कबीर सोई मारीऐ,जिह मूऐ सुखु होइ॥
भले भले सभु को कहै,बुरे न मानै कोइ॥९॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि हमे उसे मारना चाहिए जिस के मरने से हमे सुख की प्राप्ती होती है।जिस के मरने पर सभी लोग भला मानते है और उस के हमारे द्वारा मारे जाने पर हमे कोई बुरा भी नही कहता।
यहाँ कबीर जी हमे पिछले श्लोक के संदर्भ मे ही कह रहे हैं कि हमे अपने अंहकार को ही मारना चाहिए।क्योकि इस के मरने से ही हमे सुख की प्राप्ती होती है।जब हम इसे मार देते हैं तो हमारा व्यवाहर भी सभी के प्रति बदल जाता है। तब हम किसी का बुरा नही सोचते।किसी के साथ स्वार्थ के कारण व्यवाहर नही करते।हमेशा दूसरो मे और अपने को एक समान देखने लगते हैं। हमे किसी के कड़वे वचन भी दुख नही पहुँचा सकते। हमारे इस व्यवाहर को देख कर सभी हमे अच्छा मानने लगते है और कोई भी हमे बुरा नही कहता।इस लिए इस अंहकार को ही मरना चाहिए।
कबीर राती होवहि कारीआ,कारे ऊभे जंत॥
लै फाहे उठि धावते,सि जानि मारे भगवंत॥१०॥
कबीर जी इस श्लोक में कह रहे हैं कि जिस प्रकार राते काली होती हैं, और इस काली रात मे जो जीव विचरण करते हैं या पैदा होते हैं, वह भी काले ही होते हैं अर्थात उन का स्वाभाव भी बुरा ही होता है। ऐसे जीव हमेशा दूसरों के पीछे पकड़ने के लिए या अपने आधीन करने के लिए सदा भागते रहते हैं। लेकिन वे नही जानते कि परमात्मा ने उन्हें पहले ही मारा हुआ है अर्थात अपनी दुर्बुद्धि के कारण वह परमात्मा से,सुख से दूर हो चुके हैं।
पहले श्लोको मे कबीर जी ने अंहकार से मुक्त होने की दशा का वर्णन किया है यहाँ कबीर जी हमे अंहकार ग्रस्त लोगो के बारे मे कहना चाहते है कि जो लोग अंहकार से ग्रस्त होते है, उन का स्वाभाव वैसा ही होता है जैसा कि काली रातो मे पनपनें वाले जीवों का होता है। ऐसे अंहकार ग्रस्त लोग सदा दूसरो को परेशान करने की कोशिश मे ही लगे रहते हैं। उन्हे दूसरो को सताने मे, मारने में ही सुख मिलता नजर आता है। जबकि वे नही जानते कि परमात्मा के दूर होने के कारण वे पहले ही मरे हुए के समान ही हैं अर्थात अंहकार के कारण विषय विकारों के आधीन ही रहते हैं। जिस कारण हमेशा दुखी रहते हैं।
1 टिप्पणियाँ:
बहुत आभार..बेहतरीन व्याख्या!!
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