गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४२



कबीर ऐसा को नही, मंदरु देइ जराइ॥
पांचऊ लरिके मारि कै, रहै राम लिउ लाइ॥८३॥

कबीर जी कहते है कि भले ही हम परमात्मा की बंदगी,उपासना आदि करते हैं, हमे उस से शांती भी मिलती है लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि फिर भी ऐसा कोई नही है अर्थात कोई विरला ही है..जो अपने भीतर के पाँचों कामादिक विषय विकारों को नष्ट कर पाता है....और फिर उस परमात्मा के ध्यान में डूब जाता है। अर्थात उस के ध्यान मे अपने शरीर की सुध भी बिसरा देता है।

कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते हैं कि भले ही हम साधना करते समय ऐसा महसूस करते हैं कि हमारे पाँचो विकार क्षीण हो चुके है.हमने उन्हे जीत लिआ है लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है....साधना के कारण यह विषय -विकार कुछ देर के लिए शांत भले ही हो जाते हैं लेकिन हमारे भीतर से नष्ट नही हो पाते।वास्तव मे कबीर जी हमे सचेत कर रहे हैं कि जब तक यह हमारे भीतर विषय -विकार हैं तब तक यह समझे कि हमारी साधना अधूरी ही है....जिस दिन यह विषय-विकार सताना हमेशा के लिए बंद कर दे ....तभी उस परमात्मा में लीनता प्राप्त होती है।


कबीर ऐसा को नही, ऐहु तनु देवै फूकि॥
अंधा लोगु न जानई, रहिउ कबीरा कूकि॥८४॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यहाँ ऐसा कोई भी नही है जो इस शरीर को जला दे। अर्थात इस शरीर का मोह छोड़ दे। क्योकिं सभी लोग शरीर के प्रति मोह रखने के कारण ही विषय -विकारों मे फँसते है। लेकिन किसी को भी इस बात का पता नही होता। इसी कारण कबीर जी लोगों को अंधा कह रहे हैं।विषय -विकारों में डूबने के कारण लोगों को सही और गलत का एहसास नही होता। जबकि कबीर जी कहते हैं कि मैं चिल्ला चिल्ला कर सब को सचेत कर रहा हूँ। अर्थात वे संत लोग जो इन विषय -विकारों से मुक्त हो चुके हैं हमे सदा सचेत कर रहे है।लेकिन हम मोहग्रस्त होने के कारण अंधे ही बनें रहते हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी वास्तव में एक गुप्त रहस्य को खोल रहे हैं। क्योंकि हम लोग सदैव बाहरी दुनिया से ही संबध साधे रहते हैं.....इसी लिए हम शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं।जबकि शरीर के भीतर के ईश्वरी अंश के प्रति हमारा ध्यान कभी जाता ही नही।यदि हम इस ईश्वरी अंश के प्रति सचेत हो जाएं तो इस शरीर का महत्व अपने आप समाप्त हो जाता है।इसी बात कि ओर यह इशारा किया जा रहा है। जिसे हम हम शरीर व बाहरी दुनिया के प्रति मोह ग्रस्त होने के कारण नही देख पाते।

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