रति अपनें मन में अंहकार कभी नही करता।


नोट:- आखरी श्लोक में फरीद जी ने विवाह के समय निभाई जानें वाली एक रस्म के हवाले से अपनी बात को कहा है।कहते है कि जब नयी दुल्हन विवाह कर के सुसराल पहुँचती है तो लड़के वालों के घर की स्त्रीयां एक परात मे तिल भर कर ले आती हैं।फिर लड़का उन तिलों को दोनों हाथों में भर कर लड़की के हाथों में रखता है और लड़की,लड़के के हाथों में रखती है।इसी तरह व बारी- बारी के साथ सभी के साथ करती है।यह सब लड़की की हिचक तोड़्ने के लिए किया जाता है। ताकि वह सब के साथ अच्छा संबध बना सके।यह एक दुनियावी काम है जो हमें इस संसार से जोड़ने के लिए किया जाता है।फरीद जी ने इसी का हवाला देते हुए अपनी बात कही है।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

फरीद के शलोक-१


जितु दिहाड़ै धन वरी साहे लई लिखाई॥
मलकु जि कंनी सुणीदा मुहु देखाले आई॥
जिंदु निमाणी कढीऐ हडा कू कड़्काई॥
साहे लिखे न चलनी जिंदू कूं समझाई॥
जिंदु वहुटी मरणु वरु लै जासी परणाई॥
आपण हथी जौलि कै कै गलि लगै धाई॥
वालहु निकी पुरसलात कंनी न सुणी आई॥
फरीदा किड़ी पवंदीइ खड़ा न आपु मुहाई॥१॥


फरीद जी कहते है कि जिस दिन जीव का आगमन होता है,उसी दिन जीव का भाग्य लिख दिया जाता है।अर्थात उस के पैदा होते ही मृत्यु का समय भी निश्चित हो जाता है।जिस मृत्यु के फरीश्ते के बारे में पहले ही सुन रखा होता है वह बार-बार हमारे कानों मे अपने आनें की खबर देता रहता है।अर्थात हमारे आस -पास मरनें वालों के जरिए अपनी मौजूदगी का एहसास कराता रहता है।आगे कहते हैं- कि जिस जीवन रूपी पत्नी को वह मृत्यु रूपी पति वरण करता है उस की संसार में आते ही हालत खराब होनें लगती है।वह जीव की हड्डीयों को अर्थात शरीर को रोगादि द्वारा शक्तिहीन कर के ब्याह के ले जानें की तैयारीयो मे लग जाता है।इस लिए अपने को समझा ले की यह समय कभी टल नही सकता।जीवन रूपी पत्नी को मृत्यु रूपी पति एक दिन अवश्य ही ब्याह कर ले जाएगा।लेकिन क्या तू जानता है कि यह ब्याह के ले जाने के बाद किस के गले से जा कर लगेगी? अर्थात तेरी मृत्यु हो जाने के बाद तेरी आत्मा तो निआसरी हो जाएगी उस का कोई भी सहारा नही रहेगा।लेकिन फरीद जी कहते हैं इस से बचनें का एक रास्ता है, जो की बहुत ही सँकरा है ।क्या तूनें उस के बारे में नही सुना कि यह जो समुंद्र रूपी संसार है इस में विकारों की जो लहरें उठ रही हैं,उस से बचनें का एक ही दर्वेशी रास्ता है जो तुझे इस के पार ले जाएगा आर्थात मृत्यु व विकारों के कारण पैदा होने वाले दुखों के भय से तुझे मुक्त कर देगा।तेरे आस-पास कितनें ही गुरु,पीर, पैगंबर तुझे रास्ता बतानें के लिए खडे़ हुए हैं।

रविवार, 31 अगस्त 2008

गुरुबाणी-विचार (सावण आया झिमझिमा....)

सावण आया झिमझिमा, हरि गुरमुख नाम धियाए॥

दुख भुख काड़ा सब चुकाएसी, मीह वुठाछहबर लाए॥

सभ धरति पई हरीआवली , अंन्न जमिया बोहल लाए॥

हरि अचिन्त बुलावै किरपा करि हरि आपे पावै थाए॥

हरि तिसहि तिहावहु सन्त जनहु,जु अंते लए छडाए॥

हरि कीरति भगति अनंदु है, सदा सुख वसै मनि आए॥

जिना गुरमुखि नामु आराधिया, तिना दुख भुख लए जाए॥

जन नानकु त्रिपतै गाऐ गुण,हरि दरसनु देहु सभाए॥


म:४(सारंग की वार){१२५०}


गुरु जी कहते हैं कि देख सावन का महीना आ गया है अब तू भी अपनें गुरू के समक्ष उस परमात्मा का ध्यान कर ले। इससे तेरे दुख और तृष्णा रूपी भूख सब दूर हो जाएगी।जिस प्रकार सावन के आनें पर पानी के बरसनें से गर्मी दूर हो जाती है,उसी तरह प्रभू ध्यान से तेरे तृष्णा रूपी भूख और दुख सब शान्त हो जाएगें।आगे गुरु जी कहते हैं कि सावन के आनें पर सारी धरती पर हरियाली छा जाती है।जिससे खाधय पदार्थो के ढेर लग जाते हैं।उसी प्रकार तेरी प्रभू-भगती का फल तेरे सामनें प्रकट होनें लगता है।जिस कारण प्रभू स्वयं ही तुझे अपनी ओर आकृषित करते हैं।इस लिए हे संत जनों,ध्यान करनें वालों इस समय उस का ध्यान करों।वह तुम्हें दुख और भूख आदि से छुड़ाएगा।क्यूँकि प्रभू का ध्यान करनें से आन्ण्द मिलता है,यह आनंद रूपी सुख ऐसा है जो सदा के लिए तेरे मन में बस जाता है।अर्थात यही स्थाई आनंद है।जिन्होनें भी उस प्रभू का ध्यान किया .....उस के दुख और भूख दोनों ही नष्ट हो गए हैं।गुरु नानक देव जी भी उसी के गुणों को गा-गा कर तृप्त हो गए हैं। अब तो एक ही प्रार्थना है कि हे प्रभू कृपा कर के अपनें दर्शन दो।ताकि इस सावन की तरह मैं भी हरा-भरा हो जाँऊ।अर्थात तृप्त हो जाँऊ।

बुधवार, 19 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-२०



संग सखा सब तजि गए कोउ न निबहिओ साथ॥
कह नानक ऐह बिपति में टेक एक रघुनाथ॥५५॥

नाम रहिओ साधू रहिओ रहिओ गुरू गोबिन्द॥
कह नानक ऐह जगत में किन जपिओ गुर मंत॥५६॥

राम नाम उर में गहिओ जा के सम नही कोई॥
जिह सिमरत संकट मिटै दरस तुहारो होई॥५७॥१॥



एक दिन सभी संगी साथी तेरा साथ छोड़ जाएगें।ऐसा अक्सर देखनें में आता है कि जो भि हमारा संगी -साथीहो ता है,जिसे भी हम अपना मानते हैं।वह समय आनें पर हमारे साथ नही होते ।ऐसे वक्त में गुरू जी कहते हैं कि एक वह परमात्मा ही है जो हमारे साथ होता है।अर्थात जब हमारा कोई साथ नही देता उस समय एक प्रभु का ही आसरा रह जाता है।जो सदा हमारे साथ रहता है ।
संसार की हरेक वस्तु नष्ट हो जाती है,लेकिन उस प्रभु का नाम ,उस का अस्तित्व कभी नष्ट नही होता।इस संसार में नाम का ध्यान करने वाले साधु भी सदा रहते हैं अर्थात परमात्मा की बंदगी करनें के कारण उस प्रभु के साथ एकाकार हो जाते हैं।जिस कारण वह भी सदा रहते है।और वह गुरू जो हमें इस रास्ते पर चलनें की प्रेरणा देता है,वह सदा रहता है।क्यूँकि वह गुरू तो पहले से ही उस प्रभु से एकाकार हो चुका है।इस लिए उस गुरू के कहे अनुसार जिन लोगो ने गुरू द्वारा दिए गए उपदेशों पर चला हैं,वही उस परमात्मा के साथ जुड़ जाते हैं।
आगे गुरू जी,कहते हैं कि इस प्रकार जिन्होनें ने उस परमात्मा के नाम को अपनें ह्रदय में बसा लिआ है,एसे प्राणियों की किसी के साथ तुलना नही की जा सकती।ऐसे प्राणीयों के सभी संकट प्रभु कृपा से अपने आप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें उस परम पिता परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं अर्थात वह प्राणी परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।

मंगलवार, 18 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१९



दोहरा॥
बल छुटकिओ बंधन परे कछु ना होत उपाए॥
कह नानक अब ओट हरि गज जिउ होहु सहाए॥५३॥

बल होआ बंधन छुटे सभ किछ होत उपाए॥
नानक सब किछ तुमरै हाथ में तुम ही होत सहाए॥५४॥



जब कोई मुसीबत में पड़ जाता है और उस से उबरनें के सभी यत्न बेकार साबित होते हैं।ऐसे समय में कौन सहायता कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु जी कहते हैं कि ऐसे समय में उस हरि की ओट ही हमारी सहायक हो सकती है।जिस प्रकार भक्त की पुकार सुनकर प्रभु ने अपनें भक्त को बचानें के लिए हाथी का रूप धारण कर लिया था और अपनें भक्त की रक्षा की थी। ठीक उसी प्रकार यदि तूनें प्रभु को पुकारा तो वह तेरी सहयता करनें को आ जाएगा।
आगे गुरू जी,कहते हैं कि उस परमात्मा का संम्बल लेनें से निरबल बलवान हो जाता है और प्रभु कृपा से उस से छूटनें का रास्ता भी मिल जाता है।क्यूँ कि सभी कुछ तो उसी के हाथ में है अर्थात मारने और जिलानें वाला वही तो है।जब सभी कुछ वही कर रहा है तो वह क्यूँ कर हमें नही बचाएगा।वह हमारी सहायता अवश्य करेगा।


सोमवार, 17 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१८



चिंता ताकी कीजिए जो अनहोनी होइ॥
एह मारग संसार को नानक थिर नही कोइ॥५१॥

जो उपजिओ सो बिनसि है परो आज की कालि॥
नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सकल जंजाल॥५२॥


हमारी चिन्ताएं बहुत अजीब होती हैं।हम सदा उन्हीं बातों की चिन्ता करते हैं। जो जीवन में घटित होना निश्चित हैं।इसी लिए गुरू जी कह रहे हैं कि हे,प्राणी चिन्ता तो उस की कर जो अनहोनी होती हो।उस बात की चिन्ता क्या करनी,जो सभी के साथ घटित हो रहा है।यह बात तो निश्चित है कि इस संसार में कुछ भी सदा रहनें वाला नही हैं।जो पैदा होता है उसे मरना ही पड़ता है।यह तो इस संसार का नियम है।इस लिए इस बात को लेकर चिन्ता करनी छोड़ दे।
आगे गुरू जी कहते हैं कि हे प्राणी,जो भी पैदा होता है उस ने निश्चय ही एक दिन नष्ट हो जाना है।यह बात अलग है कि वह आज होगा या कल नष्ट होगा।इस लिए प्रकृति जो अपनें नियम अनुसार कर रही है,उस की चिन्ता छोड़ दे।तुझे तो इस की चिन्ता को छोड़ कर सिर्फ उस परमात्मा का ही ध्यान करना चाहिए।जो तेरे जीवन में काम आएगा।



रविवार, 16 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१७



निज करि देखिओ जगत में को काहू को नाहि॥
नानक थिर हरि भगति है तिह राखो मन माहि॥४८॥


जग रचना सभ झूठ है जानि लेह रे मीत॥
कहि नानक थिर ना रहै जिउ बालू की भीत॥४९॥

राम गयिओ रावन गयिओ जा कौ बहु परिवार॥
कह नानक थिर कछु नही सुपने जिउ संसार॥५०॥


गुरु जी कहते हैं कि तू यहाँ किस को अपना मान रहा है,किस पर आस्था रख रहा है।इस जगत मे कोई भी तेरा अपना नही है अर्थात सभी अपनें अपनें स्वार्थ के कारण ही तेरे साथ हैं और जो स्वयं कल मिटनें वाला है,वह तुम्हारा साथ कैसे दे पाएगा।क्यूँ कि इस संसार में ऐसा कुछ भी नही है जो सदा कायम रहता है ।गुरु जी कहते हैं ,लेकिन एक परमात्मा की भक्ति ही ऐसी है जो सदा रहनें वाली है ।इस लिए उसे ही अपनें मन मे बसा लो।
गुरु जी बार-बार यही कह रहें है कि यह जगत झूठा है,यह रचना सब झूठ है।वह सब इसी लिए कह रहे हैं क्योकि हम सब इस जीवन को सोये-सोये ही जीते हैं।हम लोग विकारों के वशीभूत होकर जीते हैं.इस तरह जीना ऐसा ही है जैसे हम रात को सोते समय सपनें में जीते हैं।इस लिए वह सब झूठ है।और दूसरी बात यह कि यह सब नाशवान है ,जिस तरह बालू की दिवार दिखती तो है कि वह है,लेकिन वह अगले पल ही फिर बालू हो जानें वाली है।इसी तरह यह संसार है। इस की स्थिरता भी ठीक ऐसी ही है।
आगे गुरु जी कह्ते हैं कि प्रमाण तो तुम्हारे सामनें ही हैं। रामचन्द्र जी भी आए और वह भी चले गए रावण जैसा योधा भी आया और वह भी चला गया ।उस रावण का इतना बड़ा परिवार था लेकिन वह भी नही बचा।इस लिए गुरु जी कह्ते है कि यह सब तो सपनें के समान ही है क्यूँ कि यह स्थिर नही है।जो स्थिर नही है वह सपना ही तो है।


शनिवार, 15 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१६



स्वामी को ग्रिह ज्यों सदा सुआन तजत नही नित॥
नानक एहि बिधि हरि भजो इक मन होइ इक चित॥४५॥

तीरथ बरत अरु दान करि मन में धरे गुमान॥
नानक निहफल जात तिहि जिउ कुचंर इसनान॥४६॥

सिर कंपिओ पग डगमगे नैन जोति ते हीन॥
कह नानक एहि बिधि भई तौ ना हरि रस लीन॥४७॥


कहा जाता है कि कुत्ता कभी भी अपनें मालिक का घर नही छोड़्ता।भले ही उस का मालिक उसे रूखी-सूखी रोटी देता हो या कभी -कभी रोटी भी ना दे,तो भी कुत्ता कभी मालिक का घर छो्ड़ कर नही जाता।क्योकि कुत्ता अपनें मालिक के प्रति प्रेम के कारण बंधा होता है।वह हर हाल में मालिक का दर छोड़ कर नही जाता।मालिक कई बार कुत्ते को गलती करनें पर मारता भी है,लेकिन कुत्ता मार खा कर भी सदा पूँछ हिलाता मालिक के पीछे चलता रहता है,उस का साथ नही छोड़ता।गुरु जी कहते हैं,हे मनुष्य जिस प्रकार कुत्ता अपनें स्वामी का घर कभी नही छोड़ता,उसी तरह तू भी अपनें मालिक उस परमात्मा का द्वार कभी मत छोड़ना।अर्थात उस परमात्मा का ध्यान एकाग्र हो कर लगाए रहना।सदा उस का भजन करते रहना।
आगे गुरु जी कहते हैं कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि तीरथों पर जानें से और दान आदि करनें से हमें प्रभु की कृपा प्राप्त हो जाएगी और यही सोच कर वे इन कार्यों को करते रहते हैं ।लेकिन इस तरह के काम करनें से हम अंहकार से भरते जाते हैं कि हम इतना दान कर रहें हैं,तीरथों के दर्शन कर रहे हैं।क्योकि हम जो कुछ भी करते हैं वह हमारे चित में अंकित होता जाता है,जिस से हमें यह भ्रम हो जाता है कि हमारे यह कार्य कुछ फल अवश्य प्रदान करेगें । लेकिन क्यूँ कि हमारे यह सभी कार्य स्वार्थ से प्रेरित होते हैं इस कारण इस का फल हमें नही मि्ल सकता।प्रभु की भक्ति तो निस्वार्थ भाव से करनें पर ही फलीभूत होती है।इसी लिए गुरु जी कहते हैं कि हमारे द्वारा किए गए यह काम ठीक वैसे ही हैं जैसे हाथी का स्नान करना। क्यूँकि हाथी का स्वाभाव होता है कि पहले तो वह स्नान करता है,फिर स्नान करनें के बाद अपने ऊपर मिट्टी ड़ाल लेता है।
यदि हम हमेशा इसी तरह कार्य करते रहे तो एक दिन हम बूढे हो जाएंगें। बूढा होनें पर हमारा शरीर कमजोर हो जाता है,सिर काँपनें लगता है,पैर लड़खड़ानें लगते है,आँखों की ज्योति भी कमजोर पड़ जाती है।ऐसे समय में प्रभु का ध्यान करना बहुत कठिन होता है।क्यूँ कि शरीर के कमजोर होनें के कारण कई रोग हमें घेर लेते हैं।इस लिए शरीरिक पीड़ा के कारण हम उस प्रभु का ध्यान कैसे करे सकेगें ।रह रह कर तो हमारा ध्यान अपनें शरीर के कष्टों की ओर ही जाएगा। इस लिए गुरु जी कहते हैं कि ऐसे में तो हम उस प्रभु का ध्यान नही कर पाएगें।अत:ह मे समय रहते ही उस कार्य में लग जाना चाहिए।


शुक्रवार, 14 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१५



गरब करत है देह को बिनसै छिन में मीत॥
जिहि प्रानी हरि जस कहिओ नानक तिहि जग जीत॥४२॥

जिह नर सिमरन राम को सो जन मुकता जान॥
तिहि नर हरि अंतर नहीं नानक साची मान॥४३॥

एक भगति भगवान जिह प्रानी के नाहि मन॥
जैसे सूकर सुआन नानक मानो ताहि तन॥४४॥

इस शरीर पर किस बात का गर्व करें।यह भी अन्य चीजों की तरह एक दिन नाश हो जाना है।जो स्थाई नही है उस के प्रति मोह करना नासमझी है।गुरु जी कहते हैं कि जो इस नाशवान शरीर के होते हुए भी उस प्रभू के ध्यान में लगा रहता है ऐसा मनुष्य उस प्रभू की कृपा से विजय होक र वापिस जाता है।अर्थात परमात्मा के प्रताप से वह इसस संसार को जीत लेता है। इस जगत के मोह से वह ग्रस्त नही होता।
इस प्रकार प्रभू की भगती करने वाला प्राणी मुक्त हो जाता है। अर्थात वह संसार के मोह और सभी विकारॊं के आधीन नही रहता। गुरु जी कहते हैं कि ऐसा प्राणी प्रभू की भगती के कारण उसी प्रभू के समान गुणों वाला हो जाता है। फिर परमात्मा में और ऐसे प्राणी मे को ई अंतर नही रहता।
लेकिन गुरु जी कहते है कि जिस के अंदर भगती नही है,उस प्रभू के प्रति प्रेम नही है ऐसा प्राणी पशु के समान हो जाता है जैसे कोई कुत्ता या सूअर का शरीर हो।अर्थात भगतीहीन प्राणी पशु की तरह जीता है।इस लिए हमें सदा उस परमात्मा का ध्यान करते रहना चाहिए।

गुरुवार, 13 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१४




जतन बहुत सुख के कीए दुख को कीए ना कोइ॥
कह नानक सुनि रे मना हरि भावै सो होइ॥३९॥

जगत भिखारी फिरत है सभ को दाता राम॥
कह नानक मन सिमर तिह पूरन होवहि काम॥४०॥

झूठे मान कहा करै जग सुपने जिओ जान॥
इन में कछु तेरो नहीं नानक कहिओ बखान॥४१॥


हम सभी हमेशा सुख पाना चाहते हैं,हमारी सभी चेष्टाएं सुख को पानें के लिए ही होती हैं।लेकिन कोई भी कभी दुख पानें की कोशिश नही करता।गुरु जी कहते हैं कि हमारे ऐसा चाहनें से कुछ भी नही हो सकता,परमात्मा तो वही करता है जो उसे अच्छा लगता है।वह सदा हमारा भला ही करता है।ऐसे में यदि हमें कोई दुख भी मिलता है तो वह भी उसी की मरजी से मिलता है और जो सुख मिलता है वह भी उसी की मरजी से मिलता हैं।इस लिए हमारी कोई भी चेष्टा उस प्रभू के कार्य या मर्जी में कभी बाधक नही बन सकती।सदा वही होता है जो वह परमात्मा चाहता है।
सारा संसार ही उस से मागँता रहता है, संसार में ऐसा कोई नही जो उस के सामनें भिखारी ना हो।क्यूँकि वह तो सकल ब्रह्मांड का स्वामी है।सभी कुछ तो उसी का है।वही सब को देनें वाला दाता है।इस लिए गुरू जी कहते है कि हमें अपने मन में सदा उस का ही ध्यान करना चाहिए।क्योंकि सभी कुछ तो उसी के हाथ में है,वही सभी कामों को कर रहा है।वही हमें हमारे कामों को पूरा करता है।
लेकिन हम सदा अंहकार करते रहते हैं कि जैसे इन सभी कार्यों को हम ही कर रहे हैं।जबकी यह सभी कुछ एक सपनें से ज्यादा कुछ भी नही है।(यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि यह संसार उन्हें ही सपनें के समान लगता है जो उस परमात्मा से एकाकार हो चुके हैं,उन्ही को यह सच्चाई दिखती है) इस लिए गुरु जी कह रहे हैं कि यहाँ पर कुछ भी तेरा नही है,जिस के लिए तू इतना झूठा मान कर रहा है।




बुधवार, 12 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१३




करणों हुतो सुना किओ परियो लोभ के फंध॥
नानक समियो रमि गयो अब क्यों रोवत अंध॥३६॥

मन माया मे रमि रहयो निकसत नाहिन मीत॥
नानक मूरत चित्र ज्यों छाडित नाहिन भीति॥३७॥

नर चाहत कछू और औरे की औरै भयी॥
चितवत रहियो नगओर नानक फासी गल परी॥३८॥

गुरु जी,कहते हैं कि जब हमारे पास समय होता है उस समय हम लालच के कारण ऐसे कार्यों को करनें में व्यस्त रहते हैं जिस से हमारे जीवन को कोई लाभ नही पहुँचता।लेकिन जब समय निकल जाता है,उस समय हम रोनें लगते हैं कि हमनें वह काम क्यों ना किए जो जरूरी थे। हम माया के प्रभाव के कारण अंधे बनें रहते हैं।अर्थात हमारे भीतर जब लोभ रहता है कि हम बिना फायदे के कोई कार्य नही करेगें तो ऐसे में किए गए हमारे पूजा-पाठ भी सिवा लोभ आदि विकारों को तृप्त करनें तक ही सीमित रह जाते हैं।ऐसे में भला अंत में पछताने के सिवा हमारे हा्थ और क्या लगेगा।
आगे गुरु जी कहते हैं कि जिस तरह दिवार पर बना चित्र उस दिवार को नही छो्ड़ सकता उसी प्रकार जिस के मन में विकारों,माया आदि ने अपना निवास बना लिया है वह लाख उपाए करे लेकिन उस माया से बाहर नही आ पाता।अर्थात जिस प्रकार हम हरे रंग के चश्में से कुछ भी देखे तो हमे हरा ही दिखाई देगा उसी तरह माया में पड़े मन से हम जो कुछ भी करे उस पर माया का प्रभाव जरूर पड़ेगा।
ऐसा इंसान परमात्मा से जब कुछ माँगता है या कुछ करता है तो वह जिस जिस भाव से माँगता है उस का नतीजा कुछ ओर ही निकलता है और प्रभू की मरजी कुछ ओर ही हो्ती है अर्थात गुरु जी कहते हैं कि ऐस इंसान दूसरों को ठगने के अभिप्राय से कुछ करता है लेकिन अंतत: स्वयं ही उस ठगी का शिकार हो जाता है।इस तरह वह अपनें लिए आप ही अपना फंदा तैयार कर लेता है।



मंगलवार, 11 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१२




जनम जनम भरमत फिरियो मिटियो ना जम की त्रास॥
कह नानक हरि भज मना निरभै पावहि बास॥३३॥

जतन बरत मैं करि रहियो मिटियो ना मन को मान॥
दुरमति सो नानक फधियो राख लेह भगवान॥३४॥

बाल जुआनी अरू बिरधि फुनि तीनि अवसथा जान॥
कह नानक हरि भजन बिन बिरथा सब ही मान॥३५॥


हम सभी कई जन्मों से भटकते रहे हैं,लेकिन हमें अपना ठौर कही नही मिला।हम सदा यमों अर्थात मृत्यू भय से कभी भी मुक्त नही हो पाएं।गुरु जी कहते हैं कि उस का कारण मात्र इतना है कि हम उस प्रभु से दूरी बनाए बैठे है,जिस कारण हमें दुख भोगनें पड़ रहे हैं।यदि हमें इन दुखों और मृत्यू के भय से मुक्त होना है तो उस प्रभू की बंदगी करनें से उस निर्भय का आसरा प्राप्त हो सकेगा। जो सभी कष्टों को नष्ट कर देता है।
लेकिन यदि हम अपनें यत्न करें कि किसी तरह उन दुखों से छूट्कार पाने के लिए हमे कोई रास्ता मिल जाए। ऐसा यत्न करनें पर भी हम कामयाब नही हो पाते। क्यूँ कि इस प्रकार यत्न करनें से हमारे अंदर अभिमान,अंहकार को ही मजबूती मिलती है।हमें यह भ्रम होनें लगता है कि हमारी मेहनत से किए हुए कार्य ही हमें इस सभी त्रासदी से मुक्त करा देगें।क्यूँकि इन सभी दुखो का कारण अंहकार ही होता है ,इस लिए गुरु जी हमे समझाने के लिए कहते हैं कि -हे भगवान ! मैं इतने यत्न कर चुका हूँ।लेकिन मेरे किए हुए यत्नों से मेरा अंहकार दूर नही हुआ,मेरे मन की बुरी भावनाएं,इस अंहकार से मुक्त नही होनें देती।इस लिए प्रभू तू ही हमारी सहायता कर,जिस से मेरे भीतर का अंहकार मिट जाए।
गुरु जी आगे कहते हैं कि हरेक इन तीन अवस्थाओं से गुजरता है,बालपन,जवानी और बुढापा।लेकिन यदि हमनें इन अवस्थाओ को भॊगते समय ही उस प्रभू का ध्यान नही किया तो जान ले कि तेरा जन्म व्यर्थ ही चला जाएगा।इस लिए हमें अपनें जीवन काल में ही उस परमात्मा को पानें के लिए उस का ध्यान करना चाहिए।




रविवार, 9 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-११



मन माया में फधि रहि्यो बिसरियो गोबिंन्द नाम॥
कह नानक बिन हरि भजन जीवन कउनें काम॥३०॥

प्रानी राम न चेतइ मदि माया के अंध॥
कह नानक हरि भजन बिन परत ताहि जम फंद॥३१॥

सुख में बहू संगी भये दुख में संग न कोइ॥
कह नानक हरि भज मना अंति सहाई होइ॥३२॥

वास्तव में हम जितनी भी कोशिश इस माया से बचनें की करते है,उतना ही हम उस में उलझते जाते हैं।इसी कारण गुरु जी,कहते हैं कि जबत क हमइ स माया में फँसे रहते है हमें उस परमात्मा का नाम भूला रहता है।लेकिन वह आगे कहते हैं कि यदि हम उस प्रभू का ध्यान अपनें जीवन में नही कर पा रहे तो हमारा यह जीवन किस काम का है? अर्थात संसार के बाकी के सभी कार्य छोटे हैं...परमात्मा के ध्यान के बिना वह सब व्यर्थ हैं।
लेकिन हम तो उस माया के प्रभाव के कारण अंधे बनें रहते हैं ऐसे में हमें यह पता नही लग सकता कि क्या हमारे लिए सही है और क्या हमारे लिए गलत।क्यूँकि माया हमें भटकाती रहती है जिस कारण हम सही निर्णय नही पाते।गुरु जी कहते हैं कि इसी लिए हम यमों के अर्थात दुखों से घिर ते जाते हैं।क्योकि जैसे ही हमारा ध्यान उस प्रभूसे हटता है दुख हमें घेर लेते हैं।
इस लिए गुरु जी कहते हैं कि यह बात सही है कि जब तू सुखी होता है अर्थात धन आदि सुखों से परिपूर्ण होता है,सभी कुछ तेरे पास होता है उस समय सभी तुम्हारे आस पास तुम्हारे मित्र बन कर आ जाते हैं,लेकिन जब तुम दुखी होते हो तो कोई तुम्हारा दुख बाटनें के लिए तुम्हारे पास नही आता।इस लिए तुझे समझ जाना चाहिए कि इस सब संगीयों का साथ मात्र दिखावा है।तुम्हारा सच्चा साथ तो सिर्फ परमात्मा ही देता है।वही तेरी सहायता करता है।इस लिए सदा उस का ध्यान कर।



गुरुबाणी विचार-१०



जौ सुख को चाहे सदा सरनि राम की लेह॥
कह नानक सुन रे मना दुरलभ मानुख देह॥२७॥

माया कारनि धावही मूरख लोग अजान॥
कह नानक बिन हरि भजन बिरथा जनम सिरान॥२८॥

जो प्रानी निसि दिन भजै रूप राम तिह जान॥
हरि जन हरि अंतर नही नानक साची मान॥२९॥

यह मनुष्य का जन्म बहुत मुश्किल से मिला है,लेकिन हम इस जीवन को पा कर भी सदा ऐसे कामों में लगे रहते हैं जिस से हमारे जीवन में कोई सच्चा आनंद नही उतर पाता।हम जीवन भर ऐसे कामों को पूरा करनें की कोशिश में लगे रहते हैं जो कभी पूरे नही हो सकते।क्योंकि इंन्सान की तृष्णा की आग कभी बुझती ही नही।हम जितना भी कमाएं,खाएं,जोड़े, जितनें राग रंग में डूबे रहे,लेकिन हमारे मन को कभी शांती नही मिलती।बल्कि इन भोगॊं को भॊग कर हमारी तृष्णा और भी अधिक बढती जाती है।इस लिए गुरु जी कहते हैं कि हे प्राणी यदि तू उस शाश्वत सुख को चाहता है तो उस प्रभू का ध्यान कर,उस की शरण में जा।कहीं ऐसा ना हो कि यह जो प्रभू की कृपा से तूनें मानस जन्म पाया है,इस अवसर को तू गवां दे।
यह बात सही है कि दुनिया में ऐसे लोगों की कोई कमी नही है जो अपनी नासमझी के कारण माया के पीछे ही दोड़ते रहते है,ऐसे लोगों का जीवन व्यर्थ ही बीतता जाता है।गुरू जी कहते हैं कि कही ऐसा ना हो कि तेरा जीवन भी उस प्रभू की भक्ति करनें की बजाए व्यर्थ ही चला जाए।
लेकिन इसके विपरीत जो मनुष्य उस प्रभू का सदा दिन रात ध्यान करते रहते हैं अर्थात उसी के ध्यान में सदा डूबे रहते हैं।गुरु जी कहते हैं कि ऐसे मनुष्य उस परमात्मा का रुप ही हो जाते हैं।इस लिए इस बात को सत्य ही मानों की परमात्मा के भगत और परमात्मा में कोई भेद नही होता।



शनिवार, 8 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-९

निसि दिन माया कारने प्रानी डोलत नीत॥
कोटन में नानक कोउ नारायन जिह चीत॥२४॥

जैसे जल ते बु्दबुदा उपजै बिनसे नीत॥
जग रचना तैसे रची कह नानक सुनि मीत॥२५॥

प्रानी कछु ना चेतई मदि माया के अंध॥
कह नानक बिन हरि भजन परत ताहि जम फंध॥२६॥

सभी ने माया के प्रभाव को स्वीकारा है,यह सभी प्राणीयों को भटकाती है।ब्रह्मा,विष्नु,महेश तक को माया अपनें चुंगल में फँसा लेती है तो इसे के सामने,हम और आप क्या चीज हैं। गुरु जी कहते हैं कि इस माया के कारण ही प्राणी दिन रात भटकता रहता है।यह माया प्राणी को इस प्रकार अपनें जाल में फँसा लेती है कि वह उस प्रभू को ही भूल जाता है जिस की कृपा से वह यहाँ पैदा हो सका है,जन्मा है।इस लिए करोड़ों में कोई ही ऐसा होता है जिस के ह्रदय में उस प्रभू के प्रति धन्यवाद का भाव होता है अर्थात उस के ह्रदय में उस प्रभू की याद बनी रहती है।
गुरू जी कहते हैं कि प्राणी माया के प्रभाव के कारण यह जान ही नही पाता या यूँ कहें कि उस का इस बात कि ओर ध्यान ही नही जाता कि यह जीवन तो क्षणभुंगर है जैसे पानी में हलचल होनें पर पानी व हवा से निर्मित पानी का बुल बुला कुछ देर पानी के ऊपर तैरता-सा नजर आता है और कुछ देर बाद ही वह पानी में ही समा जाता है,ठीक उसी तरह उस परमात्मा नें यह सारी सृष्टि की रचना की है।जो निरन्तर उपजती और विलीन होती रहती है।
लेकिन प्राणी यह सब कुछ जान कर भी माया के प्रभाव के कारण,उस के प्रति आसक्ती के कारण अंधा बना रहता है अर्थात माया के प्रभाव के कारण उस प्रभू को भूला रहता है।वह यह भूल ही जाता है कि बिना प्रभू की कृपा के उस का उद्दार नही होगा।बिना प्रभू का ध्यान किए उस को यमों से अर्थात दुखों से छुट कारा नही मिल सकता।इस लिए हमें उस परमात्मा का सदा ध्यान करना चाहिए।

शुक्रवार, 7 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-८




जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नाम॥
कह नानक सुनि रे मना परहि न जम के धाम॥२१॥

जो प्रानी ममता तजे लोभ मोह अंहकार॥
कह नानक आपन तरै औंरन लेत उधार॥२२॥

जिउ सपना अरु पेखना ऐसे जग को जानि॥
इन में कछु साचो नहीं नानक बिन भगवान॥२३॥

परमात्मा को सुन कर और बोल कर अर्थात भजन बंदगी या उस के गुण गान कर के,उस की महिमा का बखान कर के उसे पाया जा सकता है।लेकिन यह सुनना और जीभ द्वारा बोलना इतना आसान नही है।क्योकि हम जब कुछ सुनते या बोलते हैं तो उस समय हमारे मन में द्वंद चलता रहता है।जो कुछ भी हमारे सामनें बोला जाता है उस का अर्थ हम अपनी बुद्धि या स्वाभाव अनुसार ही लगाते हैं तथा जो भी हम बोलते हैं,उस के बारे में हम क्या सच में जान चुके होते हैं?शायद नही,हम दूसरों के कहे शब्दो को ही दोराह देते हैं।ना ही हम उस हरि के नाम को कभी सुनते है जो निरन्तर ब्रंह्माड मे गूँजता रहता है।गुरु जी कहते हैं कि जो इस तरह जीहवा से प्रभू को गाता है और कानों से सुनता है वह फिर यमदूतों अर्थात मृत्यू के घर नही जाता।अर्थात वह इस जन्म मरण के बंन्धनों सो मुक्ती पा जाता है।
अगले श्लोक में गुरु जी कहते हैं कि जो प्राणी इस तरह अर्थात हरि भक्ती से अपनें को विकारों से मुक्त कर चुका है अर्थात मुक्त हो कर अपनें भीतर के विकार,ममता लोभ मोह और अंहकार आदि को त्याग चुका है ऐसा प्राणी स्वयं तो इस संसार सागर से तरता ही है,साथ ही वह अपने साथ ओरों का भी उद्दार करता है।क्योकि उस परमात्मा से एकाकार किए हुए प्राणी के साथ जो लोग जुड़ते है, उस परमात्मा से एकाकार हुए प्राणी के संम्पर्क मॆ आए प्राणीयों पर भी उस का प्रभाव पड़ता है।
जिस प्रकार हम सपनें को देखते हैं कि हमारे पास बहुत संपदा है ,हम राजा है,हम भिखारी हैं,इस तरह के सपनें जो हमें दिखाइ देते हैं तो एकदम सच्चे लगते हैं ।लेकिन सुबह जागनें पर पता चलता है कि यह सब तो झूठ था।गुरु जी कहते हैं कि इसी तरह इस संसार के सारे कार-व्यवाहर झूठे हैं,ऐसा हमें जान लेना चाहिए।क्यूँकि सिर्फ भगवान ही सदा रहता है हम तो आज है कल नही होगें। इस लिए जो सदा रहता है वही सच है अर्थात वह भगवान ही सदा रहता है इस बात को तू सत्य जान ले।