बुधवार, 14 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक -२९

कबीर हरदी पीरतनु हरै, चून चिहनु न रहाइ॥
बलिहारी ऐह प्रीति कऊ, जिह जाति बरन कुलु जाइ॥५७॥

कबीर जी कहते है कि उस परमात्मा की प्रीत पर बलिहारी हुआ जाता हूँ जिसने जाति, वर्ण और कुल का भेद भाव नष्ट कर दिया। यह सब ठीक वैसे ही हुआ है जैसे हल्दी और चूने के मिलने से उन दोनो का रंग छूट जाता है।

कबीर जी कहना चाह्ते है कि परमात्मा से प्रीती करने से वे सभी चीजे ,मन के भाव छूट जाते है जिस कारण हम सुख दुख को महसूस करते हैं, जो हमारे विषय विकारो के पोषक होते है, उनका प्रभाव हमपर नही पड़ता, यदि हमारी प्रीती उस परमात्मा के साथ होती है। यहाँ कबीर जी ऐसा नही कह रहे कि हम वे काम करना ही छोड़ देते है, बल्कि वे कहना चाहते हैं कि वे तो वहीं रहते हैं, वैसे ही रहते हैं, लेकिन हमारे मन का भाव ऐसा हो जाता है कि उन विषय विकारों कुल जाति के अभिमानादि से हमारे मन का संबध टूट जाता है। जिस कारण हमारा मन शांत हो जाता है और जब मन शांत होता है तभी हमे उस परमात्मा की प्रीती का पता चल पाता है। उस प्रीती के महत्व का पता चल पाता है। तभी हम उस पर बलिहारी जाते है।


कबीर मुकति दुआरा संकरा, राई दसएं भाइ॥
मनु तऊ मैगलु होइ रहिउ, निकसो किऊ कै जाइ॥५८॥

कबीर जी कहते है कि मुक्ति का द्वार बहुत ही छोटा है, वह इतना छोटा है कि राई के दसवें हिस्से जैसा लगता है और हमे इसे ही पार करना होता है मुक्ति के लिए। लेकिन हमारा मन तो हाथी जितना बड़ा ही रहता है ऐसे मे उस द्वार से पार कैसे हो सकते हैं।

कबीर जी इस सवाल को उठा कर हमसे कहना चाहते हैं कि यदि हमे मुक्ति चाहिए, उस परमात्मा से एकाकार होने की चाह हैं, तो सबसे पहले इस मन से ही निपटना होगा।क्योकि हमारा ये मन संसारी बातों से, विषय विकारो से, धरम कर्म की बातो से, कर्म कांडो से, धन संपत्ति के लालच से, अपने लोगो के मोह से इतना भर गया है कि अब ये हाथी जितना बड़ा नजर आने लगा है।ऐसे मे मुक्ति के द्वार को पार करना असंभव है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि अंहकार और मोह मायादि विषय विकारों से ग्रस्त होने के कारण मन बड़ा प्रतीत होने लगता है, इसी लिए वह परमात्मा के मुक्ति द्वार को पार नही कर सकता। यहाँ पर कबीर जी हमे मुक्ति से वंचित रहने का कारण समझा रहे हैं।

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