कबीर जा कऊ खोजते, पाइउ सोई ठऊरु॥
सोई फिरि कै तू भईआ, जा कऊ कहता अऊरु॥८७॥
कबीर जी कहते है कि हम जिस सच्चे सुख की तलाश करते रहते हैं, उस स्थान को खोजते हुए जब हम उस परमात्मा की भक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं तो हम आगे बढ़्ते हुए एक दिन उस स्थान पर अवश्य ही पहुँच जाते हैं जिस स्थान की हम खोज कर रहे थे। क्योकि हम जिस परमात्मा की तलाश में निकलते है एक दिन उसे खोजते खोजते उसी के रंग में रंग के उसी के समान हो जाते हैं जिसे हम कोई दूसरा मान कर खोज रहे थे।
वास्तव मे कबीर जी हमे कहना चाहते है कि जीव की भावना जितनी गहरी होती है, जीव उसी भावना मे डूब कर उसी जैसे होने लगता है। ऐसे मे एक दिन उसे समझ आती है कि वह जिसे खोज रहा था वह तो स्वयं उसी के भीतर समाया हुआ था।सिर्फ प्रेम और सच्ची भावना की कमी के कारण ही हम भटक रहे थे। जबकि वह हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है।
कबीर मारी मरऊ कुसंग की, केले निकटि जु बेरि॥
उह झूलै, उह चीरीऐ, साकत संग न हेरि॥८८॥
आगे कबीर जी कहते हैं कि यदि हमारा संग ऐसे लोगो के साथ है जो बुरे स्वाभाव वाले हैं ,तो ऐसे मे भी हम अपने मार्ग से भटक सकते हैं । वह उदाहरण देते हुए कहते हैं जिस प्रकार केले और बेर का वृक्ष यदि पास -पास होते हैं तो बेर और केले का वृक्ष हवा के झोंकों के कारण आपस मे टकराते हैं तो ऐसे मे बेर का वृक्ष केले के वृक्ष को छलनी कर देता है ....जगह जगह से चीर देता है। ठीक इसी प्रकार ऐसे लोगो का संग करने से जो उस परमात्मा से दूर हैं, अपने स्वाभाव के कारण हमेशा नुकसान ही पहुँचाते हैं। इस लिए कबीर जी हमे कहते हैं कि ऐसे लोगो का संग कभी भी नही करना चाहिए।
इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि हमें हमेशा बुरे स्वाभाव वाले लोगों से सदा दूर रहना चाहिए।क्योकि मानव स्वबा ऐसा है कि उस पर संगत का असर देर -सबेर जरूर पड़ने लगता है।
सोई फिरि कै तू भईआ, जा कऊ कहता अऊरु॥८७॥
कबीर जी कहते है कि हम जिस सच्चे सुख की तलाश करते रहते हैं, उस स्थान को खोजते हुए जब हम उस परमात्मा की भक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं तो हम आगे बढ़्ते हुए एक दिन उस स्थान पर अवश्य ही पहुँच जाते हैं जिस स्थान की हम खोज कर रहे थे। क्योकि हम जिस परमात्मा की तलाश में निकलते है एक दिन उसे खोजते खोजते उसी के रंग में रंग के उसी के समान हो जाते हैं जिसे हम कोई दूसरा मान कर खोज रहे थे।
वास्तव मे कबीर जी हमे कहना चाहते है कि जीव की भावना जितनी गहरी होती है, जीव उसी भावना मे डूब कर उसी जैसे होने लगता है। ऐसे मे एक दिन उसे समझ आती है कि वह जिसे खोज रहा था वह तो स्वयं उसी के भीतर समाया हुआ था।सिर्फ प्रेम और सच्ची भावना की कमी के कारण ही हम भटक रहे थे। जबकि वह हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है।
कबीर मारी मरऊ कुसंग की, केले निकटि जु बेरि॥
उह झूलै, उह चीरीऐ, साकत संग न हेरि॥८८॥
आगे कबीर जी कहते हैं कि यदि हमारा संग ऐसे लोगो के साथ है जो बुरे स्वाभाव वाले हैं ,तो ऐसे मे भी हम अपने मार्ग से भटक सकते हैं । वह उदाहरण देते हुए कहते हैं जिस प्रकार केले और बेर का वृक्ष यदि पास -पास होते हैं तो बेर और केले का वृक्ष हवा के झोंकों के कारण आपस मे टकराते हैं तो ऐसे मे बेर का वृक्ष केले के वृक्ष को छलनी कर देता है ....जगह जगह से चीर देता है। ठीक इसी प्रकार ऐसे लोगो का संग करने से जो उस परमात्मा से दूर हैं, अपने स्वाभाव के कारण हमेशा नुकसान ही पहुँचाते हैं। इस लिए कबीर जी हमे कहते हैं कि ऐसे लोगो का संग कभी भी नही करना चाहिए।
इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि हमें हमेशा बुरे स्वाभाव वाले लोगों से सदा दूर रहना चाहिए।क्योकि मानव स्वबा ऐसा है कि उस पर संगत का असर देर -सबेर जरूर पड़ने लगता है।
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