मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक --५१

कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाऐ कांऐ॥
जो किछ कीआ सो मनि कीआ मूंडा मूंडु अजांऐ॥१०१॥


कबीर जी कहते हैं कि केसो का मुंडन करने से कुछ नही होता ।क्योकि जब तक मन ना मूंडा जायेगा जीव अपने व्यवाहर को बदल नही सकता।क्योकि  हम जो कुछ भी करते हैं वह तो हमारा मन ही कराता है। इस लिए मात्र सिर मुंडाने से कुछ भी ना होगा।

कबीर जी इस श्लोक द्वारा प्रचलित परम्परा पर चोट कर रहे हैं। क्योकि कुछ संम्प्रदायो में सन्यास लेते समय सन्यासी का मुंडन किया जाता है। इसी लिए कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सन्यास लेते समय अर्थात उस परमात्मा की शरण मे जाते समय सिर के बाल मुंडाने से जीवन मे कोई क्रांति, कोई परिवर्तन नही होने वाला। जब तक हमारे मन का मुंडन नही होता अर्थात हमारे मन मे उस परमात्मा के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न नही होता, तब तक जीवन को सही दिशा नही मिल सकती। इस तरह के कर्मकांडों से कोई लाभ नही होने वाला।

कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाऐ त जाउ॥
चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ॥१०२॥


कबीर जी कहते हैं कि  उस परमात्मा का नाम,उस परमात्मा की शरण कभी नही छोड़नी चाहिए। भले ही शरीर और धन की हानि होती हो। क्योकि उस परमात्मा में लीन होने पर ही इस मन का भेदन होता है।

कबीर जी हमें समझाना चाहते हैं कि परमात्मा के नाम से बढ़ कर कुछ भी नही है क्योकि जब कोई उस परमात्मा मे लीन होता है तो उसे एक स्थाई ठिकाना मिल जाता है,उस परमानंद की प्राप्ती हो जाती है जिस की तलाश जीव शूद्र जगहों पर करता रहता है। उस परमात्मा म के साथ एकाकार होने के बाद तन और धन के प्रति मोह स्वयं ही नष्ट हो जाता है। इसी लिए कबीर जी हमें उस परमात्मा की सरण मे जानें के लिए कह रहे हैं।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक --५०

कबीर साधू की संगति रहऊ, जऊ की भूसी खाउ॥
होनहारु सो होइ है, साकत संगि न जाउ॥९९॥

कबीर जी कहते हैं कि भले ही हमारे पास खाने को मात्र रूखा सूखा हो, लेकिन हमे हमेशा अच्छे लोगो की सगंति करनी चाहिए,साधु की सगंति करनी चाहिए। वही इंसान समझदार है जो ऐसे लोगो से दूर रहता है जो प्रभू को भुलाये बैठे हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि उस परमात्मा की प्राप्ती के लिए यह जरूरी नही कि तुम्हारे पास अच्छी धन संपदा हो,तुम अच्छा खाते पीते हो। यदि हमारी संगत अच्छॆ लोगो के साथ है जो उस परमात्मा की कृपा पाने मे लगे हैं तो यही श्रैष्ट है।जो लोग अच्छे बुरे को पहचानने लगे हैं वे कभी भी ऐसे लोगो का संग नही करते जो साकत हैं।


कबीर संगति साध की, दिन दिन दूना हेतु॥
साकत कारी कांबरी, धोऐ होइ न सेतु॥१००॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि यदि इस तरह विचार कर हम अच्छॆ लोगों व परमात्मा के भक्तों की सगंत करेगे तो हमारी निकटता दिन दूनी उस परमात्मा के साथ बढ़ती ही जायेगी।वही साकत लोग अर्थात जो उस परमात्मा को भुलाये बैठे हैं ऐसे लोग उस काले कम्बंल के समान है जिसे जितना भी  धो लो वह सफेद नही हो सकता।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि हमे हमेशा ऐसे लोगों की सगंति मे रहना चाहिए जो उस परमात्मा के ध्यान मे लगे हैं,उस की भक्ति मे लगे हैं। क्योकि परमात्मा से दूर हुए लोगो को कितना भी समझा लो वे समझ नही सकते।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि सगंति का प्रभाव जीवन मे बौत गहरा पड़ता है इस लिए हमेशा बुरे लोगों की सगंति से बचना चाहिए और अच्छे लोगों की सगंति मे रहना चाहिए।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक -४९

कबीर कारनु बपुरा किआ करै,जऊ रामु न करै सहाइ॥
जिह जिह डाली पगु धरऊ,सोई मुरि मुरि जाइ॥९७॥


कबीर जी कहते हैं कि यह बात तो सही है की उस परमात्मा का ध्यान ही जीव का एकमात्र लक्ष्य है जहाँ वह शांती पा सकता है। लेकिन उस की प्रप्ती तभी हो सकती है जब परमात्मा स्वयं हमारी मदद करे। बिना उसकी मदद के कोई भी उस तक नही पहुँच सकता।जिस तरह कोई ऊँचे वृक्ष पर चढ़ता है तो वह जिस शाखा पर अपना पैर रखता है वही मुड़ने लगती है....झुकने लगती है। जिस कारण मन मे भय उत्पन्न होता है।

कबीर जी हमे समझाना चाह्ते हैं कि वैसे तो हम सभी अपनी तरफ से उस स्थाई ठौर को पानें की कोशिश करते हैं। लेकिन जब तक परमात्मा हम पर कृपा नही करता तब तक हम वहाँ तक नही पहुँच सकते। जब तक हम यह मान कर उस ओर बढ़ते हैं कि हम वहाँ पहुँच जायेगें तब तक यह "मैं" का भाव नष्ट नही हो पाता और यही "मैं" का भाव हमारे और परमात्मा के बीच रूकावट का कारण बना रहता है।लेकिन जब हम सब कुछ उसी पर छोड़ देते हैं तो यह मैं का भाव नष्ट हो जाता है। इसी लिए कबीर जी समझाना चाहते हैं कि जब जीव उस दिशा मे बढ़्ता है तो कदम कदम पर भय और शंकायें हमे घेरती है।


कबीर अवरह कऊ उपदेसते,मुख मै परि है रेतु॥
रासि बिरानी राखते, खाया घर का खेतु॥९८॥


कबीर जी इस श्लोक मे आगे कहते हैं कि बहुत से साधक (उपरोक्त कही बात को ) जानते हैं। लेकिन कई बार बार ऐसे साधक सिर्फ दूसरों को ही इस बात का उपदेश देते रहते हैं परन्तु इस तरह दूसरों की पूँजी की देखभाल के एवज में अपनी पूँजी गँवा लेते हैं।

कबीर झी हमे कहना चाहते हैं कि यदि तुम्हें सही दिशा मिल चुकी है तो पहले स्वयं ही वहँ तक पहुँचों। कहीं ऐसा ना हो की तुम अन्य लोगों को  उस दिशा की ओर अग्रसर करने में उपदेश देते ही रह जाओ और स्वयं अपने जीवन को व्यर्थ ही गँवा दो। क्योकि बहुत से साधक दूसरॊ को रास्ता दिखाने मे ही रस लेने लगते हैं। अत: कबीर जी हमे सावधान करना चाहते है।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक -४८

कबीर आसा करीऐ राम की,अवरै आस निरास॥
नरकि परहि ते मानई,जो हरि नाम उदास॥९५॥


कबीर जी कहते है कि हमें उस परमात्मा पर सदा भरोसा रखना चाहिए।क्योकि किसी दूसरे से आशा रखनी बेकार है।यदि हम परमात्मा की जगह किसी और पर आशा रखते है तो हम नरक में ही पड़ेगें और सदा दुखी होते रहेगें।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि एक परमात्मा ही ऐसा है जिस पर भरोसा कर के हम सही दिशा प्राप्त कर सकते हैं अर्थात परमात्मा के साथ एकाकार हुए बिना हमें कभी भी शांती प्राप्त नही हो सकती। परमात्मा के साथ एकाकार हुए बिना हम जो भी कार्य करे,जिस पर भी भरोसा करे..,उस से हमे अंतत: दुख ही हाथ लगेगा। हम अंतत: दुखी ही होगें। इस लिए हमे उस परमात्मा पर ही भरोसा करना चाहिए। यही बात वे समझाना चाहते हैं।


कबीर सिख साखा बहुते कीऐ,केसो कीउ न मीतु॥
चाले थे हरि मिलन कऊ,बीचै अटकीउ चीतु॥९६॥


कबीर जी कहते है कि बहुत से लोग अपने बहुत से चेल-चपाटे बना लेते हैं, लेकिन उस परमात्मा अर्थात केसो को अपना मित्र नही बनाते। ऐसे लोग भले ही यह सोचे की मिल कर भजन आदि करने से हमे हरि की प्राप्ती हो जाएगी। लेकिन ऐसे लोग अपने चेल-चपाटो को ही प्रभावित करने मे लगे रह जाते हैं और परमात्मा और संसार के बीच मे ही अटके रह जाते हैं।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जब तक हम उस परमात्मा को अपना मित्र नही बना लेते, तब तक भले ही हम कितने ही कर्मकांड करें,लोगो को प्रभावित करके बहुत बड़ी-बड़ी भीड़ एकत्र कर ले। ऐसा करके हम उस परमात्मा को नही पा सकते।