मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

कबीर के श्लोक -३

कबीर ऐसा एक आधु,जो जीवत मिरतकु होइ॥
निरभै होइ के गुन रवै,जत पेखऊ तत सोइ॥५॥

कबीर जी कहते है कि इस संसार मे कोई बिरला ही होता है जो अपने जीवन को इस तरह जीए जैसे कोई जीवत व्यक्ति किसी मरे हुए के समान इस संसार से संबध रखता है।निरभय हो कर सुख और दुख से ऊपर उठ जाए।अर्थात सुख और दुख को एक समान महसूस करे और उस परम पिता परमात्मा को ही हर जगह देखे।

कबीर जी कहना चाहते है कि दुनिया में कोई विरला व्यक्ति ही होता है परमात्मा की रजा मे रहता है और उस परमात्मा द्वारा दिए गए सुख दुख को समान भाव से स्वीकार करता है।ऐसा व्यक्ति विरला ही होता है जो इस सुख दूख से बेपरवाह होकर उस परमात्मा से बिना कोई शिकायत किए उस का यशोगान,उस की भक्ति करता रहता है।ऐसा इन्सान वही हो सकता है जो हर जगह,हरेक में उस परमात्मा को देखता है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमे उस परमात्मा की भक्ति इसी तरह करनी चाहिए।

कबीर जा दिन हऊ मुआ,पाछै भईआ अनंदु॥
मोहि मिलिउ प्रभु आपना,संगी भजहि गोबिंदु॥६॥

इस श्लोक मे कबीर जी कहते है जिस दिन हमारे भीतर से अंहकार नष्ट हो जाता है,उसी दिन से हमे आनंद की प्राप्ती होनी आरम्भ हो जाता है और उस परमात्मा की ओर हमारा ध्यान स्वत: ही जाने लगता है। हमे उस परमात्मा की मौजूदगी का एहसास होने लगता है और हमारा मन उस मे स्वत: ही रमने लगता है।

इस श्लोक मे कबीर जी पहले कहे गए श्लोक पर अमल करने के बाद जो होता है उस का वर्णन कर रहे हैं। कि जब अंहकार की निवृति हो जाती है तो ही हमे आनंद की प्राप्ती होती है। वास्तव मे यह अंहकार ही हमे उस आनंद को पाने में बाधक होता है।लेकिन जिस दिन यह अंहकार मर जाता है अर्थात हम इसे छोड़ देते हैं उसी समय यह आनंद हमारे भीतर नजर आने लगता है ,हमे महसूस होने लगता है। वास्तव में यह आनंद तो हरेक के भीतर पहले से ही मौजूद होता है लेकिन हमारे अंहकार के कारण हमे नजर नही आता।इस प्रकार अंहकार के मरते ही वह परमानंद स्वरूप परमात्मा से हमारा मिलन हो जाता है।फिर हमे परमात्मा का ध्यान करने के लिए किसी प्रकार की चेष्टा नही करनी पड़ती। वह परमात्मा स्वत: ही हमे अपने साथ मौजूद नजर आने लगता है।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

कबीर के श्लोक -२

कबीर डगमग किआ करहि,कहा ढुलावहि जीउ॥
सरब सूख के नाइको,राम नाम रसु पीउ॥३॥

कबीर जी कहते है कि हे प्राणी तू अपने मन को किन बातों मे उलझा रहा है,क्यो तू क्षणिक सुखो मे लग कर अपने मन को बहला रहा है। तुझे तो उस परमपिता परमेश्वर जो कि सभी सुखो का स्वामी है, सभी सुखो को देने वाला है,उस राम के नाम का महारस पीना चाहिए। वास्तव मे कबीर जी हम से कहना चाहते है कि इन्सान उस सुख को भूला रहता है जो सदा रहने वाला है, वह ऐसे सुखो के पीछे भागता है जो वास्तव में सुख लगते तो हैं लेकिन सुख होते नही।क्योकि कोई भी सुख वास्तविक सुख तभी हो सकता है जिस को भोगने के बाद मन शांत हो जाता है।ऐसे सुखो का क्या फायदा जिसे भोगने के बाद नये सुख की तलाश आरम्भ हो जाती हो।इस लिए हमे सदा सुख की नही बल्कि उस सुख को देने वाले की तलाश करनी चाहिए।ताकि हम सदा उस महा सुख का आनंद उठा सके। उस महा सुख को भोग सके।जिसे भोगने के बाद,पाने के बाद और पाने की लालसा ही समाप्त हो जाती है।

कबीर कंचन के कुंडल बने,उपरि लाल जड़ाऊ॥
दीसहि दाधे कान जिउ,जिन मनि नाही नाऊ॥४॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि यदि सोने के कुडंल हो और उस पर लाल रत्न जड़े हुए हो और उन्हे ऐसे कानों मे पहना गया हो जो भीतर से सड़ चुके हो, जिस कान मे उस परमात्मा का नाम सुनाई ही ना देता हो। ऐसे कानों मे पहने हुए यह सोने के लाल रत्न जड़ित कुडंलो का क्या लाभ। कबीर जी यहाँ कहना चाहते हैं कि मात्र दिखावा करने से कुछ नही होता।यदि कोई सब के सामने ऐसा दिखावा करता रहता है कि वह सदा हरि भजन मे लगा रहता है, ऐसे मे मुँह से तो वह भले ही हरि हरि जपता रहता है लेकिन उस का मन कहीं और दुनियावी पदार्थो में विषय वासनाओ मे भटकता रहता है। ऐसे इन्सान के कान सड़े हुए ही तो माने जाएगें । जिस के मन मे परमात्मा का नाम है ही नही।वासतव मे कबीर जी इस प्रकार के दिखावे का विरोध कर हमे यहाँ सही रास्ता दिखाना चाहते हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

कबीर के श्लोक - १


कबीर मेरी सिमरनी, रसना ऊपर रामु॥
आदि जुगादी सगल भगत,ता को सुखु बिस्रामु॥१॥

कबीर जी कहते है कि मेरी सिमरनी अर्थात मेरी माला तो मेरी जीभ है जिस पर में राम नाम का जाप जपता हूँ। ऐसा सिर्फ मैं ही कर रहा हूँ यह बात नही है आदि से परमात्मा का सिमरन प्रभु भगत इसी जीह्वा रूपी माला से ही कर रहे हैं और सदा करते रहेगें और इसी तरह सुख पाते रहेगें अर्थात उस परमात्मा से एकाकार होते रहेगें। यहाँ पर कबीर जी लोगों में भ्रम निवारण के लिए ऐसा कह रहे हैं क्योकि कुछ लोगो कि यह धार्मिक मान्यताएं हैं कि किसी विशेष माला से जप करने पर उस जप का विशेष प्रभाव या लाभ मिलता है। कबीर जी इसी बात का खंडन करने के लिए यहाँ कह रहे हैं कि प्रभु के नाम का जप तो हम अपनी जीभ रूपी सिमरनी से करते हैं वास्तव में यही जिह्वा ही हमारी माला है।इसी जिह्वा से सदा भगत उस प्रभु का सिमरन करते रहे हैं, जिस से उन्हें उस परमात्मा का वह सुख प्राप्त हुआ है जो सदा रहता है।

कबीर मेरी जाति कउ,सभु को हसनेहारु॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिउ सिरजनहारु॥२॥

कबीर जी इस श्लोक में अपनी जाति के बारे मे कह रहे है कि मैं छोटी जाति का हूँ इस लिए सभी मेरी छोटी जाति के कारण मुझ पर पर हँसते हैं, लेकिन कबीर जी कहते है कि मैं तो अपनी जाति पर बलिहारी जाता हूँ ,जिस के कारण मै उस परमात्मा ,उस सिरजनहार का नाम जप सका। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि बहुत से लोग अपनी बड़ी जाति के होनें के कारण अपनी से छोटी जाति वालों का हीन भाव से देखते हैं अर्थात उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं और उन पर हँसते हैं ।पुराने समय मे ऐसी मान्यता थी कि छोटी जाति के लोगों को ना तो मंदिर मे प्रवेश की अनुमति थी और ना ही वेद शास्त्र पढ़ने की। वैसे कई जगह यह आज भी वैसी ही बनी हुई है। कबीर जी यहाँ इसी बात का खंडन कर रहे है कि लोग किसी की छोटी जाति के कारण भले ही उस पर हँसते रहे, इस से कोई फर्क नही पड़ता क्योकि वास्तव मे तो वही जाति गर्व करने लायक है जिस जाति में कोई उस परमात्मा की निकटता पा जाता है।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

आप सब को गुरु नानक देव जी की जन्म दिन की बधाई!

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शनिवार, 8 अगस्त 2009

फरीद के श्लोक - ४१

निवणु सु अखरु,खवणु गुणु,जिहबा मणीआ मंतु॥
ऐ त्रै भैणे वेस करि,तां वसि आवी कंतु॥१२७॥

मति होदी होइ इआणा॥
ताणु होदे होऐ निताणा॥
अणहोदे आपु वंडाऐ॥
कोइ ऐसा भगतु सदाऐ॥१२८॥

इकु फिका न गालाइ,सभना मै सचा धणी॥
हिआउ न कैही ठाहि, माणक सभ अमोलवे॥१२९॥

सभना मन माणिक,ठाहणु मूलि मचांगवा॥
जे तउ पिरीआ दी सिक,हिआउ न ठाहे कही दा॥१३०॥


पिछले श्लोकों में कुछ प्रश्न उठाए गए थे, उन्हीं उठाए गए प्रश्नों के उत्तर देते हुए गुरु जी कहते हैं कि उस परमात्मा की कृपा पाने के लिए तीन गुण होने जरूरी होते हैं और वह है पहला....झुकना पहला अक्षर है,दूसरा गुण है सहनशीलता और तीसरा गुण है मीठा बोलना।गुरू जी कहते है कि हे,बहन यदि किसी मे ऐसे गुण आ जाए तो उस का पति उस के वश में आ जाता है।यहाँ गुरू जी का पति से भाव परमात्मा से है।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि यदि तुम्हें अपने परमेश्वर को पाना है तो तुम्हारे भीतर यह तीन गुण होने चाहिए। तभी उस परमात्मा की कृपा पाई जा सकती है। यहां उन्होने पहला गुण झुकना कहा है।वह इस लिए कि जब तक जीव अंहकार से रहित नही होता वह किसी के आगे झुक नही सकता। इस लिए गुरू जी पहला गुण झुकना बताते हैं। दूसरा गुण सहनशीलता है।सहनशीलता उसी जीव के भीतर हो सकती है जो क्रोध से रहित हो।तीसरा गुण मीठा बोलना बताया गया है।मी्ठा वही जीव बोल सकता है जो सभी से प्रेम करता हो।(इस विषय पर विस्तृत जानकारी अलग से इसी ब्लोग पर दी जाएगी।)गुरु जी कहना चाहते है कि यदि हमारे भीतर यह तीनों गुण आ जाए तो हम अपने पति को अपने वश मे कर सकते हैं। अर्थात उस परमात्मा की कृपा पा सकते हैं।

इन श्लोकों में गुरु जी कहते है कि ऐसा जीव जो बुद्धि होते हुए भी अंजान बना रहता हो। ताकतवर होते हुए भी सामान्य व्यवाहर करे।अर्थात अपनी शक्ति का प्रयोग ना करे। अपने पास कुछ ना होते हुए भी दूसरों की मदद करे।जिस जीव का ऐसा व्यवाहर होता है वह वास्तव मे भगत कहलाने योग्य है।अर्थात गुरु जी यहाँ पहले श्लोक में कहे हुए भाव के कारण पैदा हुए गुण को यहाँ बताना चाहते हैं। कि जिस में उपरोक्त तीन गुण आ जाते हैं,उस का व्यवाहर ऐअसा हो जाता है कि वह विवेकशील,बुद्धिमान होते हुए भी अपनी विद्धता का प्रदर्शन नही करता। प्रभु द्वारा पाई हुई कृपा से प्राप्त शक्ति का निजि फायदे के लिए प्रयोग नही करता और हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए तैयार रहता है,भले ही दुसरो की मदद करते समय वह स्यंम कष्ट मे पड़ जाए,परेशानी में पड़ जाए।गुरु जी कहते है कि ऐसा जीव ही भगत कहलानें के योग्य होता है।ऐसा व्यवाहर करने वाले को ही भगत समझना चाहिए।

अगले श्लोक में भगत के व्यवाहर के और गुण बताते हुए गुरु जी कहते है कि ऐसा जीव किसी से फीका अर्थात अभद्र या ऐसे शब्द कभी नही बोलता जिस से दूसरे का दिल दुखे। क्योकि उसे यह समझ आ जाती है कि सभी जीवों मे वही परमात्मा बसा हुआ है।सभी जीवों मे उस का अपना प्यारा स्वंय बैठा है। इस लिए सभी जीव उस के लिए बहुत अनमोल हो जाते हैं,उसे तो अपना प्यारा परमात्मा ही हरेक जीव में दिखाई देने लगता है।अर्थात गुरू जी कहना चाहते हैं कि जो जीव उस परमात्मा से जुड़ जाता है वह किसी से बुरा व्यवाहर कर ही नही सकता अर्थात उसे हरेक जीव मे वही परमात्मा ही नजर आने लगता है,ऐसे में वह किसी के साथ बुरा नही बोल सकता है।

अंतिम स्लोक मे गुरु जी कहते है कि है जीव यदि तुझे सच में ही उस परमात्मा कि चाह है तो ऐसा व्यवाहर कभी मत करना कि किसी का दिल दुखे।क्योकि सभी के मन बहुत अनमोल हैं ,माणिक के समान है।अर्थात सभी के भीतर ,सभी के मन में वह परमात्मा ही बैठा हुआ है।अर्थात गुरु जी कहना चाहते है कि यदि तू किसी का दिल दुखाएगा तो तू एक तरह से उस परमात्मा को ही स्वीकार नही कर रहा है। क्योकि वह ही उन सभी जीवों मॆ बसा हुआ है।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ४०

किआ हंसु किआ बगुला, जा कउ नदरि धरे॥
जे तिसु भावै नानका, कागहु हंसु करे॥१२४॥

सरवर पंखी हेकड़ो,फाहीवाल पचास॥
ऐहु तनु लहरी गडु थिआ, सचे तेरी आस॥१२५॥

कवणु सु अखरु,कवणु गुणु,जिहबा मणीआ मंतु॥
कवणु सु वेसो हऊ करी,जितु वसि आवै कंतु॥१२६॥

उपरोक्त श्लोक गुरु नानक देव जी का है,इस श्लोक मे वह परमात्मा के प्रति समर्पित भावना के भाव को दर्शाते हुए कहते हैं कि वह हंस है या बगुला ,इस बात से कोई फर्क नही पड़ता।क्योकि उस परमात्मा की नजर मे सभी समान हैं,वह तो सभी पर बराबर अपनी कृपा बनाए रखता है।यदि कोई इस कृपा को ग्रहण कर ले तो हंस और बगुला प्रवृति के व्यक्ति ही नही बल्कि अति विकारी काक बुद्धि व्यक्ति भी उस की कृपा पा जाता है।उस परमात्मा की कृपा तो निरन्तर सब पर बरसती रहती है।अर्थात गुरु जी कहना चाहते हैं कि चाहे हंस हो या बगुला,जिस के ऊपर उस परमात्मा की कृपा हो जाती है,जिसे वह परमात्मा अपना बना लेता है वह काक जैसा दुर्बुधि होते हुए भी उस की कृपा के कारण तर जाता है।

अगले श्लोक में कहा गया है कि इस संसार रुपी सरोवर में पंछी अकेला ही है।लेकिन इस अकेले पंछी को फँसाने वाले पचासों हैं जो इसे कभी भी अपने जाल में फाँस सकते हैं।सरोवर रुपी संसार की यह जो विकार रुपी लहरे हैं यह इस जीव रुपी पंछी को अपने साथ बहा के ले जानें को सदा तत्पर हैं।इन सभि से बचने के लिए एक मात्र उस परमात्मा की ही आस है।इसी लिए यह शरीर इन विकारों से दुखो से बचने के लिए कुछ भी करने के लिए सदा तैयार हो जाता है।अर्थात तेरी आस लगाए रहता है।अर्थात गुरू जी कहना चाहते हैं कि यह जो संसार है इस में पचासो तरह के प्रलोभन हैं जिस कारण हम उन मे फँस जाते हैं और दुखी होते हैं।ऐसे मे हम उस परमात्मा की आस मे,उस की कृपा पाने की लालसा में सभी तरह के उपाय करते रहते हैं।क्योकि हमारा दुखो से छुटकारा कराने वाला एक मात्र सहायक वह परमात्मा ही है।अन्य किसी की मदद हमे इन दुखों से कभी निजात नही दिला सकती।

अगले श्लोक में गुरू जी हमारे सामने कुछ प्रश्न रख रहे हैं कि उस परमात्मा की आस तो हम करते हैं ,लेकिन हम उसकी कृपा को कैसे पा सकते है? वह कौन -सा अक्षर है?वह कौन -सा गुण है ? वह कौन -सा मंत्र है? ऐसा क्या है कौन -सा वेश है जिसे धारण करने से हम उस परमात्मा की कृपा को पा सकते हैं,वह परमात्मा हमारे भीतर वास करने लगता है?अर्थात गुरू जी हमारे भीतर उस परमात्मा की उपस्थिति का एहसास कराने के लिए ये सवाल हमारे सामने रख रहे हैं जो अक्सर हम विचारते हैं कि कैसे उस परमात्मा की कृपा को पाया जा सके,इस का उपाय क्या है?हम सभी के मन मे कभी ना कभी यह जिज्ञासा अवश्य पैदा होती है कि हम जान सके कि वह कौन -सा अक्षर है,वह कौन -सा गुण है, वह कौन -सा मंत्र है,वह क्या है जिसे धारण करने पर वह परमात्मा हमारे भीतर प्रकट हो सके?

शनिवार, 18 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ३९

हौ ढूढेदी सजणा,सजणु मैडे नालि॥
नानक अलखु न लखीऐ,गुरमुखि देऐ दिखालि॥१२१॥

हंसा देखि तरंदिआ, बगा आइआ चाउ॥
ढुबि मुऐ बग बपुड़े, सिरु तलि उपरि पाउ॥१२२॥

मै जाणिआ वड हंसु है,तां मै कीता संगु॥
जे जाणा बगु बपुड़ा,जनमि न भेड़ी अंगु॥१२३॥

यह श्लोक गुरू रामदास जी के उच्चारित किए हुए हैं।यहाँ पर फरीद जी की बाणी के साथ बीच बीच मे अन्य गुरूओ की बाणी भी यथा स्थान दी गई है।उस का कारण मात्र इतना है कि जब गुरू जी किसी बात को अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं तब प्रमाण स्वरूप अन्य गुरू ओ की बाणी वहाँ जोड़ दी गई है।इस श्लोक मे गुरू रामदास जी कहते हैं कि हम उस परमत्मा रूपी साजन को,अपने प्यारे को हमेशा बाहर ही ढूंढते रहते हैं जब कि वह सदा से ही हमारे साथ हैं।लेकिन क्योंकि वह अलख है अर्थात उसे लखा नही जा सकता, हमारी पहचान मे वह नही आ पाता। क्योकि जिसे हमने कभी देखा ही नही उसे हम पहचाने गें कैसे? इसी लिए वह हमारे पास ही होता है और हम उसे पहचान नही पाते।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है हम जिस परमात्मा को बाहर खोज रहे हैं वह तो हमारे ही पास है। लेकिन हम उसे पहचान नही पाते।उस की पहचान तो कोई गुरू ही करवा सकता है जो उसे जान चुका है।वही हमे उस परमात्मा से साक्षात्कार करा सकता है।

अगला श्लोक मे गुरू अमरदास जी कहते है। कि हंसों को तैरता देख कर बगुलों को भी तैरने की इच्छा जाग्रित हो जाती है।लेकिन क्योकि वे तैरना नही जानते इस लिए वे डूब जाते हैं।इस तैरने के उपक्र्म में उन का सिर तो पानी में डूब जाता है और पैर की ओर हो जाते हैं।अर्थात इस श्लोक में गुरू अमरदास जी कहना चाहते हैं कि जो लोग हंस के समान हैं अर्थात उस प्रभु के प्यार मे डूबे हुए है,उन के आनंद को देख कर बगुला भगत लोग भी वैसा दिखावा करने लगते हैं।लेकिन ऐसे बगुला भगत कभी भी उस परमात्मा को नही पा सकते।क्युँकि परमात्मा को सिर्फ दिखावे से अर्थात दिखावे वाले फोकट के कर्म कांडो को करने से नही पाया जा सकता।ऐसा करने वालों को कभी कोई लाभ प्राप्त नही होता।अर्थात उस परमात्मा की कृपा कभी प्राप्त नही होती।

अगले श्लोक मे गुरू जी कहते हैं कि कई बार ऐसा होता है कि इस तरह के बगुला भगतों को हम हंस समझ बैठते हैं,हम सझते हैं कि वह प्रभु का बहुत बड़ा प्रेमी है।वह प्रभु की कृपा पा चुका है। यह सोच कर हम उस का संग करने लगते हैं।लेकिन जब हमे यह पता चलता है कि जिसे हम हंस समझ रहे हैं वह तो वास्तव में एक नकारा बगुला है।जो सिर्फ हंस होने का ढोग कर रहा है यह अगर पता चल जाता तो क्यों कोई इन के पीछे लग कर अपना समय,अपना जीवन व्यर्थ बर्बाद करता।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि इस संसार में असली और नकली की पहचान मे हम अकसर भूल कर बैठते हैं और हम बगुले को ही हंस समझ कर अर्थात ढोंगी गुरु को ही सच्चा गुरू मान कर उस का अनुसरण करने लगते हैं।यह सब तो हमारी पहचानने की शक्ति की कमी के कारण ही होता है।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ३८

फरीद दरवेसी गाखड़ी,चोपड़ी परीति॥
इकनि किनै चालीऐ,दरवेसावी रीति॥११८॥

तनु तुधै तनूर जिउ,बालण हड बलंनि॥
पैरी थकां,सिरि जुलां,जे मूं पिरी मिलंनि॥११९॥

तनु न तपाऐ तनूर जिउ, बालणु हड न थालि॥
सिरि पैरी किआ फेड़िआ,अंदरि पिरी निहालि॥१२०॥

फरीद जी कहते हैं कि फकीरी का रास्ता बहुत मुश्किल लगता है।लेकिन यह फकीरी तभी मुश्किल लगती है जब तुम्हारी फकीरी झूठी होती है,बनावटी होती है।कोई विरला ही होता है,जो इस सब्र को साध ,इस फकीरी के रास्ते चल कर,उस परमात्मा का कृपा पात्र बन जाता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि यह फकीरी का रास्ता,प्रभु की कृपा पाने का रास्ता उन लोगों के लिए कठिन हो जाता है जो सिर्फ दिखावा करते हैं।क्युं कि मात्र दिखावा करने से उस प्रभु की कृपा कभी नही पाई जा सकती।असल मे इस दुनिया में ऐसे लोग ही ज्यादा हैं जो इस तरह का दिखावा करते रहते हैं।असली फकीरी वेश धारण करने वाला तो कोई विरला ही होता है।

फरीद जी कहते हैं कि शरीर को तंदूर की तरह तपा देना और अपनी हड्डीयों को अपनी साधना से जलाना।कुछ लोग इसी तरह की साधना करके उस परमात्मा की निकटता पाने की कोशिश में लगे रहते हैं।वे तीरथयात्रा करते है,और उन सभी जगहो पर पहुँचने के लिए कष्ट उठाते रहते है।जहाँ से उन्हें ऐसा लगता है कि हमारे इस तरह के कामों को करने से,हमे उस परमात्मा की कृपा मिल जाएगी।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जो ईश्वर की कृपा पाना चाहते है वे किसी भी रास्ते से चल कर उस तक पहुँचने का यत्न करते हैं,चाहे वह रास्त कितना भी कठिन हो।यदि किसी को इन रास्तों से भी प्रभु की प्राप्ती हो जाए तो उसे बहुत सस्ता सौदा जानना।असल मे फरीद जी जीव की, ईश्वर पाने की चाह को ही यहाँ ठीक बता रहे हैं।

फरीद जी आगे हमें समझाते हुए कहते हैं कि इस तरह अपने शरीर को तपाने या अपनी इन हड्डीयों को जलाने की जरूरत नही है और ना ही इधर-उधर भटकने की ही जरूरत है।यदि तुम्हारे अंदर उस परमात्मा की कृपा पानें की ललक पैदा हो गई है तो उस परमात्मा को अपने भीतर ही तलाश करले। वह तो तेरे भीतर ही बैठा हुआ है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जब जीव में उस परमात्मा को पानें की चाह पैदा होती है तो वह किसी भी जतन से उस की कृपा पाना चाहते है। ऐसे वक्त में यदि वह अपने भीतर झांक ले तो वह उसे अपनें भीतर पा कर निहाल हो सकता है।

रविवार, 21 जून 2009

फरिद के श्लोक - ३७

ढूढेदीऐ सुहाग कू,तउ तनि काई कोर॥
जिना नाउ सुहागणी, तिना झात न होर॥११४॥

सबर मंझ कमाण, ऐ सबरु,का नीहणो॥
सबर संदा बाणु, खालकु खता न करी॥११५॥

सबर अंदरि साबरी,तनु ऐवै जालेनि॥
होनि नजीकि खुदाऐ दै,भेतु न किसै देनि॥११६॥

सबरु ऐहु सुआउ,जे तूं बंदा दिड़ु करहि॥
वधि थीवहि दरीआउ,टुटि न थीवहि वाहड़ा॥११७॥

फरीद जी कहते है कि जिस प्रकार कोई स्त्री अपने सुहाग को खोजती है और उसे खोजने में कोई कौर कसर नही छोड़ती,वैसे ही जीव रूपी स्त्री उस परमात्मा के प्रति मिलन के लिए सदैव आतुर रहती है।दूसरी और जो सुहागिन हैं अर्थात जिन का पति रूपी परमेश्वर उन के करीब है ऐसी जीव रूपी स्त्रीयां कहीं ओर नही झांकती अर्थात किसी अन्य की आस उनके मन में नही जगती।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि यह जो हमारी आत्मा है यह सदा उस परमात्मा को मिलने के लिए आतुर रहती है,जिस कारण वह सभी तरह से उस से मिलने के लिए यत्न करती रह्ती है।असल में यह उस का स्वाभाव ही होता है।इस लिए वह उस से मिलने के लिए उसे खोजती रहती है।वही दूसरी ओर जो उस परमात्मा के निकट पहुंच चुके हैं,उन्हे उस परमात्मा के सिवा दूसरी कोई चाह नही रहती।असल मे फरीद जी हमे जीवात्मा और परमात्मा के यथार्त संबध के बारे में बता रहे हैं जो अटूट है।शाश्वत है।

फरीद जी अगले श्लोक में कहते है कि यदि हमारे मन में सब्र की कमान हो और सब्र का ही तीर हो और वह सब्र के ही चिले पर चड़ा हो तो परमात्मा की ओर निशाना बहुत आसानी से लगता है।अर्थात फरीद जी संकेतिक भाषा का प्रयोग करते हुए कहना चाहते हैं कि परमात्मा की प्राप्ती के लिए धीरज या संयम का बहुत महत्व है।क्योकि परमात्मा किसी के यत्न करने से कभी नही मिलता।उसे पाने के लिए तो धैर्यपूर्वक उस की कृपा बरसनें का इंतजार करना पड़ता है।वह परमात्मा तो सदा से मौजूद ही है,हमारे और उस प्रभु के बीच एक झीनीं -सी परत ही बीच में है ।उसके हटते ही हम उसे पा लेते हैं।इस झीनीं परत के हटने के लिए हमें सब्र से उस के हटनें का इंतजार करना पड़ता है।यहाँ जल्दबाजी काम नही देती.क्युंकि सब्र के कारण हमारा मन शांत होने लगता है,
जब मन शातं हो जाता है तभी हम अपने और परमात्मा के बीच की झीनी परत को देख पानें में समर्थ हो पाते हैं।इसी लिए फरीद जी सब्र का इतना महत्व बता रहे हैं।

फरीद जी आगे सब्र के बारे में बताते हुए कहते हैं कि इस सब्र के अंदर ही शांत होने का गुण छुपा हुआ है,इस के लिए इस शरीर को कष्ट देनें की जरूरत नही है।क्युंकि इस सब्र के कारण ही हम उस खुदा के नजदीक हो पाते हैं,यह बात किसी से कहनें की नही है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि वास्तव में हमारी प्राकृति ही सब्र वाली है अर्थात हमारा वास्तविक स्वरूप तो शांत ही है लेकिन हम अपने अंदर कई प्रकार की कल्पनाओं को करके उसे आशांत बना देते हैं।यह सब्र तो मन की अवस्था है, इसे शरीर के साधने से कोई फायदा नही होता।इस बात को समझते हुए जो सब्र का दामन थाम लेते हैं वे उस खुदा की समीपता पा जाते हैं,तब कुछ और जानने की उनको कोई जरूरत नही रह जाती।

अगले श्लोक में फरीद जी सब्रके स्वाभाव के बारे में बताते हुए कहते हैं कि सब्र का ऐसा स्वाभाव होता है की यदि एक बार उसे कोई साध ले तो सदा के लिए सध जाता है।जब एक बार इस सब्र का बीज तुम्हारे अंदर पड़ गया तो यह बढता ही जाता है ।यह नदी की भाँति होता जाता है ।फिर इसका बहना रूकता नही।अर्थात सब्र यदि एक बार भीतर पैदा हो जाए तो यह निरन्तर बढता रहता है, फिर किसी प्रकार की रूकावट इस के लिए बाधा नही बनती।अर्थात परमात्मा और जीव की दूरी निरन्तर कम होती चली जाती है।

रविवार, 14 जून 2009

फरीद के श्लोक - ३६

फरीदा दुनी वजाई वजदी तूं भी वजरि नालि॥
सोई जीउ न वजदा जिसु अलरु करदा सार॥११०॥

फरीदा दिल रता इसु दुनी सिउ दुनी न कितै कंमि॥
मिसल फकीरां गाखड़ी सु पाईऐ पुर करंमि॥१११॥

पहले पहरै फुलड़ा, फलु भी पछा राति॥
जो जागंनि,लहंनि से,साई कंने दाति॥११२॥

दाती साहिब संदीआ,किआ चलै तिसु नालि॥
इकि जागंदे ना लहनि,इकना सुतिआ देइ उठालि॥११३॥

फरीद जी की बात को ही आगे बढाते हुए गुरु अर्जुनदेव जी कहते है कि यह जो दुनिया है यह एक साज़ की तरह हैं,इस को माया अपने ढंग से बजा रही है और हम सब को भी वही माया साज़ के रूप में ही बजा रही है।सिर्फ वही इस माया से मुक्त रह पाता है जिस पर माया की कृपा होती है।अर्थात गुरु जी कहते है कि सारे जगत को माया ने अपनें आधीन कर रखा है, हम सभी उस माया के वश में रह कर ही अपने सारे कारविहार करते हैं।लेकिन यदि हम उस परमात्मा की मौजूदगी को पहचान ले तो यह माया हमें नही नचा सकती।हम सभी तो तभी तक माया के हाथों में नाचते है जब तक हम उस परमात्मा की मौजूदगी को नही जान पाते।

गुरू जी आगे कहते है कि हम उस परमात्मा की मौजूदगी को पहचान नही पाते ,इसी लिए दुनियादारी में लगे रहते हैं अर्थात माया मे उलझे रहते हैं।लेकिन यदि हम फकीरों की तरह रहनें लगे,तो हम परमात्मा को भी पा सकेगें और दुनियावी झंझटों से मुक्त हो कर सही रास्ता अपना सकेगें।अर्थात गुरु जी कहना चाहते हैं कि हम दुनीया के मोह माया के वश मे हो कर,विषय विकारॊं मे पढ़ जाते है जिस कारण हम उस परमात्मा को भूल जाते हैं ।लेलिन अगर हम फकीरो की भाँति हो जाएं अर्थात अपनी सारी चिन्ताएं प्रभु पर छोड़ कर निष्काम भाव से अपने कार्य करते रहें तो हम इन कर्मों के साथ नही बंधेगें।जब हम कर्मों के साथ नही बंधेगे तो हम उस परमात्मा को भी जान सकेगें।उसे जानने के बाद किए गए हमारे सारे कर्म,उस परमात्मा के निकट ले जानें में सहायक होगें।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते है कि पहला पहर फूल के समान खिला हुआ होता है।लेकिन यह सब पिछ्ली रात के फलस्वरूप ही फलित होता है।क्युँकि जो लोग जाग चुके हैं वही उस परमात्मा की कृपा के पात्र बनते हैं।अर्थात जब कोई इन्सान,प्रभु का प्यारा उस परमात्मा की बंदगी करता है तो वह पहला पहर होता है,जिस में वह बंदगी करता है वह फूल की तरह महकने लगता हैं। अर्थात उस पर प्रभु की कृपा बरसनें लगती है और यह जो प्राप्ती है यह बीते समय में की हुई उस प्रभु की बंदगी के कारण फल के रूप में उसे प्राप्त होती है।क्युंकि जागृत पुरूष अर्थात प्रभु से एकाकर हुआ भक्त ही प्रभु की दी गई कृपा का आनंद उठा पाता है।

अगले श्लोक में फरीद जी की बात को स्पष्ट करते हुए गुरू नानक दे्व जी कहते हैं कि यह जो प्रभु की कृपा प्राप्त होती है, ऐसे समय में कुछ लोग यह समझने लगते हैं कि यह जो प्रभु की कृपा है यह उन्हें उनकी बंदगी करनें के फलस्वरूप प्राप्त होती है। तब कुछ लोग जो जागे हुए तो नही होते,लेकिन अपने किए गए धार्मिक कर्म कांडों को करते हुए संयोग से प्राप्त सुख को प्रभु की कृपा मान लेते हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो माया मॆ पड़े हुए होते हैं लेकिन वे माया की निस्सारता,व्यर्थता को जान कर उस प्रभु की कपा के पात्र बन जाते हैं।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि हमारे किये से कुछ भी नही होता,यह सब तो प्रभु की कृपा से ही हम उस की बंदगी कर पाते हैं,यदि ऐसा ना होता तो हम जो बंदगी करते हैं,उस के फलस्वरूप जो प्रभु कृपा हमें प्राप्त होती है,उसे हम अपने किए कर्म का फल मानने लगेगें।जिस कारण हमारे अदंर द्वैत की भावना पैदा हो सकती है।इस लिए गुरू जी कहते है
ऐसे भक्त जागते हुए भी सोये हुओं के समान हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो माया में लीन रहते हुए माया की व्यर्थता को जान लेते हैं ,इस कारण वह सोये हुए भी जाग जाते है। अर्थात उस प्रभु के निकट हो जाते हैं।उस की कपा के पात्र बन जाते हैं।

रविवार, 7 जून 2009

फरीद के श्लोक - ३५

फरीदा पिछल राति न जागिउरि जीवदड़े मुइउरि॥
जे तै रबु विसारिआ त रबि न विसरिउरि॥१०७॥

फरीदा कंतु रंगावला वडा वेमुरताजु॥
अलर सेती रतिआ ऐहु सचावां साजु॥१०८॥

फरीदा दुखु सुखु इक करि दिल ते लाहि विकारु॥
अलर भावै सो भला तां लभी दरबारु॥१०९॥

फरीद जी कहते हैं कि यदि तू पिछली रात को नही जागा तो यह जो तेरा जीवन है यह जीवन मरे हुए जीवन के समान गुजर जाएगा।यदि तू उस परमात्मा को भुला बैठा है,तो तू तो भले भूला रह,लेकिन वह परमात्मा तुझे कभी नही भुलाता। अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि इस जीवन में जो दुख के समय भी उस परमात्मा को याद नही करता है ,उसका जीवन व्यर्थ ही जाता है।ऐसे मे कुछ लोग सोचते हैं कि ईश्वर ने हमें भुला दिया है,लेकिन ऐसा कुछ भी नही है।परमात्मा हमे कैसे भूल सकता है।जबकि यहाँ परमात्मा के बिना दूसरा कुछ है ही नही।यह सब परमात्मा ने स्वयं ही अपना विस्तार ही तो किया हुआ है।ऐसे मे हम उस से बाहर कैसे हो सकते हैं,वह हमें कैसे भूल सकता है।

अगले श्लोक में गुरु अर्जुन देव जी फरीद जी की बात को आगे बढाते हुए उस परमात्मा के संबध मे कहते है कि वह परमात्मा बहुत रंगावला अर्थात सभी रंगों से भरपूर,आनंददायी व सदा शातंमयी रहता है,ऐसे मे यदि हम भी उसी के रंग मे रंग जाएं तो हम सभी पापों और विकारों से मुक्त हो कर,उस आन्ण्द मयी अवस्था को प्राप्त हो सकेगें अर्थात उस परमात्मा को पा सकेगे। अर्थात गुरु जी कहना चाहते है कि वह परमात्मा बहुत रगों वाला है,इस लिए हम कैसे भी हो वह हम सभी को अपने अन्दर समाहित कर लेता है।हम पापी हो पुण्यात्मा हो चाहे कोई भी हो।हम जब उस की शरण में जाते हैं तो वह हमें उसी रूप मे स्वीकार कर लेता है।वह परमात्मा शांती स्वरूप है अत: हमे भी वैसा ही बना देता है।

अगले श्लोक मे गुरू अर्जुन देव जी फरिद जी की बात को आगे बढाते हुए कहते हैं कि यह जो सुख और दुख है इसे एक ही करके जानना,जिस से तेरे भीतर के विकार दूर हो सकें।इस तरह उनको स्वीकार करने पर तुझे उस परमात्मा के द्वार मे प्रवेश मिल जाएगा।अर्थात प्रभु कृपा प्राप्त हो जाएगी।अर्थात गुर जी हम से यह कहना चाहते है कि यह जो सुख दुख हैं, वास्तव में यह दो नही हैं,यह सुख दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है और दुख के साथ सुख।इस लिए जब हम इन्हें अलग अलग मानते हैं तो हमारी तकलीफ शुरू होती है।हम परेशान होते हैं।यदि हम इस बात को समझ ले की सुख और दुख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो हम इस से बच सकते हैं।तब हमें यह समझ आ जाएगा कि ईश्वर का प्रत्येक कार्य हमारे भले के लिए ही होता है।इस तरह उस परमात्मा की मर्जी को स्वीकारने से हम सहज ही उस परमात्मा की कृपा पा सकेगें।उस के दरबार में प्रवेश पा सकेगें।

गुरुवार, 28 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३४

काइ पटोला पाड़ती कंबलड़ी परिरेइ॥
नानक घर री बैठिआ सहु मिलै जे नीअति रासि करेइ॥१०४॥

म: ५॥फरीदा गरबु जिना वडिआईआ धनि जोबनि आगारु॥
खाली चले धणी सिउ टिबे जिउ मीहारु॥१०५॥

फरीदा तिना मुख डरावणे जिना विसारिउन नाउ॥
ऐथै दुख घणेरिआ अगै ठऊर न ठाउ॥१०६॥

यह श्लोक गुरु अमरदास जी का लिखा हुआ है।वह कहते हैं कि यह जो परमात्मा द्वारा पटोला रूपी जीवन मिला है,कपड़ा मिला है, इसे फाड़ कर हम कबंल क्यों बनाएं ? हमें तो जहाँ परमात्मा ने भेजा है वही पर बैठकर,अच्छी नियत से अपने कार्यो को करना चाहिए।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि यह जो जीवन मिला है वह तो मात्र परमात्मा की बंदगी के लिए ही मिला है,इस लिए इस जीवन का उपयोग क्युँ कर जीवन के अन्य व्यर्थ कामों के लिए करें ? हमे तो नेक नियत से उस परमात्मा के वही कार्य करते रहना चाहिए जिस के लिए उसने हमें यहाँ भेजा है।

यह श्लोक गुरु अर्जुनदेव जी का लिखा हुआ है।इस श्लोक में गुरु जी कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन का जन्म धनी परिवारों में होता है,वह लोग दूसरो की अपेक्षा ज्यादा स्वास्थ व बलवान शरीर के होते हैं।ऐसे परिवारो के लोगों को कई बार धनी और बलवान होनें का अंहकार हो जाता है।इस लिए ऐसे अहंकारी लोग यह जीवन पा कर भी व्यर्थ गवां देते हैं जैसे बारिश का पानी बरसने पर पहाड़ रीते ही रह जाते हैं।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि हमे धन,यौवन के मद में चूर होकर अपने जीवन को व्यर्थ नही गंवाना चाहिए।बल्कि परमात्मा ने जो भी दिया है उसके लिए उस का धन्यवाद करते हुए,उस परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।कही ऐसा ना हो कि अपने धन और यौवन के अंहकार के कारण हमारा भी वही हाल हो जैसे ऊँचे पहाड़ो का बारिश होने पर होता है।वह परमात्मा तो अपनी कृपा हम पर निरन्तर बरसाता रहता है,कही ऐसा ना हो कि अपने अंहकार के कारण हम इस से वंचित रह जाए।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि उन लोगों के मुँह बहुत डरावने हो जाते है जो उस परमात्मा को भूले रहते हैं।ऐसे लोगों को इस लोक में भी बहुत दुख भोगनें पड़ते हैं और मरनें के बाद भी आगे भटकना ही पड़ता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जो लोग किसी भी कारण से,धन के अंहकार के कारण या अपने बलवान होने के अंहकार के कारण ,उस परमात्मा को भूले रहते हैं उन लोगों के मुँह बहुत डरावने हो जाते हैं अर्थात ऐसे लोग अपने आप को दूसरॊ से ऊँचा व श्रैष्ट समझने लगते हैं,उन्हें दूसरो को अपने रौब में दबानें मे बहुत आनंद मिलनें लगता है,जिस कारण गरीब उन की नाराजगी से भय खाने लगते हैं।ऐसे लोग अपने बल का प्रयोग कर दूसरो को दुखी करने से भी नही चूकते। फरीद जी कहते है कि ऐसे लोग दुसरो को दु्ख देने के कारण स्वयं भी अनंत: दुख उठाते हैं और उस परमात्मा को भूले रहने के कारण मरने के बाद भी सदा भटकते रहते हैं।

गुरुवार, 21 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३३

फरीदा हउ बलिहारी तिन पंखिआ जंगल जिंना वासु॥
ककरु चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु॥१०१॥

फरीदा रुति फिरी वणु कंबिआ पत झड़े झड़ि पारि॥
चारे कुंडा ढूंढीआं रहणु किथाउ नारि॥१०२॥

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी कंबलड़ी परिरेउ॥
जिनी वेसी सरु मिलै सेई वेस करेउ॥१०३॥

फरीद जी कहते हैं कि मैं उन पंछीओ के बलिहारी जाता हूँ जो जंगल में रहते है और जो भी मिलता है वह कंकर पत्थर सब चुग लेते हैं।लेकिन कभी भी उस परमात्मा का ध्यान नही छोड़ते।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है हैं कि वे लोग धन्य हैं जो प्रभु की मर्जी के अनुसार प्रभु जहाँ भी उन्हें रखता है,वहीं बहुत खुशी से रहते हैं।,परमात्मा जैसे भी उन्हें रखता है वह वैसे ही खुश रहते हैं । कभी भी परमात्मा से कोई शिकायत नही करते।परमात्मा की जो भी देता है उसे वह सहज ही स्वीकार करते हैं,खुशी से उस का दिया भोगते हैं।अपनी कोई भी माँग उस परमात्मा पर नही थोपते। कि हे प्रभू तूनें हमे यह नही दिया,वह नही दिया।बल्कि उस परमात्मा के प्रति सदा धन्यवाद से भरे रहते हैं।

आगे फरीद जी कहते हैं कि इस जगंल का मौसम,इस दुनिया,संसार का मौसम निरन्तर बदलता रहता है।यहाँ पर
ऐसा मौसम भी आता है जब किसी भी वृक्ष पर कोई भी पत्ता नही रहता।बस ठूँठ मात्र ही शेष रह जाता है।चारों दिशाओ में ढूँढने पर भी कुछ भी स्थिर नही नज़र आता।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि समय कभी एक-सा नही रहता।कभी जीवन में दुख तो कभी सुख जीवन मे आते जाते रहते हैं।जैसे मौसम बदलता है वैसे ही यह जीवन बदलता रहता है।इस संसार मे कुछ भी ऐसा नही है जो सदा एक-सा बना रहता है।नारि अर्थात यह प्राकृति कही भी स्थिर,अपरिवर्तनशील नही है।यह निरन्तर बदलती रहती है।

फरीद जी कहते हैं कि एक ही कपड़े को फाड़ कर अपने ओड़नें और पहनने के लिए वस्त्रों का उपयोग करना भी मेरे लिए बहुत सुखद साबित होगा,यदि ऐसा करने से मेरा परमात्मा मुझ पर खुश हो जाता है। अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा यदि हम को अभावों में भी रखता है तो हमें उस से शिकायत क्या करनी।क्योकि यदि हमारे इसी तरह रहने से परमात्मा की कृपा हमे मिलती है तो ऐसे ही उस की रजा में रहने मे क्या हर्ज है।क्युँकि हमारा मूल ध्येय तो आनंद की प्राप्ती करना ही होता है।

गुरुवार, 14 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३२

फरीदा दरीआवै कंनै बगुला,बैठा केल करे॥
केल करेदे हंझ नो, अचिंते बाज पऎ॥
बाज पऎ तिसु रब दे, केलां विसरीआं॥
जो मनि चिति न चेते सनि,सो गाली रब कीआं॥९९॥

साडे त्रै मण देहुरी,चलै पाणी अंनि॥
आइउ बंदा दुनी विचि,वति आसूणी बंनि॥
मलकल मऊत जां आवसी,सभ दरवाजे भंनि॥
तिना पिआरिआ भाईआं, अगै दिता बंनि॥
वेखहु बंदा चलिआ चहु जणिआ दै कंनि॥
फरीदा अमल जि कीते दुनी विचि,दरगह आऎ कंमि॥१००॥


फरीद जी कहते हैं कि जिस प्रकार बगुला तलाब के किनारे बैठा केल करता रहता है,मस्ती करता रहता है और इस मस्ती करने में इतना मस्त हो जाता है कि उसे यह खबर ही नही रहती कि उस के आस-पास क्या हो रहा है?वह निश्चिंत हो मस्ती करता रहाता है कि इसी बीच कब बाज़ उस पर झपट पड़ता है उसे कुछ मालूम ही नही हो पाता।जब वह अपने आप को बाज़ के चुगंल मे फँसा पाता है तो उस की सारी मस्ती उसे भूल जाती है।जब कि उसे कभी इस बात का ध्यान ही नही होता कि उस के साथ ऐसा भी कुछ असमय घट सकता है।सो परमात्मा कब क्या करता है यह कोई नही जानता। अर्थात फरीद जी बगुले का उदाहरण देते हुए हम से कहना चाहते हैं कि यह जो जीव है,दुनिया में आ कर दुनिया के राग रंग मे इतना खो जाता है,उसे यह भूल ही जाता है कि परमात्मा ने जो यह जीवन हमे दिया है यह एक दिन समाप्त हो जाना है,उस परमात्मा के हुकम से ना जाने कब यह मौत हमे अपने साथ ले जाएगी?हमे तो होश ही तभी आता है जब हम इस मौत की पकड़ मे आ जाते हैं।तब जिन राग रंगों मे हम खोये हुए थे वह सब हम मौत के भय से भूल जाते है। हम इस मौत के बारे में कभी विचार ही नही करते,जब कि यह सब परमात्मा ने पहले से ही तय कर रखा है।

फरीद जी आगे कहते है कि यह जो जीव का साढे तीन मन का शरीर है ,यह अन्न और पानी के सहारे चलता रहता है और यह जो जीव संसार मे आया है वह बहुत ही सुन्दर सी आस लेकर आया है।लेकिन इस की आस कभी पूरी नही होती और यह जो मौत है यह इसके शरीर के सभी अंगो को क्षीण करते हुए,इसे आ घेरती है और जीव मर जाता है,तब यही अपने प्यारे साथी हमारे शरीर को बाधँ कर ,दपनाने के लिए,जलाने के लिए रख देते हैं।उस समय यह चार कंधों पर सवार हो कब्रिस्तान,शमशान की ओर चल देता है।ऐसे समय में,जहाँ हमे मरने के बाद जाना है वहाँ हमारे वही सतकर्म हमारे काम आते हैं जो हमने जीवन मे किए थे। अर्थात फरीद जी हम से कहना चाहते है कि यह जीवन तो एक दिन समाप्त हो ही जाना है,ऐसे मे हमे व्यर्थ के कामों मे अपना समय नही गंवाना चाहिए।हमे ऐसे कार्य करने चाहिए जो हमारे मरने के बाद भी हमारी सहायता कर सके।

गुरुवार, 7 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३१

कंधी उते रुखड़ा किचरकु बंनै धीरु॥
फरीदा कचै भांडे रखीऎ, किचरु ताई नीरु॥९६॥

फरीदा महल निसखण रहि गऎ,वासा आइआ तलि॥
गोरां से निमाणीआ,बहसनि रूहां मलि॥८७॥

फरीदा मऊते दा बंना ऐवै दिसै, जिउ दरीआवै डाहा॥
अगै दोजकु तपिआ सुणीऎ,हूल पवै काहारा॥
इकना नो सभ सोझी आई,इकि फिरदे वेपरवाहा॥
अमल जि कीतिआ दुनी विचि,से दरगह उगाहा॥९८॥

फरीद जी कहते है कि नदी के किनारे लगा हुआ वृक्ष कितनी देर तक धीरज रख सकता है? और यह जो कच्चा मिट्टी का बर्तन है इस बर्तन में पानी कितनी देर तक रह सकता है?अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जिस तरह नदी के किनारे लगा हुआ पेड़ नदी की बहती धारा के प्रभाव से कभी भी नदी के पानी के साथ बह सकता है। और जिस प्रकार कच्चे बर्तन मे ज्यादा देर पानी नही रह सकता।क्युँकि पानी मिट्टी के कच्चे बर्तन को धीरे धीरे गलाता रहता है। ठीक इसी तरह जीव का यह जीवन होता है।जो निरन्तर कम होता जा रहा है।यहाँ फरीद जी जीवन के नाशवान होने की ओर संकेत कर रहे हैं।

आगे फरीद जी कहते है कि यह जो धन संम्पदा, महल आदि नजर आ रहे हैं,वह सभी तो यही के यही ही रह जाते हैं।जीव को मरने के बाद जमीन के नीचे वास करना पड़ता है।हमारी आत्माएं,रूहें हमारे मरने के बाद इन्हीं कब्रों मे वास करती हैं।फरीद जी कहना चाहते है कि यह जीवन एक दिन समाप्त हो जाएगा और हमारे द्वारा यह जो धन संपदा एकत्र की गई है यह भी हमारे साथ नही जानी।मरने के बाद हमारी रुहें अंधेरी कब्र मे वास करती है।सो ऐसे मे हमे इस जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिए।

फरीद जी कहते है कि जिस तरह बह्ती नदी अपने किनारों को काटती हुई आगे बढती रहती है और किनारे की मिट्टी टूट-टूट कर नदी के पानी मे गिरती रहती है,उसी तरह मृत्यु रूपी नदी, जीव रूपी किनारे को, अपने साथ ले जाती रहती है।फरीद जी आगे कहते हैं कि इस के आगे जीव के जैसे कर्म होते हैं ,उसी के अनुसार उस की गति होती है।जो जीव जीवन मे अच्छे कर्म करते हैं,वह वहाँ शोभा पाते हैं,इज्जत पाते हैं और जो जीव व्यर्थ अपना जीवन गंवाते हैं,वे वहाँ दुख पाते हैं।वास्तव मे हमारे किए गए कर्म ही हमारी सदगति व दुर्गति का निर्धारण करते हैं।अर्थात फरीद जी हम से कहना चाहते हैं कि इस मौत ने तो एक दिन हमे अपने साथ ले ही जाना है।इस लिए हम क्युँ ना अपने जीवन मे उस परमात्मा की बंदगी कर ले ताकी अंत में हमे इस लिए पछताना ना पड़े कि हमारा जीवन व्यर्थ ही चला गया।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

फरीद के श्लोक - ३०

फरीदा गोर निमाणी सडु करे, निघरिआ घरि आउ॥
सरपर मैथै आवणा,मरणहु न डरिआहु॥९३॥

इंनी लोइणी देखदिआ,केती चलि गई॥
फरीदा लोकां आपो आपणी मैं आपणी पई॥९४॥

आप सवारहि मैं मिलहि,मै मिलिआ सुखु होइ॥
फरीदा जे तू मेरा होइ रहहि,सभु जगु तेरा होइ॥९५॥

फरीद जी कहते है कि कब्र बेचारी हमे आवाज दे रही है और कह रही है कि हे !बेघर जीव ,तू अपने घर मे आ जा।वैसे तू जहाँ मर्जी भटकता रह,आखिर तो तुझे मेरे पास ही आना पड़ेगा। इस लिए तू मुझ से इतना डर मत। अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि मौत तो एक दिन निश्चित आनी ही है,उस का दिन तो तय ही है।इस लिए मौत से इतना भयभीत होने की जरूरत नही है।वास्तव मे फरीद जी ऐसा इस लिए कह रहे हैं क्युंकि हम दुनिया के रागरंग में इतने लीन हो जाते हैं कि हमे यह भूल ही जाता है कि एक दिन सब कुछ छोड़छोड़ कर हमें यहाँ से कूच कर जाना है।

फरीद जी आगे कहते है कि हमारी इन आँखो के सामने ही कितनों को हमने इस दुनिया को छोड़ कर जाते हुए देखा है।कितने अपने और पराय यहाँ सब कुछ छोड़ कर हमारे सामने ही इस संसार को अलविदा कह कर जा चुके हैं।लेकिन फिर भी यह सब कुछ देख कर भी जीव अपने-अपने निहित स्वार्थो को पूरा करने मे ही लगा हुआ।यहाँ हम सब उस मौत से बेखबर अपने-अपने स्वार्थो को साधने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने मे लगे हुए हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि हम अपने सामने होती मौतों को देख रहे है,लेकिन फिर भी मूर्खो की भाँति अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने मे ही लगे रहते हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि यदि यह जीव अपने आप को सँवार ले,अर्थात अपना ध्यान सही दिशा की ओर कर ले।तभी यह जीव अपने आप को पा सकेगा और जब यह अपने आप को जान सकेगा इसे सुख की अनुभूति होगी।फरीद जी आगे कहते हैं कि यदि तू मेरा हो कर रहेगा तो यह सारा संसार भी तेरा हो कर ही रहेगा । अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जो जीव अपने को जान लेता है वह सुखी हो जाता है।जब कोई जीव अपने को जान जाता है तो उसे यह समझते देर नही लगती कि यहाँ परमात्मा के सिवा दूसरा कोई भी नही है। ऐसा जानने पर सारा संसार ही अपना लगने लगता है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

फरिद के श्लोक - २९

फरीदा तनु सुका, पिंजरु थीआ, तलीआं खूंढहि काग॥
अजै सु रबु न बाहुडिउ, देखु बंदे के भाग॥९०॥

कागा करंग डडोलिआ,सगला खाइआ मासु॥
ऎ दुइ नैना मति छुहऊ,पिर देखन की आस॥९१॥

कागा चूंडि न पिजंरा, बसै त उडरि जाहि॥
जित पिजंरै मेरा सहु वसै, मास न तिदू खाहि॥९२॥

फरीद जी कहते हैं कि यह शरीर अब बहुत कमजोर हो चुका है,यह अब इतना कमजोर हो चुका है कि पिजंर मात्र ही रह चुका है। लेकिन इतना सब होने पर भी यह जो काक रूपी लोभ,वासनाएं हैं यह अब भी सता रही हैं।रह रह कर यह हम पर हावी हो जाती हैं।जरा देखो तो सही, इन विकारो में पड़े इन्सान की किस्मत, यह इन विकारों के कारण अपना सर्वस खोता जा रहा है और परमात्मा की कृपा इस पर नही हो पा रही। अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हम विषय विकारों में खोये हुए इन्सान अपनी शक्ति को गँवाते जा रहे हैं।विषय विकारों मे रमे रहने के कारण हम प्रभु कृपा से वंचित होते जा रहे,अब यही हमारी किस्मत बनती जा रही है अर्थात संसारी प्रलोभनों के कारण हम प्रभु को भूलते जा रहे हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि इस काक ने मेरे पिजंर को,शरीर व मन को पूरी तरह से छान मारा है।यह शरीर का सारा मास खा गया है।लेकिन फिर भी फरीद जी कहते हैं कि काक तुम मेरे इन दो नैनों को मत खाना अर्थात इन्हें विकार ग्रस्त मत करना।क्युँकि इन दो नैनों मे उस परमात्मा को देखने की आस बनी रहे।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि विषय -विकार रूपी इस काक ने हम को विषय विकारों से भर दिया है,ऐसी कोई भी राह नही छोड़ी कि हमारा ध्यान उस परमात्मा की ओर जा पाए। लेकिन फिर भी यह जो हमारी आँखें हैं, विषय विकारों की चपेट में पूरी तरह नही आई हैं ।इस लिए हे काक तू इन दो आँखॊ को मत खाना अर्थात विषय विकारो से ग्रस्त मत करना,ताकी इन मे उस प्रभु को देखने की आस बनी रहे।

आगे फरीद जी कहते हैं कि विषय विकार रूपी काक अब तू मेरे शरीर को छोड़ दे,अब तू यहाँ से उड़ जा।अब तुझे यहाँ से उड़ना ही होगा ।क्युँकि अब हमने जान लिआ है कि इस शरीर में मेरा परमात्मा वास करता है।अब यह काक मेरे शरीर का मास नही खा पाएगा। अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जब तक हमे यह ज्ञान नही होता कि परमात्मा हमारे भीतर रहता है ,तभी तक हम विषय विकार रूपी काक के भोजन बनते रहते हैं अर्थात विषय विकारों मे डूबे रहते हैं।लेकिन जब हम उस परमात्मा को पहचान जाते हैं,उस परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं, तो यह विषय विकार अपने आप ही हमें छोड़ कर चले जाते हैं।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

फरीद के श्लोक -२८

फरीदा गलीं सु सजण वीह,इक ढूंढदी न लहां॥
धुखां जिउ मांलीह, कारणि, तिंना मा पिरी॥८७॥

फरीदा इहु तनु भऊकणा, नित नित दुखीऎ कऊणु॥
कंनी बुजे दे रहां ,किती वगै पऊणु॥८८॥

फरीदा रब खजूरी पकीआं, माखिआ लई वहंनि॥
जो जो वंजैं डीहड़ा,सो उमर हथ पवंनि॥८९॥

फरीद जी कहते हैं कि इस दुनिया में बातों से बहलाने वाले मित्र तो बहुत मिल जाते हैं,लेकिन ऐसा मित्र कभी नही मिलता जो इस जीवन के दुखों को दूर करने में मददगार साबित हो।हम तो जीवन भर ऐसे मित्र को पानें की आस मे, सूखे गोबर की तरह धीरे-धीरे सुलगते रहते हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि ऐसे मित्र तो बहुत मिल जाते हैं जो अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए हमारे साथ-साथ चलने लगते हैं।अर्थात मित्र होने का दम भरते हैं।लेकिन ऐसे मित्र कभी लाभ नही पहुँचाते अर्थात हमारे दुखो को कम करने में हमारे सहायक नही होते।

फरीद जी आगे कहते है कि हमारा यह शरीर भी अजीब है इस मे हमेशा नित नयी इच्छाएं पैदा होती रहती हैं यह नित नयी-नयी माँग करता रहता है।इस की नित नयी-नयी माँगो को पूरा करने की खातिर कौन परेशान होता रहे ?इस लिए मैने अपने कान ही बंद कर लिए हैं ।इस लिए अब वह जितनी भी माँग करता रहे,मुझे सुनाई ही नही पड़ेगीं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हमारा यह शरीर और मन तो कभी भी तृप्ति नही पा सकता।क्युंकि हमारी वासनाएं कभी समाप्त नही होती।वह तो निरन्तर बढ़्ती ही रहती हैं। इस लिय यदि इस से बचना है तो हमें इस की बात ही नही सुननी चाहिए।अर्थात अपने शरीर और मन पर नियंत्रण रखना चाहिए

फरीद जी आगे कहते है कि यह शरीर और मन भी आखिर क्या करे?परमात्मा ने हमारे चारो ओर पकी हुई खजूर और शहद की नदीयां पैदा कर रखी हैं। इस लिए हम सदा इन को पाने के लिए चिन्तन करते रहते है,इस चिन्तन और हमारी पाने की लालसा मे ही हमारी उमर हमारे हाथ से निकलती जाती है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि इस संसार में हमारे चारो और प्रलोभन ही प्रलोभन फैले हुए हैं,जिस कारण हमारा मन उस ओर बरबस खिचनें लगता है और हमारे मन मे उसे पाने की इच्छा पैदा हो जाती है।जिस का परिणाम यह निकलता है कि हम व्यर्थ के पदार्थो को पाने मे ही अपना अनमोल समय गवाँ बैठते हैं।फरीद जी हमे इस से सचेत रहने के लिए ही यहाँ इस की चर्चा कर रहे हैं।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

फरीद के श्लोक -२७

कंधी वहण न ढाहि,तौ भी लेखा देवणा॥
जिधरि रब रजाइ,वहुण तिदाऒ गंउ करे॥८४॥

फरीदा डुखा दिह गईआ,सूलां सेती राति॥
खता पुकारे पातणी,बेड़ा कपर वाति॥८५॥

लंमी लंमी नदी वहै,कंधी करै हेति॥
बेड़े नो कपरु किआ करे, जे पातण सु चेति॥८६॥

फरीद जी कहते है कि जब नदी बहती है तो वह अपने किनारों पर पड़ने वाली हर चीज को अपने साथ बहा कर ले जाती है।लेकिन इस नदी को भी इस सब कामों का हिसाब देना पड़ता है।यह बात सही है कि यह जो कुछ भी होता है वह सब परमात्मा की मर्जी से होता है।नदी की धार तो उसी दिशा में बहती है जिधर उसे रास्ता मिलता जाता है और यह रास्ता परमात्मा द्वारा ही निश्चित किया हुआ होता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हम जो भी कर्म करते हैं उस का फल हमें ही भुगतना पड़ता है।लेकिन इस के साथ वह यह भी कह्ते हैं कि यह सब कुछ ईश्वर की मर्जी से ही होता है।लेकिन फिर सवाल उठता है कि हम दुख क्यों भोगते हैं?असल मे हमारे दुखो का कारण हमारा अंहकार ही होता है।

फरीद जी आगे कहते है कि इन दुखों से हम सारा दिन दुखी होते रह्ते हैं इस तरह हमारे सारे दिन दुखों के कारण दुखी होते हुए बीतते है,और रात को हम इन्ही की चिन्ता में परेशान होते रहते हैं।किनारे पर खड़ा मल्लाह(गुरु) हमे पुकार-पुकार कर कहता रहता है कि देख!दुखों के भार के कारण तेरा जिन्दगी का बेड़ा डूबने ही वाला है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि इन दुखों और दुनियावी समस्याओ में उलझ कर हमे अपनी इस जिन्दगी को बर्बाद नही करना चाहिए।

फरीद जी आगे कहते है कि भले ही यह दुख रूपी लम्बी नदी बह रही है जिस कारण हम दुख भोगते रहते हैं,लेकिन यह दुख रुपी नदी हमारे जीवन को दुखी नही कर सकती यदि हमारे बेड़े को चलाने वाला परमात्मा हो।अर्थात फरीद जी पहले संसार के दुखों के होनें का कारण बताते है कि इस संसार में सुख दुख परमात्मा की मर्जी से ही जीवन में आते हैं और यह दुख हमें अपने अंहकार के कारण ही महसूस होते हैं। लेकिन यदि हम इन दूखो से निजात पाना चाहते हैं तो हमे उस प्रभु का सहारा ही लेना चाहिए।

मंगलवार, 31 मार्च 2009

फरीद के श्लोक - २६


फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू, दुखु सबाइऎ जगि॥
ऊचे चड़ि कै देखिआ, ता घरि घरि ऐहा अगि॥८१॥

फरीदा भूमि रंगावली,मंझि विसूला भाग॥
जो जन पीरि निवाजिआ, तिंना अंच न लाग॥८२॥

फरीदा उमर सुहावड़ी,संगि सुवंनड़ी देह॥
विरले केई पाईअनि,जिंना पिआरे नेह॥८३॥

फरीद जी कहते है कि मै तो समझता था कि मैं ही सबसे ज्यादा दुखी हूँ।लेकिन मेरा यह सोचना गलत था।क्युँकि
यहाँ तो सारा संसार ही दुखों को भोग रहा है।जब मैने ध्यान से देखा कि देखूँ कोई सुखी भी यहाँ है? तो मैने
पाया कि यह दुख की आग तो हरेक घर में लगी हुई है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि इस संसार मे दुख के सिवा कुछ भी नजर नही आता है।हरेक को किसी ना किसी दुख ने पकड़ा हुआ है।यहाँ सभी दुखी हैं।

अगले श्लोक में गुरु अर्जुन देव जी,फरीद जी की विचार का उत्तर देते हुए कहते हैं कि फरीद यह सच है कि यह संसार
बहुत सारे रंगों से रंगा हुआ है और इन रंगों के बीच में ही विष छुपा हुआ है जो सभी को दुखी करता है।लेकिन फिर भी ऐसा देखने मे आया है कि जिस पर प्रभु कृपा कर देता है अर्थात जो प्रभु की शरण मे चले जाते हैं।उन्हें यह आग अपने ताप से नुकसान नही पहुँचा पाती।

अगले श्लोक मे गुरु अर्जुन देव जी कहते है कि फरीद जी यह जो जीवन इन्सान को मिला है और यह जो इन्सान को सुन्दर देह मिली है ,यह अपने आप ही नही मिल गई। अर्जुन देव जी कहते हैं कि यह सरीर तो किसी विरले को तभी मिलता है जब परमात्मा का प्रेम उस पर बरसता है।अर्थात यह जो शरीर हमें मिला यह बहुत अमुल्य है।इस लिए जो समय और शरीर हमे मिला है उसका लाभ उठाना चाहिए।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

फरीद के श्लोक -२५


फरीदा बुरे भला करि,गुसा मनि न हढाइ॥
देही रोगु न लगई पलै सभु किछु पाइ॥७८॥

फरीदा पंख पराहुणी,दुनी सुहावा भागु॥
नऊबति वजी सुबह सिऊ,चलण का करि साजु॥७९॥

फरीदा राति कबूरी वंडीऎ, सुतिआ,मिलै न भाउ॥
जिंना नैण नींद्वावले,तिंना मिलणु कुआउ॥८०॥

फरीद जी कहते है कि हमारे साथ जो बुरा करता है हमें उस के साथ भी भला ही करना चाहिए।
यदि कोई हमारा बुरा करता है तो उस पर गुस्सा भी नही होना चाहिए।ऐसा करने से शरीर को रोगादी
नही लगते।ऐसे करने से सभी पदार्थ(अर्थात अच्छे गुण)अपने पास ही रहते हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं
हमें कभी भी किसी का बुरा नही करना चाहिए और ना ही बुरा करने वाले के प्रति क्रोध करना चाहिए।क्युँ कि क्रोध
करने के कारण अनेक अवगुण हमारे भीतर आने लगते हैं।क्रोध के कारण हमारे भीतर अविवेक,चिन्ता व भ्रम आदि पैदा हो जाते हैं। जिस कारण हमारा मन व तन दोनों ही रोगग्रस्त हो सकते हैं।इस लिए यदि हम इस से अपना बचाव कर लेते हैं तो हमारे भीतर शांती,विवेक,सयंम आदि गुण पैदा हो जाते हैं।जिस से अंतत: हमे लाभ होता है।

आगे फरीद जी कहते है कि यह जो पंछी को उड़ने के लिए पंख मिले हुए है।इस से दुनिया के सभी सुखो को
भोग सकता है।लेकिन यह मत भूल जाना कि जब तू इस सुबह का आनंद उठा रहा होगा तो यह भी याद
रखना होगा कि तुझे यहाँ से जाना भी पड़ेगा।इस लिए सचेत हो कर अपने कार्यो को करना।अर्थात फरीद जी कहना
चाहते है कि यह जो हमे सुन्दर जीवन मिला है,इस का हमे सदुपयोग करना चाहिए।क्युँकि हम जैसे ही
दुनिया में आते है वैसे ही हमारे जानें की घड़ी भी करीब आने लगती है।इस लिए हमे हमेशा सावधानी पूर्वक अपने
कर्म करने चाहिए।

आगे फरीद जी कहते हैं कि यह जो रात है इस समय यह रात कस्तूरी बाँटती है। लेकिन जो इस समय सोये रहते हैं,
उन को इस को पानें का लाभ नही मिलता। क्युँकि जिनकी आँखों में नींद होती है।उन्हें सोये रहने के कारण इस का लाभ कैसे मिल सकता है?अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि रात का समय बहुत शांत होता है(रात अर्थात दुख के समय हम प्रभु को याद करने लगते हैं)ऐसे समय में हमे उस परमात्मा का ध्यान करके,इसका लाभ उठाना चाहिए।लेकिन जो लोग ऐसे समय में भी सचेत नही होते,उन को यह कस्तूरी रूपी प्रभु के नाम का लाभ कैसे मिल सकता है?

बुधवार, 11 मार्च 2009

फरीद के श्लोक - २४

महला५॥

फरीदा खालकु खलक महि, खलक वसै रब माहि॥
मंदा किस नो आखीऐ, जां तिसु बिनु कोई नाहि॥७५॥

फरीदा जि दिहि नाला कपिआ,जे गलु कपहि चुख॥
पवनि न इतीं मामले, सहां न इती दुख॥७६॥

चबण चलण रतंन,से सुणीअर बहि गऎ॥
हेड़े मुती धाह, से जानी चलि गऎ॥७७॥

यह श्लोक वास्तव में गुरु अर्जुन देव जी ने फरीद जी की बात को ओर अधिक स्पस्ट
करने के लिए यहाँ दिए है।फरीद जी कहते है कि यह जो दुनिया है इसी में वह दुनिया
को बनानें वाला भी समाया हुआ है और यह जो सारी सृष्टि है वह उस परमात्मा के
भीतर ही वास कर रही है।ऐसे में जब सभी परमात्मा स्वरूप ही है तो ऐसे में किसी
को बुरा कैसे कहा जा सकता है?जब यह समझ आ जाती है कि उस परमात्मा के बिना दूसरा
कोई है ही नही।क्यूँ कि बुरा और भला हमें तभी तक नजर आते हैं जब तक हमें किसी
दूसरे के होने का एहसास होता है।७० से ७४ तक के श्लोकों में जो बातें कही गईं हैं,कहीं
कोई यह ना मान ले कि फरीद जी किसी की बुराई कर रहें हैं।उपरोक्त बातें उन लोगों के लिए
कही गई है जो उस परमात्मा को भूले रहते हैं।उस परमात्मा से बहुत दूरी बनाए रखते हैं।

आगे फरीद जी कहते हैं कि जिस दिन हम पैदा होते हैं उस समय दाई हमारी नाल काट कर
माँ से हमें अलग करती है।यदि उसी समय हमारी नाल काटने के साथ ही हमारा गला भी जरा
काट दिया होता,तो कितना अच्छा होता।तब हम छोटे बड़े,अच्छे बुरे आदि के भाव मे नही पड़्ते।
हमें संसारी दुख ना सहनें पड़ते।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जिस प्रकार हमारे जन्म के
समय हमारी नाल काटी जाती है,उस समय यदी हमारे अंहकार का गला भी काट दिया जाता
तो हम दुखों से बच जाते।क्युकि यह अंहकार ही हमे दूसरों से अलग करता है।इस अंहकार के कारण ही
हमारे मन में छोटे-बड़े अच्छे बुरे का भाव पैदा होता है।जिस कारण हम दुखी होते हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि हमारे मन में जिन कारणों से यह तुलनात्मक भाव आते हैं वह हैं
चबाना,चलना,रतन और सुनना।अर्थात दाँत, पैर,आँखें और कान।जब तक यह शक्तिशाली
बने रहते हैं तब तक तो हम इन के रस में डूबे रहते हैं लेकिन जब यह क्षीण होनें लगते है तो
हमें दुख घेरनें लगते हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि दाँत अर्थात हमारी शक्ति,पैर अर्थात
हमारे किए गए काम,जैसे हम चल कर रास्ता तय करते हैं और सदा सब से आगे रहना चाहते हैं।
रतन अर्थात धन संम्पदा,कान अर्थात अपनी प्रशंसा,मान सम्मान का भाव।इन्हीं सब कारणों से
हम अपने को दूसरों से अलग करते हैं।जिस से हमारे भीतर अंहकार पैदा होता है। और यह
अंहकार ही दुख का एक मात्र कारण है।

रविवार, 1 मार्च 2009

फरीद के श्लोक - २३


फरीदा बे निवाजा कुतिआ,ऐह ना भली रीति॥
कब ही चलि न आइआ,पंजे वखत मसीति॥७०॥

उठ फरीदा,अजू साजि,सुबहि निवाज गुजारि॥
जो सिरु सांई ना निवै,सो सिरु कपि उतारि॥७१॥

जो सिरु सांई न निवै,सो सिरु कीजै कांइ॥
कंने हेठि जलाईऐ ,बालणि संदै थाइ॥७२॥

फरीदा किथै तैडे मापिआ,जिनी तू जणिउहि॥
तै पासहु उइ लदि गै,तूं अजै न पतीणोहि॥७३॥

फरीद मनु मैदानु करि,टोऐ इथे लाहि॥
अगै मूलि न आवसी,दोजक संदी भाहि॥७४॥


फरीद जी कहते हैं कि जो लोग नमाज़ नहीं पढते अर्थात जो बंदगी नही करते ,पाँच
वकत की नमाज़ के लिए मस्जिद नही जाते वह कुत्तों के समान हैं,उन के इस तरह
जीनें का तरीका अच्छा नहीं कहा जा सकता।

अगले श्लोक में फरीद जी फिर कहते हैं कि उठ मुँह हाथ धो और सुबह की नमाज़
पढ़। क्युँकि जो सिर अपने सांई के आगे नही झुकाता,ऐसे सिर को तो काट कर फैंक देना चाहिए।
क्युँकि जो सिर अपने सांई के आगे नही झुकता,ऐसे सिर का क्या करना? ऐसे सिर को
जो झुकना नही जानता,ऐसे सिर को हांडी के नीचे जला देना चाहिए।

फरीद जी आगे कहते हैं कि देख जिन्होनें तुझे पैदा किया था।वह तेरे माता पिता भी अब कहाँ
हैं अर्थात वह भी अब संसार छॊड़ कर जा चुके हैं।यह सब जो तेरे साथ हुआ है तू उसे देख
कर भी यह नही समझ पा रहा कि तुझे भी इसी तरह एक दिन चले जाना है।इस लिए तू
प्रभु की भक्ति क्यूँ नही करता?

फरीद जी आगे मन के विषय में कहते हैं कि तुम अपने मन को मैदान की तरह समतल
कर लो और अपने मन में जो गड्डे हैं उन की ओर ध्यान मत दो।इस तरह करनें से तू
दोजख की आग से बच जाएगा।अर्थात फरीद जी कहना चाह रहे हैं कि यह सब मन का ही खेल है
जो हमें भटकाता रहता है।यदि हम इस मन को साध ले,तो हम सही दिशा की ओर जा सकते हैं।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

फरीद के श्लोक - २२

चलि चलि गईआं पंखीआं,जिन्नी वसाए तल॥
फरीदा सरु भरिआ भी चलसी,थकै कवल ईकल॥६६॥

फरीदा इट सिराणे,भुई सवणु,कीड़ा लड़िओ मासि॥
केतणिआ जुग वापरे,इकतु पईआ पासि॥६७॥

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी,टुटी नागर लजु॥
अजराईल फरेसता ,कै घरि नाठी अजु॥६८॥

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवि,टुटी नागर लजु॥
जो सजण भुइ भारु थे,से किउ आवहि अजु॥६९॥

फरीद जी कहते हैं कि यह जो पक्षी आ रहे हैं इन्होनें ही यह सारा तालाब सुन्दर और सुहाना
बना रखा है।लेकिन ये सभी अपनी बारी आनें पर,यहाँ से चले जानें वाले हैं।यह जो सरोवर रूपी
जगत है यह भी एक दिन सूख जानें वाला है।तब इस में खिला कमल भी सूख जाएगा।अर्थात फरीद
जी कहना चाहते हैं कि यह जो संसार दिख रहा है।यहाँ पर सभी का आना जाना लगा रहता है।
और एक दिन ऐसा भी आना है जब यह संसार रुपी सरोवर भी सूख जाएगा ।आखिरकार यह सब नाश ही
हो जाना है।

फरीद जी आगे कहते हैं तब तेरे सिराहानें ईट होगी और तू जमीन में अर्थात कब्र में सोया हुआ होगा।
और उस समय तेरे मास को कीड़ा खा रहा होगा।तब ना जानें कितने युगो तक ऐसा ही समां बना रहेगा।
और तू किसी को भी अपने समीप नही पाएगा।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हमे समय रहते ही सचेत हो जाना चाहिए।यदि हम इसी तरह इसी मोह माया की नींद में ही सोये रहे तो वहाँ हमे जगानें वाला कोई नही होगा।

फरीद जी कहते हैं कि देख तेरे पड़ोस में एक सुन्दर घड़ा फिर फूट गया है।अर्थात एक आदमी फिर शरीर छोड़ गया है। उस की सुन्दर साँसे टूट गई हैं और मौत का फरिश्ता अजराईल उस के द्वार पर आकर खड़ा हो गया है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि देख हर घड़ी कोई ना कोई मौत की नीद सो जाता है। यह सब तेरे सामनें हो रहा है। लेकिन तू यह सब देख कर भी अपनी नींद से नही जागता।अर्थात इस नाशवान संसार के प्रति सचेत नही होता।
हमे समय रहते ही सचेत हो जाना चाहिए।क्यूँ कि फरीद जी कहते हैं कि जो लोग इस दुनिया में आकर
भी परमात्मा की बदंगी नही करते,ये सभी धरती पर भार बनें रहते हैं।ऐसे लोगों का जनम व्यर्थ ही
चला जाता है।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

फरीद के श्लोक- २१


जां कुआरी ता चाउ,विवाही तां मामले॥
फरीदा ऐहो पछोताउ,वति कुआरी ना थीऐ॥६३॥

कलर केरी छपड़ी,आई ऊलथै हंझ॥
चिंजू बोड़नि ना पीवहि,ऊंडण सधी ढंझ॥६४॥

हंसु ऊडरि क्रोधै पईआ,लोकु विडारणि जाइ॥
गहिला लोकु जाणदा,हंसु ना क्रौधा खाइ॥६५॥

फरीद जी कहते हैं कि जब कन्या कुआरी होती है,तब उसे विवाह की चाह होती है।
लेकिन जब वह विवाह के बंधन में बंध जाती है तो उस समय कई झँझट खडे हो जाते
हैं।तब वह कन्या सोचती है कि इस से तो अच्छा था कि वह कुँआरी ही रह जाती।
लेकिन एक बार विवाह होनें के कारण उस का कुआरापन तो समाप्त हो ही जाता है।ऐसे में
वह कुआरी नही हो सकती।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जब इन्सान कुआरा अर्थात
दुनीयावी मोह माया से दूर होता है तो उस के मन में उस परमात्मा की चाह पैदा होती है।
लेकिन दुनिया के रंग इतने हैं कि वह उस में डूब जाता है।अर्थात विवाहित होने का भाव
है कि उस संसारी माया में उलझ जाता है।ऐसे में वह उस में फँसता ही चला जाता है।
तब उस के लिए उस माया से निकलना बहुत कठिन हो जाता है।जिस प्रकार एक विवाहित पुरूष
अपनी पत्नी को त्यागनें में असमर्थता महसूस करता है ठीक उसी तरह एक बार माया में उलझनें
के बाद माया को छोड़ना भी इसी तरह कठिन हो जाता है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि हँस किसी भी गंदे पोखर में से साफ पानी ही
पीता है और पानी पी कर जल्दी से जल्दी वहाँ से दूर चला जाना चाहता है।अर्थात
फरीद जी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार हँस किसी भी गंदे तलाब ,पोखर आदि में से भी
प्यास लगनें पर अपनी चोंच से साफ पानी ही पीता है ठीक उसी तरह हमें भी इस संसार की
माया के मोह में ना फसँते हुए, अपना ध्यान प्रभु की ओर लगाए रखना चाहिए।वास्तव में
फरीद जी हमें सांकेतिक भाषा में इस बात को समझाना चाहते हैं कि हमें संसार मे कैसे
रहते हुए भी उस प्रभु की भक्ति करनी चाहिए।

फरीद जी आगे कहते हैं कि जब यह हंस किसी अन्नभंडार आदि के समीप बैठता है तो लोग
इसे उड़ा देते हैं।उन्हें ऐसा लगता है कि यह हंस कही उनका अन्न ना खा ले।लेकिन लोग यह
नहीं जानते कि हंस यह सब नही खाता।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जब कोई फकीर
या प्रभु भक्तिरत व्यक्ति संसार में रहनें लगता है तो लोगों को यह भ्रम होनें लगता है कि यह
धन प्राप्ती के लिए ,दूसरों को धोखा देने के लिए यह सब स्वांग धारण किए हुए है।लेकिन
लोग यह नही समझ पाते कि जो उस परमात्मा के प्यारे होते हैं उन्हें दुनियावी लोभ,मोह
के प्रति किसी प्रकार की आसक्ती नही रह जाती।

बुधवार, 28 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक - २०

फरीदा जिन्नी कंमी नाहि गुण,ते कंमड़े विसारि॥
मतु शरमिंदा थीवही,साईं दै दरबारि॥५९॥

फरीदा साहिब दी करि चाकरी,दिल दी लाहि रांदि॥
दरवेशां नू लोणीऐ, रुखां दी जीरांदि॥६०॥

फरीदा काले मैडे कपणे,काला मैडा वेसु॥
गुनहि भरीआ मैं फिरा,लोक कहै दरवेसु॥६१॥

तती तिहि पलवै,जे जलि टुबी देइ॥
फरीदा जो डोहागणि रब दी,झूरैदी झुरइ॥६२॥

फरीद जी कहते हैं कि जिन कामों को करनें से कोई लाभ नही होता ऐसे कामों को ना करना ही अच्छा है।यदि हमऐसे काम ही करते रहेगें तो जब उस परमात्मा के सम्मुख जाएगें तो हमें शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि जो काम विषय- विकारॊ के वशीभूत हो कर किए जाते हैं वह काम हमेशा व्यर्थ ही होते हैं।उस से कोई लाभ अंतत: नही मिलता।

आगे फरीद जी कहते हैं कि हमें तो उस परमात्मा की चाकरी करनी चाहिए। हमारे दिल में इस बात को लेकर कभी भरम पैदा नही होना चाहिए कि हम अपनी मन मर्जी कर रहे हैं।लेकिन उस परमात्मा की चाकरी हम तभी करनें में सफल हो सकते हैं। जब तक हमे कोई ऐसा रास्ता दिखानें वाला दर्वेश ना मिल जाए जो निस्वार्थी व प्रभु का सच्चाअर्थात वही हमें प्रभु की चाकरी करनें का ढंग बता सकता है जो उस प्रभु की मर्जी को जानता है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं। कि अपनें बारे में मैं तो सब कुछ जानता हूँ कि मै क्या हूँ?मेरे जो कपड़े है यह दिखते तो फकीरी वाले हैं और यह जो मैनें भेष धार रखा है वह भी फकीरी वाला है। लेकिन मैं ही जानता हूँ कि यह सब धोखा है।यह बात अलग है कि लोग मेरे इस वेश को देख कर मुझे बहुत बड़ा फकीर मान लेते हैं।जब कि मैं तो गुनाहों से भरा हुआ हूँ।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जब तू उस फकीर की तलास करता है जो प्रभु की मर्जी को जानता है। तब ऐसे लोग भी बहुत से मिलते हैं जो परमात्मा के संबध के बारे में जानते तो कुछ भी नही है। लेकिन दुनिया को ऐसा जाहिर करते है कि वे सब कुछ जानते हैं। ऐसे लोगो से सावधान करनें के लिए ही वह हमें इन पाखंडीयों के बारे में बता रहे हैं

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक - १९

फरीदा सिरु पलिआ,दाड़ी पली,मुछां भी पलीआ॥
रे मन गहिले बावले,माणहि किआ रलिआ॥५५॥

फरीदा कोठे धुकणु केतड़ा,पिर नीदड़ी निवारि॥
जो दिह लधे गाणवे,गए विलाड़ि विलाड़ि॥५६॥

फरीदा कोठे मडंप माणीआ,ऐत लाऐ चितु॥
मिटी पई अतोलवी कोई होसी मितु॥५७॥

फरीदा मंडप मालु लाए ,मरग सताणी चिति धरि॥
साई जाई संमालि,तिथे ही तउ वंजणा॥५८॥

फरिद जी कहते है कि यह सिर भी सफेद हो गया है, दाड़ी और मूछें के बाल भी सफेद हो गए हैं।लेकिन हे मेरे मन तू अभी भी दुनियावी मौज मस्ती के प्रति आसक्त है।अर्थात अब बुढापा आ गया है लेकिन यह जो मन है यह अब भी भोग विलासों मे लगा हुआ है।
आगे फरीद जी कह्ते है कि देख इस कोठे के ऊपर तू कितना दोड़ सकता है?अर्थात इन भोग विलासों से तुझे क्या मिलेगा ? सब तो अंतत: नाश हो जाता हैं।इस लिए तू इस मोह रूपी नीद से जाग जा।क्युँकि वैसे ही ईश्वर नें तुझे गिनती के थोड़े से दिन जीनें के लिए दिए हैं।उन्हे भी तू मौज- मस्ती में बिताता जा रहा है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि तू इस भोग विलास में धन दौलत पानें की कामनाओं में अपने चित को मत लगा।क्युकि आखिरी समय में इन चीजों से कोई भी तुझे फायदा मिलनें वाला नही है।जब तेरे मरने के बाद तेरे ऊपर मिट्टी डाली जाएगी तो यह चीजें तेरी कोई मदद नही करेगीं।कोई साथ नही देगी।

फरीद जी आगे कहते है कि इन चीजों की जगह तू इस बात का ध्यान कर की आखिर तुझे मौत आनी है और तुझे मौत के बाद वह परमात्मा कहाँ रखे गा।यह तो वह परमात्मा ही जानता है कि तुझे कहा रखे।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं। दुनिया के सारे भोग विलास और धन दौलत किसी काम के साबित नही होते। मरने के बाद यह तेरे साथ नही जाते।तेरे साथ तो मात्र तेरी प्रभु के प्रति की हुई भक्ति ही साथ जाती है जो तुझे नेक रास्ते पर चलाती है।इस लिए उस मौत को सदा याद रखना चाहिए।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक- १८

एहु तनु सभो रतु है,रतु बिनु तंनु होइ॥
जो सह रते आपणे,तितु तनि लोभु रतु होइ॥
भै पईऐ तनु खीणु होइ,लोभु रतु विचहु जाइ
जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ,तिउ हरि का भऊ ,
दुरमति मैलु गवाइ॥५२॥

फरीदा सोई सरवरू ढूंढि लहु,जिथहु लभी वथु॥
छपणि ढूंढै किआ होवै,चिकणि ढुबै हथु॥५३॥

फरीदा नंढी कंतु राविउ,वडी थी मुईआसु॥
धनु कूकैंदी गोर में,तै सह मिलीआसु॥५४॥


फरीद जी ने जो पूर्व श्लोकों में रत अर्थात लहु के बारे में कहा है उसी बात को स्पष्ट करने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु अमरदास जी ने इस श्लोक को यहाँ पर जोड़ा है।कि असल में फरीद जी जिस रत (लहु)की बात कर रहें हैं वह कौन -सा रत है? गुरू जी कहते हैं कि यह सारा शरीर लहु ही है क्योंकि लहु के बिना यह शरीर ,शरीर नही हो सकता।आगे गुरु जी कहते है कि जो अपनें प्रभु में लीन हो जाते हैं असल में उन के भीतर लालच रूपी लहु नही होता।यहाँ पर गुरु जी फरीद जी की बात को ही स्पष्ट कर रहे हैं।आगे कहते है कि ईश्वर के भय से,अर्थात यह कहा जाता है कि ईश्वर सब कुछ देखता है ,इस भय से इस तन का लालच रूपी लहु इस शरीर में नही रह पाता। जिस प्रकार आग धातु को गला कर शुद्ध कर देती है इसी प्रकार प्रभु का आग रूपी भय, हमारे शरीर के दोषों को दूर कर देता है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि तुम ऐसे सरोवर की खोज करो जिस सरोवर में डुबकी मार कर तुम कोई कीमती,अमुल्य चीज पा सको।लेकिन यदि तुमनें किसी छप्पड में डुबकी लगाई तो तुम्हारे हाथ सिर्फ कीचड़ ही लगेगा। अर्थात हमें उस परमात्मा को पानें की ही कामना करनी चाहिए,उसी में लीन होनें की ही कामना करनीचाहिए। जिस का कोई मुल्य बयान नही कर सकता।क्यूँकि निहित स्वार्थो के वशीभूत किए गए हमारे सारे प्रयत्न अंतत: बेकार ही साबित होगें।असल मे फरीद जी यहाँ ऐसे लोगों की ओर इशारा कर के हमें बताना चाहते हैं जो लोग रिधि-सिद्धि के पीछे लग कर अपना जीवन गवा देते हैं।वह असल में कीचड़ से ही अपने हाथ सना बैठते हैं।उन के हाथ आखिर में कुछ नही आता।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि जो स्त्री जवानी के समय अपनें पति के प्रति प्रेम भाव नही रखती वह स्त्री जबजाती है तो उस समय उस की आस भी मर जाती है।फिर वह जब बूढ़ी हो कर मर जाती है तो कब्र में बहुत पछताती है,कि क्यों उस जवानी के समय अपनें पति से उस ने प्रेम न किया।अर्थात फरीद जी हमे समझाने के लिए कहते हैं कि समय रहते ही उस परमात्मा में डूब जाना चाहिए।नही तो समय बीत जानें पर हमारे पास पछताने के सिवा कोई रास्ता नही बचता। तब हम सोचते है कि क्यों हमनें उसे भुलाए रखा।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक-१७

फरीदा वेख,कपाहै जि थीआ,जि सिरि थीआ तिलाह॥
कमादै अरु कागदै ,
कुनै कोइलिआह॥
मंदे अमल
करेदिआ,एह सजाइ तिनाह॥४९॥
फरीदा कंनि मुसला,सूफु गलि,दिलि काती,गुड़ु वाति॥
बाहरि दिसे चानणा,दिलि
अधिआरी राति ॥५०॥
फरीदा रती रतु निकलै, जे तनु चीरै कोइ॥
जो तन रते रब सिउ।तिन तनि रतु होइ॥५१॥


फरीद जी कहते है कि देख कापाह और तिलों के साथ क्या हो रहा है।तिलों को कोल्हू में पेला जाता है और कपास को बेलनों में बेला जाता है। इसी तर कागज और मिट्टी की हांडी को कोयलों की आग में झोंका जाता है।यह सब सिर्फ इस लिए हो रहा है कि हम उनसे फायदा उठा सके।इसी तरह हमारे सारे काम भी ऐसे ही होते हैं अर्थात अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही होते हैं। इस तरह के बुरे कामों को करने,स्वार्थ भरे काम करनें से ऐसी ही सजा हम को मिलनी है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि स्वार्थ के कारण किया गया कार्य हमेशा दूसरो को तकलीफ देता है और जो काम दूसरों को तकलीफ देता है वह काम बुरा ही होता है।बुरे काम करने वालो को सजा भी भुगतनी पड़ती है।

आगे फरीद जी कहते हैं कि इस दुनिया में लोग बहुत अजीब है यदि उन्हें देखा जाए तो बुरे कामों को करते हुए भी वह अपने कंधे पर धार्मिकता ,गले में मालायें और मुँह मे गुड़ जैसी मीठी जुबान रखे नजर आते हैं,जब की दिल में कैंची जैसी भावनाएं पाले रहते हैं।अर्थात लोगों को ठगनें की भावना रखते हैं।ऐसे लोग बाहर से देखने पर बहुत ही भले प्रतीत होते है।साधु जैसे दिखते हैं।बहुत गुणी दिखते हैं। लेकिन असल में इन के भीतर अंधेरा ही छाया रहता है।अर्थात कुछ लोग साधु का भेस तो बना लेते हैं लेकिन वे अपने जीवन में कभी भी उस परमात्मा को नही साध पाते।लेकिन दिखावा ऐसा करते हैं कि वह बहुत पहुँचे हुए हैं।ऐसे लोगो से फरीद जी हमें सावधान करना चाहते हैं।

आगे फरीद जी कहते है कि असल में जो लोग उस परमात्मा की भक्ति में रम गए हैं। उन के भीतर से जरा -सा लहु भी नही निकलता। चाहे हम उन का पूरा शरीर ही चीर दें।क्यों कि जो उस परमात्मा में रम जाता है उस के तन में लहु नही रहता।अर्थात फरीद जी कहते हैं जिस प्रकार लहु हमारे शरीर मे रहता है ,उसी प्रकार यह स्वार्थ हमारे भीतर भरा रहता है।यह पाप हमारे भीतर भरा रहता है।लेकिन जो लोग प्रभुमय हो जाते हैं। उन के भीतर स्वार्थ और पाप नजर नही आता।असल में फरीद जी हमें सही और गलत की पहचान बताना चाह रहे हैं।