कबीर माइआ डोलनी,पवनु वहै हिवधार॥
जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ,अवर बिलोवनहार॥१९॥
इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक मे कहे विचार को और अधिक स्पष्ट कर रहे हैं।वह कहते है कि माया रूपी यह जो दूध है, इसे हमारी श्वास रूपी शीतल पवन बिलोवने की तरह बिलोती जा रही है।जो लोग इसे बिलो रहे हैं, वही खा भी रहे हैं। लेकिन यहाँ पर सभी को मक्खन ही खाने को नही मिल रहा।सभी अपने यत्नानुसार ही पा रहे हैं।
कबीर जी कहना चाहते है कि यह जीवन तो सभी को मिला है और इस संसार में प्रलोभन भी बहुत हैं, लेकिन कौन इस जीवन की श्वासों का व्यय किस काम मे, किस उद्देश्य से कर रहा है।यही उस के प्रतिफल पाने का आधार बन जाता है।
कबीर माईआ चोरटी, मुसि मुसि लावै हाटि॥
ऐक कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट॥२०॥
कबीर जी कहते है कि यह माया बहुत चालाक है। यह माया बार बार प्रलोभनों मे जीव को फँसाने कि कोशिश मे लगी रहती है। लेकिन कबीर जी कहते हैं कि ऐसे लोग इस माया की ठगी का शिकार नही होते जो इस माया को तोड़ तोड़ कर इस की असलियत को पहचान लेते हैं।
कबीर जी कहना चाहते है कि संसार कि इस माया का काम ही ठगना है।यह माया ठगने के लिए नये नये रूप धार कर हमारे सामने आती रहती है।लेकिन यदि जीव उस परमात्मा की शरण मे चला जाए।जैसे कबीर जी गए हैं तो यह माया टुकड़े टुकड़े हो जाती है।अर्थात यह हमे अपने जाल मे नही फँसा पाती।
जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ,अवर बिलोवनहार॥१९॥
इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक मे कहे विचार को और अधिक स्पष्ट कर रहे हैं।वह कहते है कि माया रूपी यह जो दूध है, इसे हमारी श्वास रूपी शीतल पवन बिलोवने की तरह बिलोती जा रही है।जो लोग इसे बिलो रहे हैं, वही खा भी रहे हैं। लेकिन यहाँ पर सभी को मक्खन ही खाने को नही मिल रहा।सभी अपने यत्नानुसार ही पा रहे हैं।
कबीर जी कहना चाहते है कि यह जीवन तो सभी को मिला है और इस संसार में प्रलोभन भी बहुत हैं, लेकिन कौन इस जीवन की श्वासों का व्यय किस काम मे, किस उद्देश्य से कर रहा है।यही उस के प्रतिफल पाने का आधार बन जाता है।
कबीर माईआ चोरटी, मुसि मुसि लावै हाटि॥
ऐक कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट॥२०॥
कबीर जी कहते है कि यह माया बहुत चालाक है। यह माया बार बार प्रलोभनों मे जीव को फँसाने कि कोशिश मे लगी रहती है। लेकिन कबीर जी कहते हैं कि ऐसे लोग इस माया की ठगी का शिकार नही होते जो इस माया को तोड़ तोड़ कर इस की असलियत को पहचान लेते हैं।
कबीर जी कहना चाहते है कि संसार कि इस माया का काम ही ठगना है।यह माया ठगने के लिए नये नये रूप धार कर हमारे सामने आती रहती है।लेकिन यदि जीव उस परमात्मा की शरण मे चला जाए।जैसे कबीर जी गए हैं तो यह माया टुकड़े टुकड़े हो जाती है।अर्थात यह हमे अपने जाल मे नही फँसा पाती।