शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - १०९


कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ,बरजै लोगु अजानु॥
ता सिउ टूटी किऊ बनै,जा को जीअ परान॥२१७॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जब साधक की प्रीत उस परमात्मा के साथ लग जाती है जो घट-घट की जानता है ,तब संगे सबधी जो उस परमात्मा की महिमा से अंजान है तुझे अपने साथ मिलाने के लिये तरह तरह से उस परमात्मा की प्रीत से हटाने की कोशिश करेगें।लेकिन  उस परमात्मा से जिसने हमें यह जीवन दिया है ,उस से बिछड़ कर, चाहे किसी भी कारण से यह प्रीत टूटी हो ।हम सुखी नही रह सकते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब साधक उस परमात्मा से जुड़ता है तो हमारे आस-पास के लोग जो उस परमात्मा से जुड़े हुए नही होते, वे साधक को कभी उलाहना देते हैं और कभी उस के तारीफ के पुल बाधँते हैं जिस से साधक भ्रमित हो, दी गई उलाहना या तारीफ के कारण समाजिक मर्यादाओं के कारण विचलित हो जाता है।परन्तु यदि साधक यह मान चुका है कि उस परमात्मा ने ही हमे जीवन दिया है तो वह उस परमात्मा से अपनी प्रीत कभी नही तोड़गा। इसी बात की ओर कबीर जी संकेत कर रहे हैं।

कबीर कोठे मंडप हेतु करि, काहे मरहु सवारि॥

कारजु साढे तीनि हथ,घनी त पऊने चारि॥२१८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि घर-बार को सजाने-सँवारनें के शॊक के कारण जीव तू क्यों अध्यात्मिक मौत मर जाता है।जबकि जीवन मे हम मात्र रोज साढे तीन या पौनें चार गज जमीन का ही इस्तमाल कर पाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसारिक मोह माया मे उलझ कर हम दूसरों को बाहरी तड़क-भड़क दिखाने के चक्कर में अपने जीवन लगा देते हैं। जिस कारण उस परमात्मा को याद करने का हमें ध्यान ही नही रहता और समय हाथ से निकल जाता है।जबकि हम अपने जीवन में बहुत कम ही इनका उपयोग कर पाते हैं।

2 टिप्पणियाँ:

S.N SHUKLA ने कहा…

इस सुन्दर प्रविष्टि के लिए बधाई स्वीकारें.
कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें , आभारी होऊंगा

vikram singh ने कहा…

Ye jo aap gyan ka parkash fela rahe h wah kafi kabile tarif ha

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