कबीर निगुसांऐं बहि गए, थांघी नाही कोइ॥
दीन गरीबी आपुनी, करते होइ सु होइ॥५१॥
कबीर जी कहते है कि यदि बिना परमात्मा का सहारा लिए अर्थात मल्लाह को साथ लिए बिना, हम इस संसार रूपी समुंद्र में चलेगें तो हमारा बह जाना अर्थात विषय विकारो मे फँस जाना निश्चित है। इस लिए अपनी समझदारी छोड़ कर उस परमात्मा रूपी मल्लाह के हाथो मे अपने आप को छोड़ देना चाहिए।फिर वह जहाँ चाहे हमे ले जाए अर्थात उस परमात्मा की रजा मे रहना ही सही रास्ता है।
कबीर जी कहना चाहते है कि वस्तुत: हमारा जीवन संसारी बातो से प्रभावित रहता है।हम सदा ऐसी चीजो को पाने की लालसा रखते हैं जो ऊपरी तौर पर सुख देने वाली लगती हैं लेकिन उन से हमे अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन यह सब तभी होता है जब हम अपने को उस परमात्मा से, उस गुसाई से अलग मान कर चल रहे होते हैं। कबीर जी आगे समझाते हुए कहते है यदि हमे अपनी इस नासमझी का पता चल जाए तो हम उस परमात्मा के प्रति नम्रता पूर्वक समर्पित हो जाएगें। फिर वह परमात्मा हमे जिस ओर भी ले जाएगा, जैसे भी रखेगा, हम बेफिक्र रहेगें।
कबीर बैसनउ की कूकरि भली, साकत की बुरी माइ॥
उह नित सुनै हरि नाम जसु , ऊह पाप बिसाहन जाइ॥५२॥
कबीर जी कहते है कि वे जो परमात्मा का नाम लेने वाले परमात्मा के भगत हैं उन के घर पर रहने वाली कुतिया भी बहुत अच्छी है और जो परमात्मा को भूले हुए है, साकत लोग हैं । उन के घर मे रहने वाली माँ भी भली नही हो सकती। क्योकि भगत के घर वास करने वाला नित हरि का नाम सुनता है और साकत के घर पर रहने वाली माँ पाप मे ले जाने वाले विचारों को सुनती है।
कबीर जी इस श्लोक में हमे सगंत के प्रभाव के बारे मे बताना चाहते हैं। क्योकि हमारे जीवन पर संगत का प्रभाव बहुत पड़ता है। हम जैसी संगत मे रहते हैं वैसे ही गुण-अवगुण का विकास हमारे अंदर होने लगता है। अत: कबीर जी हमे सही और गलत संगती के पड़ने वाले प्रभाव के विषय मे यहाँ हमे सचेत कर रहे हैं। कबीर जी कहते हैं कि कुतिया यानि कि दीन हीन प्राणी जो अच्छी संगत मे बैठता है वह अच्छा है और माँ जो समाज की नजर में आदरणीय तो है लेकिन बुरी संगत मे रहती है। वह बुरी है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति की समाज मे क्या इज्जत है, इस आधार पर नही बल्कि वह कैसी संगती मे रहता है, इस के आधार पर ही हमे किसी के साथ संगती करनी चाहिए।
दीन गरीबी आपुनी, करते होइ सु होइ॥५१॥
कबीर जी कहते है कि यदि बिना परमात्मा का सहारा लिए अर्थात मल्लाह को साथ लिए बिना, हम इस संसार रूपी समुंद्र में चलेगें तो हमारा बह जाना अर्थात विषय विकारो मे फँस जाना निश्चित है। इस लिए अपनी समझदारी छोड़ कर उस परमात्मा रूपी मल्लाह के हाथो मे अपने आप को छोड़ देना चाहिए।फिर वह जहाँ चाहे हमे ले जाए अर्थात उस परमात्मा की रजा मे रहना ही सही रास्ता है।
कबीर जी कहना चाहते है कि वस्तुत: हमारा जीवन संसारी बातो से प्रभावित रहता है।हम सदा ऐसी चीजो को पाने की लालसा रखते हैं जो ऊपरी तौर पर सुख देने वाली लगती हैं लेकिन उन से हमे अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन यह सब तभी होता है जब हम अपने को उस परमात्मा से, उस गुसाई से अलग मान कर चल रहे होते हैं। कबीर जी आगे समझाते हुए कहते है यदि हमे अपनी इस नासमझी का पता चल जाए तो हम उस परमात्मा के प्रति नम्रता पूर्वक समर्पित हो जाएगें। फिर वह परमात्मा हमे जिस ओर भी ले जाएगा, जैसे भी रखेगा, हम बेफिक्र रहेगें।
कबीर बैसनउ की कूकरि भली, साकत की बुरी माइ॥
उह नित सुनै हरि नाम जसु , ऊह पाप बिसाहन जाइ॥५२॥
कबीर जी कहते है कि वे जो परमात्मा का नाम लेने वाले परमात्मा के भगत हैं उन के घर पर रहने वाली कुतिया भी बहुत अच्छी है और जो परमात्मा को भूले हुए है, साकत लोग हैं । उन के घर मे रहने वाली माँ भी भली नही हो सकती। क्योकि भगत के घर वास करने वाला नित हरि का नाम सुनता है और साकत के घर पर रहने वाली माँ पाप मे ले जाने वाले विचारों को सुनती है।
कबीर जी इस श्लोक में हमे सगंत के प्रभाव के बारे मे बताना चाहते हैं। क्योकि हमारे जीवन पर संगत का प्रभाव बहुत पड़ता है। हम जैसी संगत मे रहते हैं वैसे ही गुण-अवगुण का विकास हमारे अंदर होने लगता है। अत: कबीर जी हमे सही और गलत संगती के पड़ने वाले प्रभाव के विषय मे यहाँ हमे सचेत कर रहे हैं। कबीर जी कहते हैं कि कुतिया यानि कि दीन हीन प्राणी जो अच्छी संगत मे बैठता है वह अच्छा है और माँ जो समाज की नजर में आदरणीय तो है लेकिन बुरी संगत मे रहती है। वह बुरी है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति की समाज मे क्या इज्जत है, इस आधार पर नही बल्कि वह कैसी संगती मे रहता है, इस के आधार पर ही हमे किसी के साथ संगती करनी चाहिए।
2 टिप्पणियाँ:
nice
बहुत सुन्दर !!!
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