कबीर ऐसी होइ परी, मन को भावतु कीनु॥
मरने ते किआ डरपना, जब हाथि सिधऊरा लीन॥७१॥
कबीर जी अपने अनुभव की बात कहते है कि अब तो ऐसा हो गया है कि मैं अपने मन को जो भाता है वही करना चाहता हूँ। इस लिए अब मरने से क्या डरना, जब हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ ही लिआ है।
कबीर जी कहना चाहते है कि जिस तरह पुराने समय मे जब किसी स्त्री का पति मर जाता था तो वह हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ लेती थी, जिस का मतलब होता था कि यह स्त्री अपने पति के साथ ही जल कर मरना चाहती है अर्थात सती होना चाहती है। फिर उसे मौत का भय नही रहता था। ठीक इसी तरह जब भगत के मन को परमात्मा की भक्ति भाने लगती है तो वह इस भक्ति के सहारे परमात्मा को पाने की ठान लेता है फिर उसे मरने का भय नही रहता अर्थात दुनिया दारी के संबधो के टूटने का डर, अंहकार ,विषय विकारों मोह मायादि से विरिक्त होने का डर नही सताता।
कबीर रस को गांडो चूसीऐ, गुन कऊ मरीऐ रोइ॥
अवगुनीआरे मानसै, भलो न कहि है कोइ॥७२॥
कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार गन्ने के रस रूपी गुण की खातिर हम उसे चूसते हैं और अच्छा मानते हैं। उसी तरह गुणहीन मनुष्य को कोई अच्छा नही मानता। अर्थात कबीर जी कहते हैं कि गुणो के आधार पर ही हम किसी को अच्छा या बुरा मानते हैं।
कबीर जी ने यह श्लोक पहले श्लोक का महत्व समझाने के लिए ही कहा है कि जब भक्ति हमारे मन को भाने लगती है तो हम उस की खातिर सब कुछ छोड़ने को तैयार हो जाते हैं। उसी तरह गन्ने के रस को पाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन हमारी इस मेहनत को कोई बुरा नही कहता। क्योकि किसी ऐसे काम को करने पर,जिस से फायदा होता हो कौन बुरा कहेगा। लेकिन ऐसे काम जिन्हें करने मे मेहनत भी लगे और फायदा भी ना हो ,ऐसे कामो को करने वाले को कोई अच्छा कैसे कह सकता है ? इसी बात को समझने के लिए कबीर जी हमे कह रहे हैं।
मरने ते किआ डरपना, जब हाथि सिधऊरा लीन॥७१॥
कबीर जी अपने अनुभव की बात कहते है कि अब तो ऐसा हो गया है कि मैं अपने मन को जो भाता है वही करना चाहता हूँ। इस लिए अब मरने से क्या डरना, जब हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ ही लिआ है।
कबीर जी कहना चाहते है कि जिस तरह पुराने समय मे जब किसी स्त्री का पति मर जाता था तो वह हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ लेती थी, जिस का मतलब होता था कि यह स्त्री अपने पति के साथ ही जल कर मरना चाहती है अर्थात सती होना चाहती है। फिर उसे मौत का भय नही रहता था। ठीक इसी तरह जब भगत के मन को परमात्मा की भक्ति भाने लगती है तो वह इस भक्ति के सहारे परमात्मा को पाने की ठान लेता है फिर उसे मरने का भय नही रहता अर्थात दुनिया दारी के संबधो के टूटने का डर, अंहकार ,विषय विकारों मोह मायादि से विरिक्त होने का डर नही सताता।
कबीर रस को गांडो चूसीऐ, गुन कऊ मरीऐ रोइ॥
अवगुनीआरे मानसै, भलो न कहि है कोइ॥७२॥
कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार गन्ने के रस रूपी गुण की खातिर हम उसे चूसते हैं और अच्छा मानते हैं। उसी तरह गुणहीन मनुष्य को कोई अच्छा नही मानता। अर्थात कबीर जी कहते हैं कि गुणो के आधार पर ही हम किसी को अच्छा या बुरा मानते हैं।
कबीर जी ने यह श्लोक पहले श्लोक का महत्व समझाने के लिए ही कहा है कि जब भक्ति हमारे मन को भाने लगती है तो हम उस की खातिर सब कुछ छोड़ने को तैयार हो जाते हैं। उसी तरह गन्ने के रस को पाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन हमारी इस मेहनत को कोई बुरा नही कहता। क्योकि किसी ऐसे काम को करने पर,जिस से फायदा होता हो कौन बुरा कहेगा। लेकिन ऐसे काम जिन्हें करने मे मेहनत भी लगे और फायदा भी ना हो ,ऐसे कामो को करने वाले को कोई अच्छा कैसे कह सकता है ? इसी बात को समझने के लिए कबीर जी हमे कह रहे हैं।
2 टिप्पणियाँ:
Kabeer ne qudrat se jitna seekha,shyad hi koyi saanee hoga..haan,Marathi bhasha me jinki rachnayen unke pote ne yaad daasht ke sahare likhin hain,wo Bahinabai chaudhari ek aisee nirakshar mahila thin jinka nisarg guru raha..
gyanvardhak lekh badhai
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