शनिवार, 10 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११७


आठ जाम चऊसठि घरी,तुअ निरखत रहै जीउ॥
नीचे लोइन किउ करऊ,सभ घट देखऊ पीउ॥२३५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो जीव आठ पहर चौंसठ घड़ी सिर्फ तुझे ही देखते रहते हैं,उनकी नजरे नीची हो जाती हैं अर्थात उनमे नम्रता आ जाती है।जिस कारण वे सभी में अपने प्रिय को ही देखते रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो जीव निरन्तर उस परमात्मा के ध्यान में ही लगा रहता है, उसे हर जगह परमात्मा ही नजर आता है और उसका अंहाकार भी तिरोहित हो जाता है।अंहकार के मिटने के कारण जीव सभी मे अपने प्रिय अर्थात उस परमात्मा को ही निहारते हैं।

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै,जीअ महि बसै कि पीउ॥

जीउ पीउ बूझऊ नही,घट महि जीउ कि पीउ॥२३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हे सहेली मैं प्रभु पति मे बस रही हूँ या प्रभु मुझ मे बस गया है। ये बात समझ मे ही नही आती कि कौन किस में बसा है, परमात्मा जीव मे बसा हुआ है या जीव परमात्मा मे बसा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सृष्टी की रचना परमात्मा ने ऐसे कि हुई है कि वह भी उसी में समाया हुआ हैं ।इस लिये उसे जानने के बाद ये बात कभी समझ ही नही आती कि परमात्मा जीव में समाया हुआ है या जीव परमात्मा मे समाया हुआ है।यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।

2 टिप्पणियाँ:

Anita ने कहा…

परमात्मा को देखनेके बाद उसके सिवा कुछ भी तो नजर नहीं आता...तब कौन किसे देख रहा है यह भी स्पष्ट नहीं होता..कबीर की अनमोल वाणी के लिए आभार!

vikram singh ने कहा…

Ye jo aap gyan ka parkash fela rahe h wah kafi kabile tarif ha

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