कबीर डगमग किआ करहि,कहा ढुलावहि जीउ॥
सरब सूख के नाइको,राम नाम रसु पीउ॥३॥
कबीर जी कहते है कि हे प्राणी तू अपने मन को किन बातों मे उलझा रहा है,क्यो तू क्षणिक सुखो मे लग कर अपने मन को बहला रहा है। तुझे तो उस परमपिता परमेश्वर जो कि सभी सुखो का स्वामी है, सभी सुखो को देने वाला है,उस राम के नाम का महारस पीना चाहिए। वास्तव मे कबीर जी हम से कहना चाहते है कि इन्सान उस सुख को भूला रहता है जो सदा रहने वाला है, वह ऐसे सुखो के पीछे भागता है जो वास्तव में सुख लगते तो हैं लेकिन सुख होते नही।क्योकि कोई भी सुख वास्तविक सुख तभी हो सकता है जिस को भोगने के बाद मन शांत हो जाता है।ऐसे सुखो का क्या फायदा जिसे भोगने के बाद नये सुख की तलाश आरम्भ हो जाती हो।इस लिए हमे सदा सुख की नही बल्कि उस सुख को देने वाले की तलाश करनी चाहिए।ताकि हम सदा उस महा सुख का आनंद उठा सके। उस महा सुख को भोग सके।जिसे भोगने के बाद,पाने के बाद और पाने की लालसा ही समाप्त हो जाती है।
कबीर कंचन के कुंडल बने,उपरि लाल जड़ाऊ॥
दीसहि दाधे कान जिउ,जिन मनि नाही नाऊ॥४॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि यदि सोने के कुडंल हो और उस पर लाल रत्न जड़े हुए हो और उन्हे ऐसे कानों मे पहना गया हो जो भीतर से सड़ चुके हो, जिस कान मे उस परमात्मा का नाम सुनाई ही ना देता हो। ऐसे कानों मे पहने हुए यह सोने के लाल रत्न जड़ित कुडंलो का क्या लाभ। कबीर जी यहाँ कहना चाहते हैं कि मात्र दिखावा करने से कुछ नही होता।यदि कोई सब के सामने ऐसा दिखावा करता रहता है कि वह सदा हरि भजन मे लगा रहता है, ऐसे मे मुँह से तो वह भले ही हरि हरि जपता रहता है लेकिन उस का मन कहीं और दुनियावी पदार्थो में विषय वासनाओ मे भटकता रहता है। ऐसे इन्सान के कान सड़े हुए ही तो माने जाएगें । जिस के मन मे परमात्मा का नाम है ही नही।वासतव मे कबीर जी इस प्रकार के दिखावे का विरोध कर हमे यहाँ सही रास्ता दिखाना चाहते हैं।
सरब सूख के नाइको,राम नाम रसु पीउ॥३॥
कबीर जी कहते है कि हे प्राणी तू अपने मन को किन बातों मे उलझा रहा है,क्यो तू क्षणिक सुखो मे लग कर अपने मन को बहला रहा है। तुझे तो उस परमपिता परमेश्वर जो कि सभी सुखो का स्वामी है, सभी सुखो को देने वाला है,उस राम के नाम का महारस पीना चाहिए। वास्तव मे कबीर जी हम से कहना चाहते है कि इन्सान उस सुख को भूला रहता है जो सदा रहने वाला है, वह ऐसे सुखो के पीछे भागता है जो वास्तव में सुख लगते तो हैं लेकिन सुख होते नही।क्योकि कोई भी सुख वास्तविक सुख तभी हो सकता है जिस को भोगने के बाद मन शांत हो जाता है।ऐसे सुखो का क्या फायदा जिसे भोगने के बाद नये सुख की तलाश आरम्भ हो जाती हो।इस लिए हमे सदा सुख की नही बल्कि उस सुख को देने वाले की तलाश करनी चाहिए।ताकि हम सदा उस महा सुख का आनंद उठा सके। उस महा सुख को भोग सके।जिसे भोगने के बाद,पाने के बाद और पाने की लालसा ही समाप्त हो जाती है।
कबीर कंचन के कुंडल बने,उपरि लाल जड़ाऊ॥
दीसहि दाधे कान जिउ,जिन मनि नाही नाऊ॥४॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि यदि सोने के कुडंल हो और उस पर लाल रत्न जड़े हुए हो और उन्हे ऐसे कानों मे पहना गया हो जो भीतर से सड़ चुके हो, जिस कान मे उस परमात्मा का नाम सुनाई ही ना देता हो। ऐसे कानों मे पहने हुए यह सोने के लाल रत्न जड़ित कुडंलो का क्या लाभ। कबीर जी यहाँ कहना चाहते हैं कि मात्र दिखावा करने से कुछ नही होता।यदि कोई सब के सामने ऐसा दिखावा करता रहता है कि वह सदा हरि भजन मे लगा रहता है, ऐसे मे मुँह से तो वह भले ही हरि हरि जपता रहता है लेकिन उस का मन कहीं और दुनियावी पदार्थो में विषय वासनाओ मे भटकता रहता है। ऐसे इन्सान के कान सड़े हुए ही तो माने जाएगें । जिस के मन मे परमात्मा का नाम है ही नही।वासतव मे कबीर जी इस प्रकार के दिखावे का विरोध कर हमे यहाँ सही रास्ता दिखाना चाहते हैं।
3 टिप्पणियाँ:
अर्थ सहित सुन्दर विश्लेषण के साथ साथ शिक्षप्रद भी। वाह।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman. blogspot. com
उत्तम....आपका आभार!!!
बहुत सुन्दर अर्थ से अच्छी तरह समझ आ जाता है धन्यवाद्
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