कबीर सब ते हम बुरे,हम तजि भले सभु कोए॥
जिनि ऐसा करि बूझिआ,मीतु हमारा सोए॥७॥
इस श्लोक में कबीर जी कहते है कि सब से बुरे हम ही होते है,हमे छोड़ कर बाकि सभी तो भले ही हैं।जब यह बात समझ मे आती है,उस समय वह सभी लोग अपने लगने लगते है जो इस प्रकार जान जाते हैं।
यहाँ कबीर जी अंहकार छोड़ने के बाद के अपने अनुभव को बता रहे हैं।कि जब हम वास्तविकता को जान लेते हैं तभी हमे पता चलता है कि कि बुराई तो हमारे मन में थी,जो हमारे अंहकार के कारण हमारे भीतर पैदा हुई थी।क्योकि बुराई हमारे भीतर थी इसी लिए हमे अपने को छोड़ बाकी सभी मे बुराईयां नजर आ रही थी।जैसी सोच, जैसी नजर, हमारे भीतर होती है हम बाहर भी वैसा ही देखने लगते हैं।लेकिन जब यह अंहकार छूट जाता है तो हर जगह वही नजर आने लगता है जो हमारे भीतर और हर कण कण मे मौजूद है।वह तो समान भाव से सभी मे मौजूद है।जब ऐसी समझ आ जाती है तब इस अवस्था मे पहुँचे हुए सभी लोग हमे मित्र के समान लगने लगते हैं।
कबीर आई मुझहि पहि,अनिक करे करि भेस॥
हम राखे गुर आपने,उनि कीने आदेसु॥८॥
कबीर जी इस श्लोक में अंहकार के स्वरूप के बारे मे बता रहे हैं कि यह अंहकार अनेक रूपो मे हमारे भीतर आ जाता है। लेकिन हम इस से तभी बच पाते है जब परमात्मा हमे इस से बचाता है। इस अंहकार से तभी छुटकारा मिलता है जब वह परमात्मा आदेश देता है,उस अंहकार को आज्ञा देता है। तभी हम इस से मुक्त हो सकते हैं।
इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि अंहकार को समझ्ना इतना आसान नही है क्योकि यह अपना रूप बदल बदल कर हमे धोखा देता रहता है। जैसे हमारे पूजा पाठी हो जाने से, दानी हो जाने से, लोक भलाई के काम करने से, हमे ऐसा लगने लगता है यह अंहकार मिट गया। लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है क्योकि हम इन शुभकामों को कर के भी अंहकार से भरे रहते हैं हमे ऐसा एहसास होता रहता है कि देखो हम कितना भलाई का नेक काम कर रहे हैं।जब हमारे मन मे इन कामों को कर के लोगो की प्रशंसा पाना और परमार्थ के काम कर के पुण्य कमाने की भावना हमारे भीतर होती है तो ऐसी भावना ही अंहकार बन जाती है। इसी लिए कबीर जी कह रहे है कि उस परमात्मा की कृपा के बिना इस से मुक्ती संभव नही होती।जब तक सभी ओर से मन हटा कर उस परमात्मा से एकाकार स्थापित नही हो जाता तब तक इस अंहकार से नही बचा जा सकता। "यह तभी संभव होता है जब वह परमात्मा आदेश करता है।" कबीर जी यह बात यहाँ इस लिए कह रहे हैं कि कहीं हम इस अंहकार को छोड़ने के बाद यह ना समझने लगे कि देखो "हमने" अंहकार को छोड़ दिया। इसी "हमने" के भाव के कारण कहीं हमारे भीतर एक नया अंहकार पैदा ना हो जाए।इसी लिए उपरोक्त बात कबीर जी हमे कह रहे हैं।
जिनि ऐसा करि बूझिआ,मीतु हमारा सोए॥७॥
इस श्लोक में कबीर जी कहते है कि सब से बुरे हम ही होते है,हमे छोड़ कर बाकि सभी तो भले ही हैं।जब यह बात समझ मे आती है,उस समय वह सभी लोग अपने लगने लगते है जो इस प्रकार जान जाते हैं।
यहाँ कबीर जी अंहकार छोड़ने के बाद के अपने अनुभव को बता रहे हैं।कि जब हम वास्तविकता को जान लेते हैं तभी हमे पता चलता है कि कि बुराई तो हमारे मन में थी,जो हमारे अंहकार के कारण हमारे भीतर पैदा हुई थी।क्योकि बुराई हमारे भीतर थी इसी लिए हमे अपने को छोड़ बाकी सभी मे बुराईयां नजर आ रही थी।जैसी सोच, जैसी नजर, हमारे भीतर होती है हम बाहर भी वैसा ही देखने लगते हैं।लेकिन जब यह अंहकार छूट जाता है तो हर जगह वही नजर आने लगता है जो हमारे भीतर और हर कण कण मे मौजूद है।वह तो समान भाव से सभी मे मौजूद है।जब ऐसी समझ आ जाती है तब इस अवस्था मे पहुँचे हुए सभी लोग हमे मित्र के समान लगने लगते हैं।
कबीर आई मुझहि पहि,अनिक करे करि भेस॥
हम राखे गुर आपने,उनि कीने आदेसु॥८॥
कबीर जी इस श्लोक में अंहकार के स्वरूप के बारे मे बता रहे हैं कि यह अंहकार अनेक रूपो मे हमारे भीतर आ जाता है। लेकिन हम इस से तभी बच पाते है जब परमात्मा हमे इस से बचाता है। इस अंहकार से तभी छुटकारा मिलता है जब वह परमात्मा आदेश देता है,उस अंहकार को आज्ञा देता है। तभी हम इस से मुक्त हो सकते हैं।
इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि अंहकार को समझ्ना इतना आसान नही है क्योकि यह अपना रूप बदल बदल कर हमे धोखा देता रहता है। जैसे हमारे पूजा पाठी हो जाने से, दानी हो जाने से, लोक भलाई के काम करने से, हमे ऐसा लगने लगता है यह अंहकार मिट गया। लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है क्योकि हम इन शुभकामों को कर के भी अंहकार से भरे रहते हैं हमे ऐसा एहसास होता रहता है कि देखो हम कितना भलाई का नेक काम कर रहे हैं।जब हमारे मन मे इन कामों को कर के लोगो की प्रशंसा पाना और परमार्थ के काम कर के पुण्य कमाने की भावना हमारे भीतर होती है तो ऐसी भावना ही अंहकार बन जाती है। इसी लिए कबीर जी कह रहे है कि उस परमात्मा की कृपा के बिना इस से मुक्ती संभव नही होती।जब तक सभी ओर से मन हटा कर उस परमात्मा से एकाकार स्थापित नही हो जाता तब तक इस अंहकार से नही बचा जा सकता। "यह तभी संभव होता है जब वह परमात्मा आदेश करता है।" कबीर जी यह बात यहाँ इस लिए कह रहे हैं कि कहीं हम इस अंहकार को छोड़ने के बाद यह ना समझने लगे कि देखो "हमने" अंहकार को छोड़ दिया। इसी "हमने" के भाव के कारण कहीं हमारे भीतर एक नया अंहकार पैदा ना हो जाए।इसी लिए उपरोक्त बात कबीर जी हमे कह रहे हैं।
1 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर व्याख्या
बहुत बहुत धन्यवाद
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