कबीर बैदु कहै हऊ ही भला, दारु मेरै वसि॥
ऐह तऊ बसतु गुपाल की, जब भावै लेऐ खसि॥७९॥
कबीर जी कहते हैं कि हकीम कहता है कि मैं बहुत समझदार हूँ क्योकि मैं उस हर दवा को जानता हूँ जो किसी भी प्रकार के कष्ट का निवारण कर सकती है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यह शरीर तो उसी परमात्मा का दिया हुआ है,इस लिए वह जब उसकी मर्जी होती है हमसे छीन लेता है।
कबीर जी इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं कि भले ही हकीम (विज्ञानिक) यह मान कर चल रहा है कि वह सभी परेशानीयों का हल खोज रहा है या जिन का हल खोज चुका है। वह सब अब मेरे हाथ मे हैं अर्थात सभी कष्ट की दवा मेरे हाथ मे है, लेकिन कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सभी कुछ हमारे हाथ मे होते हुए भी वस्तुत; वह हमारे हाथ मे नहीं है क्योकि यह सब तो उसी परमात्मा की ही दी हुई हैं। इन सभी वस्तुओ को, हमारे शरीर को, हमारी सारी खोजों को, वह परमात्मा हम से कभी भी छीन सकता है। ऐसे मे यह कहना कि हमारे पास सभी कष्टो के निवारण का उपाय है नासमझी है।
कबीर नऊबति आपनी, दिन दस लेहु बजाइ॥
नदी नाव संजोग जिउ, बहुरि न मिल है आइ॥८०॥
इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक के संदर्भ मे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यदि तुझे यह भ्रम हो ही गया है कि सभी कुछ तेरे हाथ मे हैं, तो दस दिनों तक इस सभी का आनंद उठा ले ,मौंज मस्ती कर ले।लेकिन तेरी यह मौंज मस्ती ठीक उसी तरह है जिस तरह नदी पार करते समय नाव मे बैठे मुसाफिरो का आपस मे कुछ देर के लिए मेल-मिलाप हो जाता है,लेकिन अपने गंतव्य पर पहुँच कर उतरने के बाद फिर वे आपस मे कभी नही मिलते।ठीक इसी तरह यह शरीर यह समय तुझे वापिस नही मिलने वाला।
कबीर जी इस श्लोक मे यही समझना चाह्ते हैं कि इन उपलब्धियों व सफलताओ के कारण हम भले ही कुछ समय के लिए मौंज -मस्ती मनाते रहे और आनंदित होते रहे। लेकिन अंतत: हम अपनी इस नासमझी को एक दिन समझ ही लेगें अर्थात कबीर जी समझाना चाहते हैं कि यह शरीर हमे दुबारा नही मिलेगा,यह समय हमारे हाथ से निकलने के बाद दुबारा नही आएगा।अत: समय रहते ही उस परमात्मा की शरण मे चले जाना चाहिए।
ऐह तऊ बसतु गुपाल की, जब भावै लेऐ खसि॥७९॥
कबीर जी कहते हैं कि हकीम कहता है कि मैं बहुत समझदार हूँ क्योकि मैं उस हर दवा को जानता हूँ जो किसी भी प्रकार के कष्ट का निवारण कर सकती है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यह शरीर तो उसी परमात्मा का दिया हुआ है,इस लिए वह जब उसकी मर्जी होती है हमसे छीन लेता है।
कबीर जी इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं कि भले ही हकीम (विज्ञानिक) यह मान कर चल रहा है कि वह सभी परेशानीयों का हल खोज रहा है या जिन का हल खोज चुका है। वह सब अब मेरे हाथ मे हैं अर्थात सभी कष्ट की दवा मेरे हाथ मे है, लेकिन कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सभी कुछ हमारे हाथ मे होते हुए भी वस्तुत; वह हमारे हाथ मे नहीं है क्योकि यह सब तो उसी परमात्मा की ही दी हुई हैं। इन सभी वस्तुओ को, हमारे शरीर को, हमारी सारी खोजों को, वह परमात्मा हम से कभी भी छीन सकता है। ऐसे मे यह कहना कि हमारे पास सभी कष्टो के निवारण का उपाय है नासमझी है।
कबीर नऊबति आपनी, दिन दस लेहु बजाइ॥
नदी नाव संजोग जिउ, बहुरि न मिल है आइ॥८०॥
इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक के संदर्भ मे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यदि तुझे यह भ्रम हो ही गया है कि सभी कुछ तेरे हाथ मे हैं, तो दस दिनों तक इस सभी का आनंद उठा ले ,मौंज मस्ती कर ले।लेकिन तेरी यह मौंज मस्ती ठीक उसी तरह है जिस तरह नदी पार करते समय नाव मे बैठे मुसाफिरो का आपस मे कुछ देर के लिए मेल-मिलाप हो जाता है,लेकिन अपने गंतव्य पर पहुँच कर उतरने के बाद फिर वे आपस मे कभी नही मिलते।ठीक इसी तरह यह शरीर यह समय तुझे वापिस नही मिलने वाला।
कबीर जी इस श्लोक मे यही समझना चाह्ते हैं कि इन उपलब्धियों व सफलताओ के कारण हम भले ही कुछ समय के लिए मौंज -मस्ती मनाते रहे और आनंदित होते रहे। लेकिन अंतत: हम अपनी इस नासमझी को एक दिन समझ ही लेगें अर्थात कबीर जी समझाना चाहते हैं कि यह शरीर हमे दुबारा नही मिलेगा,यह समय हमारे हाथ से निकलने के बाद दुबारा नही आएगा।अत: समय रहते ही उस परमात्मा की शरण मे चले जाना चाहिए।
2 टिप्पणियाँ:
कबीर वाणी आपके द्वारा सरल शब्दो मे मेरे लिये एक उपहार से कम नही
ब्लॉग जगत आपके इस अभिनव सत्कर्म से स्मृद्ध हो रहा है। आभार!
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