कबीर जपनी काठ की, किआ दिखलावहि लोइ॥
हिरदै रामु न चेतही, ऐह जपनी किआ होइ॥७५॥
कबीर जी कहते है कि हाथ मे रुद्राक्ष या तुलसी आदि काठ की बनी मालायें ले कर क्या दिखाते फिर रहे हो। यदि तुम्हारे ह्र्दय मे परमात्मा की याद कभी आती ही नही इन सब दिखावे से कोई लाभ होने वाला नही।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग दुनिया के सामने दिखावा करने के लिए हाथों मे मालाये पकड़ लेते हैं, उसके मनकों को फेरते रहते हैं। जबकि उन का मन कहीं ओर ही भटकता रहता है। कबीर जी कहते है कि इस तरह से जप का दिखावा करके तुम किसे भरमा रहे हो, किसे दिखा रहे हो। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि तुम्हारे ह्र्दय मे परमात्मा के प्रति प्रेम नही है, चाह नही है तो मात्र माला पकड़ कर दिखावा करने से कुछ लाभ होने वाला नही है। इस तरह का दिखावा करके लोगों के सामने धार्मिकता का ढोंग कर सकते हो लेकिन इस तरह मन की शांती प्राप्त नही कर सकते।
कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै, मंतु न मानै कोइ॥
राम बिउगी ना जीऐ, जीऐ त बऊरा होइ॥७६॥
कबीर जी कहते हैं कि बिरह रूपी साँप हमारे मन में बसा हुआ है और इस विरह रूपी साँप पर कोई भी मंत्र काम नही कर सकता। इसी तरह राम से वियोग होने पर आदमी नही जी सकता अर्थात मरे हुओ के समान होता है।यदि ऐसे कोई जीता है तो वह पगलाया हुआ नजर आता है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब इन्सान को विषय विकारो को भोग कर भी किसी प्रकार की संतुष्टि नही मिलती। तो उसे एक दिन अनायास यह एहसास होता है कि सब कुछ करने पर भी भीतर कुछ ऐसा रह जाता है जो किसी अभाव की ओर संकेत करता है। उसे ऐसा लगता की कुछ ऐसा जरूर है जो मुझे पाना जरूरी है, तभी मन को पूर्ण तृप्ती प्राप्त हो सकेगी। इसी अतृप्ति ,इसी अभाव के कारण मन को विरह रूपी साँप का मन मे बैठे होने का पता चलता है। जिस पर कोई भी संसार मंत्र काम नही करता। अर्थात कबीर जी कहना चाह्ते हैं कि पुराने समय मे जब किसी को साँप डस लेता था तो मंत्र के जानकार लोग मंत्र द्वारा उसका इलाज करते थे। उसी बात को आधार बना कर कबीर जी यहाँ विरह रूपी साँप की बात कर रहे हैं। जब किसी को यह विरह रूपी साँप डस लेता है तो वह इस के इलाज के लिए वियोगी हो कर भटकने लगता है अर्थात परमात्मा से मिलन के वियोग में भटकने लगता है।फिर उसे परमात्मा के बिना जीना बहुत बावँरा बना देता है।कबीर जी यहाँ उन लोगो के मन की दशा का वर्णन कर रहे हैं जिन के भीतर परमात्मा से मिलन की चाह जग चुकी है।
हिरदै रामु न चेतही, ऐह जपनी किआ होइ॥७५॥
कबीर जी कहते है कि हाथ मे रुद्राक्ष या तुलसी आदि काठ की बनी मालायें ले कर क्या दिखाते फिर रहे हो। यदि तुम्हारे ह्र्दय मे परमात्मा की याद कभी आती ही नही इन सब दिखावे से कोई लाभ होने वाला नही।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग दुनिया के सामने दिखावा करने के लिए हाथों मे मालाये पकड़ लेते हैं, उसके मनकों को फेरते रहते हैं। जबकि उन का मन कहीं ओर ही भटकता रहता है। कबीर जी कहते है कि इस तरह से जप का दिखावा करके तुम किसे भरमा रहे हो, किसे दिखा रहे हो। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि तुम्हारे ह्र्दय मे परमात्मा के प्रति प्रेम नही है, चाह नही है तो मात्र माला पकड़ कर दिखावा करने से कुछ लाभ होने वाला नही है। इस तरह का दिखावा करके लोगों के सामने धार्मिकता का ढोंग कर सकते हो लेकिन इस तरह मन की शांती प्राप्त नही कर सकते।
कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै, मंतु न मानै कोइ॥
राम बिउगी ना जीऐ, जीऐ त बऊरा होइ॥७६॥
कबीर जी कहते हैं कि बिरह रूपी साँप हमारे मन में बसा हुआ है और इस विरह रूपी साँप पर कोई भी मंत्र काम नही कर सकता। इसी तरह राम से वियोग होने पर आदमी नही जी सकता अर्थात मरे हुओ के समान होता है।यदि ऐसे कोई जीता है तो वह पगलाया हुआ नजर आता है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब इन्सान को विषय विकारो को भोग कर भी किसी प्रकार की संतुष्टि नही मिलती। तो उसे एक दिन अनायास यह एहसास होता है कि सब कुछ करने पर भी भीतर कुछ ऐसा रह जाता है जो किसी अभाव की ओर संकेत करता है। उसे ऐसा लगता की कुछ ऐसा जरूर है जो मुझे पाना जरूरी है, तभी मन को पूर्ण तृप्ती प्राप्त हो सकेगी। इसी अतृप्ति ,इसी अभाव के कारण मन को विरह रूपी साँप का मन मे बैठे होने का पता चलता है। जिस पर कोई भी संसार मंत्र काम नही करता। अर्थात कबीर जी कहना चाह्ते हैं कि पुराने समय मे जब किसी को साँप डस लेता था तो मंत्र के जानकार लोग मंत्र द्वारा उसका इलाज करते थे। उसी बात को आधार बना कर कबीर जी यहाँ विरह रूपी साँप की बात कर रहे हैं। जब किसी को यह विरह रूपी साँप डस लेता है तो वह इस के इलाज के लिए वियोगी हो कर भटकने लगता है अर्थात परमात्मा से मिलन के वियोग में भटकने लगता है।फिर उसे परमात्मा के बिना जीना बहुत बावँरा बना देता है।कबीर जी यहाँ उन लोगो के मन की दशा का वर्णन कर रहे हैं जिन के भीतर परमात्मा से मिलन की चाह जग चुकी है।
3 टिप्पणियाँ:
कबीर जी कितनी सही बात कह रहे हैं. जब तक ईश्वर का पता न मिले, मन को चैन नहीं
कबीर हमेशा से पोन्गापंथियो के खिलाफ़ रहे है . उनकी बात सोने सी खरी है
कबीर की इस कबीरी के कायल हैं हम तो।
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