गुरुवार, 28 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७९

कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ,सबदु जु बाहिआ ऐकु॥
लागत ही भुइ मिलि गईआ, परिआ कलेजे छेकु॥१५७॥


कबीर जी कहते हैं कि जब मुझे सच्चा सतगुरू मिला तो उसने मुझे उस एक शब्द के साथ जोड़ दिया जो निरन्तर चलता रहता है। उस के कारण मेरा अंहकार व विकार मिट्टी मे मिल गये और यह शब्द मेरे ह्र्दय मे सदा के लिये बस गया।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब किसी को ऐसा गुरु मिलता है जो उस परमात्मा से एकाकार हो चुका है तो ऐसा सतगुरु हमें उस परमसत्ता के मूल से जोड़नें का रास्ता हमें दिखा देता हैं । जब हम उस शब्द के साथ जुड कर उसी के साथ आगे बहने लगते है तो हमारे भीतर के सभी विकार स्वयं ही नष्ट हो कर मिट्टी में मिल जाते हैं। सतगुरू का सब्द हमारे ह्र्दय में तीर की तरह धस जाता है अर्थात सदा के लिये ह्र्दय मे समाहित हो जाता है।


कबीर साचा सतिगुरु किआ करै, जऊ सिखा महि चूक॥
अंधे ऐक न लागई, जिउ बॊस बजाईऐ फूक॥१५८॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि लेकिन सतगुरू क्या कर सकता है ? यदि सीखने वाला ही गलत हो।ऐसे विषय विकारों के मद में अंधे हुए जीव को सतगुरू के उपदेश का कोई असर नही होता। यह तो ठीक ऐसा ही होता है जैसे बाँसुरी में एक ओर से फूँकने पर वह हवा दूसरे छिद्रो से बाहर हो जाती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि विषय विकारों मे ग्रस्त लोगों को सच्चा सतगुरू भी नही समझा सकता। ऐसे अंहकारी लोग उपदेश सुन कर याद तो रख सकते है,लेकिन उस उपदेश को, उस बताये रास्ते पर कभी चलते नही हैं।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग सतगुरू द्वारा दी गई सीख को सीख तो लेते हैं लेकिन कभी स्वंय उस पर चलते नही है। इस तरह ऐसे लोग इस शाब्दिक ज्ञान का प्रयोग दूसरो को प्रभावित करने के लिये करते हैं।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७८

कबीर जहा गिआन तह धरमु है,जहा झूठ तह पापु॥
जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि॥१५५॥


कबीर जी कहते हैं कि जहाँ समझ होती है वही धरम हो सकता है और जहाँ झूठ होता है वहाँ पाप होता है। लोभ हमेशा नाश ही लाता है ,लेकिन जिसके भीतर क्षमा होती है वही उस परमात्मा का निवास होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस के भीतर होश होती है,समझ होती है वही धर्म हो सकता है।बेहोश आदमी कभी भी धार्मिक नही हो सकता।इसी लिये कबीर जी कह रहे हैं कि जहाँ झूठ होता है अर्थात बेहोशी होती है अज्ञान होता है वही पाप होता है।क्योकि बेहोशी मे किया गया कार्य हमेशा झूठा होता है,ऐसे कर्म को ही इंगित करने के लिये पाप शब्द का प्रयोग किया है।आगे कबीर जी कहना चाहते हैं कि लालच के कारण ही आदमी गलत रास्ते पर जाता है जो आदमी को पतन की ओर ले जाता है।जो नाश का कारण बनता है। लेकिन हमारे भीतर यदि क्षमाशीलता है तो हमारे भीतर करूणा भी विराजित रहती है।ऐसे ह्र्दय में ही परमात्मा का वास होता है।

कबीर माइआ तजी त किआ भईआ,
जऊ मानु तजिआ नही जाइ॥
मान मुनी मुनीवर गले,मानु सभै कऊ खाइ॥१५६॥


कबीर जी कहते है कि कुछ लोग धन दौलत,घरबार को छोड़ कर यह सोच लेते हैं कि वे इस तरह करने से परमात्मा की निकटता पा जायेगें। लेकिन वास्तव मे जो छोड़ने वाली चीज है वह है अपने भीतर का अंहकार , उसे नहो छॊड़ पाते। इस अंहकार ने तो  कितने मुनी साधको को ग्रस लिआ है।

कबीर जी कहना चाहते है कि संसारिक सुखो का त्याग करने से कुछ लाभ नही होता। यदि इन संसारिक सुखों को त्याग कर उल्टा अंहकार से भर जायें। मन मे हमेशा ये बात रहे कि देखो ! हमने परमात्मा के लिये कितना त्याग करा है। इस तरह का भाव जीव को परमात्मा से दूर ले जाता है।इसी तरह मुनी लोग व साधक जो इस अंहकार भाव से भरे होते हैं कि देखो ! हमने सभी संसारिक सुखों का त्याग किया है, हमने कितनी कठोर साधना उस परमात्मा के लिये की है।इस तरह के भाव यदि मन में रहता है तो वह अंहकार को जन्म देता है और अंहकार के कारण कभी भी उस परमात्मा को नही पाया जा सकता। यह अंहकार सभी के पतन का कारण बन जाता है।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७७

कबीर जैसी ऊपजी पेड ते , जऊ तैसी निबहै ओड़ि॥
हीरा किस का बापुरा  , पुजहि न रतन करोड़ि॥१५३॥

कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार नये उगे पौधे मे कोमलता होती है, यदि ऐसी ही कोमलता सदा बनी रहे तो वह एक हीरे की तरह ही नही बल्कि करोड़ों रत्नों की कीमत से भी ज्यादा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार नये उगे पौधे में कोमलता होती है यदि मनुष्य में भी वही कोमलता सदा एक-सी बनी रहे तो वह बहुत अमुल्य होगी।अर्थात जिस प्रकार बालक का मन होता है यदि हमारा मन उसी तरह सदा निष्कपट व निश्छल बना रहे तो उस परमात्मा को सहज ही पाया जा सकता है।इसी लिये कबीर जी इस स्वभाव को अमुल्य बता रहे हैं।

कबीर ऐक अचंभौ देखिउ , हीरा हाट बिकाइ॥
बरजनहारे बाहरा , कऊडी बदलै जाइ॥१५४॥

कबीर जी कहते हैं कि मुझे एक आचंभा दिख रहा है कि एक कीमती हीरा बाजार मे बेचा जा रहा है।क्यूकि किसी को भी इस हीरे की कीमत का पता नही है इस लिये यह कौडीयों के भाव बिक रहा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा यह मनुष्य का जन्म बहुत अमुल्य है। लेकिन हम इस बात के महत्व को समझ नही रहे हैं और इसी लिये इस जीवन को बेकार की बातों ,बेकार के कामों में लगाये हुए हैं। हमे यह जो हीरे जैसा जन्म मिला है उसे व्यर्थ ही गवा रहे हैं।इसी लिये कबीर जी कह रहे हैं कि यह हीरा कौडी के भाव जा रहा है।

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७६

कबीर पाटन ते ऊजरु भला , राम भगत जिह ठाइ॥
राम सनेही बाहरा , जम पुरु मेरे भांइ॥१५१॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसी बस्ती से उजाड़ अच्छा है जहाँ राम के भगत रहते हैं।जिस जगह पर परमात्मा के भगत नही रहते हैं, मुझे तो वह स्थान नरक लगता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस जगह पर परमात्मा के भगत रहते हैं ऐसा स्थान ही अच्छा है। किसी स्थान को मात्र  सुख सुविधायें ही रहने योग्य नही बनाती।बल्कि मन के भीतर की शांती के बिना कितनी ही अच्छी व बढ़िया जगह हो , वह बेकार व नीरस ही लगती है।परमात्मा की भक्ति हर जगह को अपने ही रंग मे रंग देती है।जिस जगह पर परमात्मा की भक्ति नही होती , कबीर जी कहते हैम कि वह स्थान नरक के समान ही होता है।

कबीर गंग जमुन के अंतरे , सहज सुंन के घाट॥
तहा कबीरै मटु कीआ , खोजत मुनि जन बाट॥१५२॥

कबीर जी कहते हैं कि हमारे भीतर जो गंगा यमुना हैं इसी के भीतर वह स्थान है जहाँ सहज शांती का घाट है। हमें उसी स्थान पर ठहरना है। क्योकि मुनि जन भी इसी स्थान की खोज मे लगे रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारे भीतर ही वह स्थान है जहाँ गंगा जमुना की तरह विचारों की धारा बहती रहती है, इन्हीं विचारों का मंथन करते हुए ,हमें उस विचार को खोजना है जहाँ  मन का ठहराव हो जाता है। वही वह स्थान है जहाँ मन मे कोई विचार नही उठते। उसी को कबीर जी सुंन का घाट कह रहे हैं। उसी मन की अवस्था मे रहते हुए हम परमात्मा की भक्ति को प्राप्त होते हैं कबीर जी हमे समझाते हुए कहते हैं कि मुनि जन इसी  अवस्था मे ठहरने के लिये अपने भीतर इस स्थान को खोजने के यत्न मे लगे रहते हैं।