कबीर साकतु ऐसा है,जैसी लसन की खानि॥
कोने बैठे खाईऐ,परगट होइ निदानि॥१७॥
कबीर जी कहते हैं कि जो ईश्वर को भूला हुआ जीव है वह लसन की कोठरी के समान है। क्योकि जो भी इस लसन का सेवन कही भी बैठ कर करता है तो भी इस की गंध के कारण उसे सेवन करने वाला, अपने आप को छुपा नही पाता। उस गंध के कारण सभी को पता चल जाता है कि इसने लसन का सेवन किया है।
कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि जो लोग परमात्मा को भूले रहते हैं वे हमेशा विषय विकारों मे फँसें रहते हैं। ऐसे लोग अपने अंहकार, लालच, स्वार्थ व लोभादि विकारों के कारण अपने दुर्गुणों को छुपा नही पाते। ऐसे लोगों को कोई भी आसानी से पहचान ही जाता है। वास्तव मे परमात्मा से दूर हुआ मनुष्य इन विकारों से ग्रस्त पाया जाता है।
कबीर माइआ डोलनी,पवन झकोलनहारु॥
संतहु माखनु खाइआ, छाछि पीऐ संसारु॥१८॥
कबीर जी कहते है कि यह जो संसार की माया है वह दूध की डोलनी के समान है,जिस में मदाहनी रूपी हमारी श्वासें उसे मथ रही है।कबीर जी कहते हैं कि जिन्हें इसे मथने का तरीका पता है वे संत इस मे से माखन को निकाल कर खा लेते हैं।लेकिन जिसे इस को मथना नही आता ,उन्हें मात्र छाछ ही पीनी पड़ती है।
कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि वैसे तो यह संसार माया रूप ही है लेकिन फिर भी यदि हम अपने जीवन का सदुपयोग करे तो हम अपने जीवन को सफल बना सकते है।अर्थात हम अपने जीवन को संसारी कामो का निर्वाह करते हुए प्रभु भक्ति में लगाए ,तो आनंद रूपी उस परमपिता को पा सकते हैं।अन्यथा व्यर्थ के कामों में ही उलझ कर अपना जीवन गँवा बैठेगें।
कोने बैठे खाईऐ,परगट होइ निदानि॥१७॥
कबीर जी कहते हैं कि जो ईश्वर को भूला हुआ जीव है वह लसन की कोठरी के समान है। क्योकि जो भी इस लसन का सेवन कही भी बैठ कर करता है तो भी इस की गंध के कारण उसे सेवन करने वाला, अपने आप को छुपा नही पाता। उस गंध के कारण सभी को पता चल जाता है कि इसने लसन का सेवन किया है।
कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि जो लोग परमात्मा को भूले रहते हैं वे हमेशा विषय विकारों मे फँसें रहते हैं। ऐसे लोग अपने अंहकार, लालच, स्वार्थ व लोभादि विकारों के कारण अपने दुर्गुणों को छुपा नही पाते। ऐसे लोगों को कोई भी आसानी से पहचान ही जाता है। वास्तव मे परमात्मा से दूर हुआ मनुष्य इन विकारों से ग्रस्त पाया जाता है।
कबीर माइआ डोलनी,पवन झकोलनहारु॥
संतहु माखनु खाइआ, छाछि पीऐ संसारु॥१८॥
कबीर जी कहते है कि यह जो संसार की माया है वह दूध की डोलनी के समान है,जिस में मदाहनी रूपी हमारी श्वासें उसे मथ रही है।कबीर जी कहते हैं कि जिन्हें इसे मथने का तरीका पता है वे संत इस मे से माखन को निकाल कर खा लेते हैं।लेकिन जिसे इस को मथना नही आता ,उन्हें मात्र छाछ ही पीनी पड़ती है।
कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि वैसे तो यह संसार माया रूप ही है लेकिन फिर भी यदि हम अपने जीवन का सदुपयोग करे तो हम अपने जीवन को सफल बना सकते है।अर्थात हम अपने जीवन को संसारी कामो का निर्वाह करते हुए प्रभु भक्ति में लगाए ,तो आनंद रूपी उस परमपिता को पा सकते हैं।अन्यथा व्यर्थ के कामों में ही उलझ कर अपना जीवन गँवा बैठेगें।
4 टिप्पणियाँ:
वाह! बहुत आभार इस व्याख्या के लिए. उम्दा कार्य.
बहुत बडिया व्याख्या है इसे जारी रखें धन्यवाद ।
Good blog is yours.
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