मंगलवार, 14 जून 2011

कबीर के श्लोक - ७३

कबीर बैसनो हुआ त किआ भईआ माला मेलीं चारि॥
बाहरि कचंनु बारहा. भीतरि भरी भंगार॥१४५॥

कबीर जी कहते हैं कि बहुत से लोग वैष्णव भक्तों  की तरह बन जाते हैं और चार चार मालायें पहन लेते हैं। देखने वालों को तो वह खरा सोना ही दिखाई देते हैं लेकिन वह सोना सिर्फ बाहर से ही चमकदार लगता है...उसके भीतर तो खोट ही होती है। अर्थात वह नकली सोना होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि ईश्वर भक्ति का दिखावा करने से किसी के भीतर उस परमात्मा का आनंद नही उतरता। भक्ति का दिखावा करने से हम सिर्फ लोगों को ही धोखे मे रख सकते हैं । इस तरह के भक्त बनने का कोई फायदा नही है।यहाँ हमे कबीर जी सच्ची भक्ति करने का संदेश देना चाहते हैं।

कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का . तजि मन का अभिमानु॥
ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु॥१४६॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार रास्ते का पत्थर लोगों के पैरों के नीचे पड़ा रहता है। तू भी इसी तरह मन का अभिमान छोड़ कर पड़ा रह।यदि कोई इस तरह से अभिमान छोड़ कर उस परमात्मा की भक्ति करता है तो ही वह भगवतता को प्राप्त होता है।

कबीर जी हमे पत्थर का उदाहरण देकर समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार राह का पत्थर सभी की ठोकरें खाने के बाद भी वैसे ही पड़ा रहता हैं ठीक उसी प्रकार हमें भी मान अभिमान ईष्या द्वैष अंहकार आदि के वशीभूत होकर दूसरों से व्यावाहर नही करना चाहिए।

2 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला ने कहा…

सार्थक सुन्दर। आपकी साधना भी सराहनीय है। शुभकामनायें।

Anita ने कहा…

अहंकार ही हमारे और प्रभु के बीच दीवार है.. आभार!

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