बुधवार, 21 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - ३०

कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै, तुठा करे पसाउ॥
मुकति दुआरा मोकला, सहजे आवऊ जाउ॥५९॥

कबीर जी कहते है कि यदि कोई ऐसा सतगुरु मिल जाए जो प्रसन्न हो कर हम पर कृपा कर दे, जिस से मुक्ति का दरवाजा खुल्ला हो जाए ताकि हम उसमे से आसानी से आ जा सके। अर्थात फिर मुक्त हो कर संसार मे विचरण करते रहे, अपने कार विहार करते रहें।

कबीर जी यहाँ हमे गुरू का महत्व समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि यदि सतगुरु अर्थात ऐसा गुरु जो मुक्त हो चुका है, हम पर प्रसन्न हो जाए तो वह हमे मुक्ति का सही रास्ता बता सकता है। जिस से हम भी स्थिर अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं और उस परमात्मा की कृपा के पात्र बन सकते हैं। फिर हम संसार मे वैसे ही रहेगे जैसे परमात्मा हमे रखना चाहता है, क्यो कि मुक्ति की अवस्था मे पहुँचने के बाद विषय विकार, मोह मायादि की तृष्णा नही सता पाती।


कबीर ना मोहि छानि न छापरी, ना मोहि घरु नही गाउ॥
मत हरि पूछै कऊन है, मेरे जाति न नाउ॥६०॥

कबीर जी कहते है कि मेरे पास ऐसी कोई संपदा नही है जिसे मै अपना कह सँकू और ना ही मेरे पास कोई घर या गाँव  है और ना ही समाज द्वारा बनाई गई कोई जाति या नाम ही अब शेष रह गया है। ऐसे में संभव हो सकता है कि हरि हम पर ध्यान दे ।

कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात संसार मे कुछ भी सदा रहने वाला नही है, यह समझ जाते है। तब मन इन से विरक्त को कर स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था मे जब हम परमात्मा की शरण मे जाते हैं तो कबीर जी कह्ते है कि परमात्मा भी हमारी ओर ध्यान दे सकता है। अर्थात विकार रहित और मोह रिक्त मन ही परमात्मा को पा सकता है। कबीर जी हमे यही समझना चाहते हैं।

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