कबीर पारस चंदनै, तिन्ह है एक सुगंध॥
तिह मिलि तेऊ ऊतम भए, लोह काठ निरगंध॥७७॥
कबीर जी कहते हैं कि पारस और चंदन इन दोनों मे एक एक गुण होता है। इस लिए इनके संपर्क मे आने वाले लोहे और लकड़ी इन के इन गुण को ग्रहण कर लेते हैं।इस लिए लोहा पारस के छूने से सोना बन जाता है और लकड़ी चंदन के संपर्क मे रहने के कारण उसी की तरह सुगंधित हो जाती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम जिस प्रकार की संगत करते हैं उसी प्रकार के गुण हम ग्रहण करने लगते हैं। इस लिए हमें ऐसे लोगों का संग करना चाहिए जो विषय विकारों को जीत कर उस परमात्मा की भक्ति मे लग चुके हैं। हमें ऐसे साधको और गुरुओ की शरण मे जाना चाहिए जो संसारिक मोह माया छोड़ कर उस परमात्मा से एकाकार हो चुके हैं। ऐसे लोगो के साथ रहने से हम भी उन के उत्तम गुण ग्रहण कर लेगें और उन्ही की तरह हो जाएगें।
कबीर जम का ठेंगा बुरा है, उह नही सहिआ जाइ॥
ऐ जो साधू मोहि मिलिउ, तिन्ह लीआ अचंलि लाइ॥७८॥
कबीर जी कहते हैं कि यम द्वारा जो कष्ट हमे दिया जाता है वह सहन नही होता।लेकिन यदि साधु की कृपा,गुरू की कृपा हम पर हो जाए तो वे हमें अपनी छत्र छाया मे ले कर सभी तरह के कष्टो से बचा लेते हैं।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि यम द्वारा अर्थात जब हम जन्म मृत्यु के बंधन मे मोह माया आदि के कारण बंध जाते हैं तभी हमे यह संसारिक कष्ट दुखी कर पाते हैं।मोह माया आदि के कारण ही हम दुखी होते हैं और हम इस कष्ट को सहन नही कर पाते।लेकिन कबीर जी अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि मुझे तो गुरू की प्राप्ती हो गई।इस लिए अब मैं तो उसी गुरू की छ्त्र छाया में शरण पाने के कारण इस यम द्वारा दिए जाने वाले कष्टो से मुक्त हो गया अर्थात यह कष्ट अब मुझे कोई तकलीफ नही पहुँचा पाते।
तिह मिलि तेऊ ऊतम भए, लोह काठ निरगंध॥७७॥
कबीर जी कहते हैं कि पारस और चंदन इन दोनों मे एक एक गुण होता है। इस लिए इनके संपर्क मे आने वाले लोहे और लकड़ी इन के इन गुण को ग्रहण कर लेते हैं।इस लिए लोहा पारस के छूने से सोना बन जाता है और लकड़ी चंदन के संपर्क मे रहने के कारण उसी की तरह सुगंधित हो जाती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम जिस प्रकार की संगत करते हैं उसी प्रकार के गुण हम ग्रहण करने लगते हैं। इस लिए हमें ऐसे लोगों का संग करना चाहिए जो विषय विकारों को जीत कर उस परमात्मा की भक्ति मे लग चुके हैं। हमें ऐसे साधको और गुरुओ की शरण मे जाना चाहिए जो संसारिक मोह माया छोड़ कर उस परमात्मा से एकाकार हो चुके हैं। ऐसे लोगो के साथ रहने से हम भी उन के उत्तम गुण ग्रहण कर लेगें और उन्ही की तरह हो जाएगें।
कबीर जम का ठेंगा बुरा है, उह नही सहिआ जाइ॥
ऐ जो साधू मोहि मिलिउ, तिन्ह लीआ अचंलि लाइ॥७८॥
कबीर जी कहते हैं कि यम द्वारा जो कष्ट हमे दिया जाता है वह सहन नही होता।लेकिन यदि साधु की कृपा,गुरू की कृपा हम पर हो जाए तो वे हमें अपनी छत्र छाया मे ले कर सभी तरह के कष्टो से बचा लेते हैं।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि यम द्वारा अर्थात जब हम जन्म मृत्यु के बंधन मे मोह माया आदि के कारण बंध जाते हैं तभी हमे यह संसारिक कष्ट दुखी कर पाते हैं।मोह माया आदि के कारण ही हम दुखी होते हैं और हम इस कष्ट को सहन नही कर पाते।लेकिन कबीर जी अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि मुझे तो गुरू की प्राप्ती हो गई।इस लिए अब मैं तो उसी गुरू की छ्त्र छाया में शरण पाने के कारण इस यम द्वारा दिए जाने वाले कष्टो से मुक्त हो गया अर्थात यह कष्ट अब मुझे कोई तकलीफ नही पहुँचा पाते।
3 टिप्पणियाँ:
bahut badhiya kabeer vanee prastut ki hai ..abhaar
भाई परमजीत जी,
कबीर की दोहे, साखी तो हमने सुनी थी, श्लोक के बारे में आपके ब्लाग "साधना" में जानकारी हासिल हुई.
सुन्दर सटीक व्याख्या कर आपने हमारा दिल जीत लिया.
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
कितनी सुंदर बात कही है, धन्यवाद!
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