शनिवार, 18 जुलाई 2009

फरीद के श्लोक - ३९

हौ ढूढेदी सजणा,सजणु मैडे नालि॥
नानक अलखु न लखीऐ,गुरमुखि देऐ दिखालि॥१२१॥

हंसा देखि तरंदिआ, बगा आइआ चाउ॥
ढुबि मुऐ बग बपुड़े, सिरु तलि उपरि पाउ॥१२२॥

मै जाणिआ वड हंसु है,तां मै कीता संगु॥
जे जाणा बगु बपुड़ा,जनमि न भेड़ी अंगु॥१२३॥

यह श्लोक गुरू रामदास जी के उच्चारित किए हुए हैं।यहाँ पर फरीद जी की बाणी के साथ बीच बीच मे अन्य गुरूओ की बाणी भी यथा स्थान दी गई है।उस का कारण मात्र इतना है कि जब गुरू जी किसी बात को अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं तब प्रमाण स्वरूप अन्य गुरू ओ की बाणी वहाँ जोड़ दी गई है।इस श्लोक मे गुरू रामदास जी कहते हैं कि हम उस परमत्मा रूपी साजन को,अपने प्यारे को हमेशा बाहर ही ढूंढते रहते हैं जब कि वह सदा से ही हमारे साथ हैं।लेकिन क्योंकि वह अलख है अर्थात उसे लखा नही जा सकता, हमारी पहचान मे वह नही आ पाता। क्योकि जिसे हमने कभी देखा ही नही उसे हम पहचाने गें कैसे? इसी लिए वह हमारे पास ही होता है और हम उसे पहचान नही पाते।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है हम जिस परमात्मा को बाहर खोज रहे हैं वह तो हमारे ही पास है। लेकिन हम उसे पहचान नही पाते।उस की पहचान तो कोई गुरू ही करवा सकता है जो उसे जान चुका है।वही हमे उस परमात्मा से साक्षात्कार करा सकता है।

अगला श्लोक मे गुरू अमरदास जी कहते है। कि हंसों को तैरता देख कर बगुलों को भी तैरने की इच्छा जाग्रित हो जाती है।लेकिन क्योकि वे तैरना नही जानते इस लिए वे डूब जाते हैं।इस तैरने के उपक्र्म में उन का सिर तो पानी में डूब जाता है और पैर की ओर हो जाते हैं।अर्थात इस श्लोक में गुरू अमरदास जी कहना चाहते हैं कि जो लोग हंस के समान हैं अर्थात उस प्रभु के प्यार मे डूबे हुए है,उन के आनंद को देख कर बगुला भगत लोग भी वैसा दिखावा करने लगते हैं।लेकिन ऐसे बगुला भगत कभी भी उस परमात्मा को नही पा सकते।क्युँकि परमात्मा को सिर्फ दिखावे से अर्थात दिखावे वाले फोकट के कर्म कांडो को करने से नही पाया जा सकता।ऐसा करने वालों को कभी कोई लाभ प्राप्त नही होता।अर्थात उस परमात्मा की कृपा कभी प्राप्त नही होती।

अगले श्लोक मे गुरू जी कहते हैं कि कई बार ऐसा होता है कि इस तरह के बगुला भगतों को हम हंस समझ बैठते हैं,हम सझते हैं कि वह प्रभु का बहुत बड़ा प्रेमी है।वह प्रभु की कृपा पा चुका है। यह सोच कर हम उस का संग करने लगते हैं।लेकिन जब हमे यह पता चलता है कि जिसे हम हंस समझ रहे हैं वह तो वास्तव में एक नकारा बगुला है।जो सिर्फ हंस होने का ढोग कर रहा है यह अगर पता चल जाता तो क्यों कोई इन के पीछे लग कर अपना समय,अपना जीवन व्यर्थ बर्बाद करता।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि इस संसार में असली और नकली की पहचान मे हम अकसर भूल कर बैठते हैं और हम बगुले को ही हंस समझ कर अर्थात ढोंगी गुरु को ही सच्चा गुरू मान कर उस का अनुसरण करने लगते हैं।यह सब तो हमारी पहचानने की शक्ति की कमी के कारण ही होता है।

3 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अच्छा कार्य है यह!! आभार आपका!

Himanshu Pandey ने कहा…

मन का परिष्कार करती हैं यह साधु-उक्तियाँ । इनकी महनीय़ प्रस्तुति का आभार ।

shama ने कहा…

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