रविवार, 14 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४५

कबीर भार पराई सिरि चरै, चलिउ चाहै बाट॥
अपने भावहि ना डरै, आगै अऊघट घाट॥८९॥


कबीर जी कहते हैं कि हमारे ऊपर जो भार पराई निंदा करने के कारण चड़ता है , उस से बच पाना बहुत मुश्किल हैं।क्योंकि हरेक को पराई निंदा करने मे बड़ा रस आता है.....इस कारण वह उसे छोड़ नही पाता। वह यह जानते हुए भी कि यह निंदा करनी सही नही है, फिर भी उसी रास्ते पर चलता जाता है। निरन्तर इसी रास्ते पर चलते हुए एक दिन वह सही और गलत का फर्क भी भूल जाता है।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जब हम पराई निंदा मे रस लेने लगते हैं तो यह भूल जाते हैं कि इस निंदा के कारण हमारे भीतर भी वह बुराई घर करती जा रही है। जैसे कोई व्यक्ति जगह जगह में पड़ा कूड़ा बीनता रहे तो उस के पास कूड़ा ही एकत्र होता जाएगा। जिस कारण  उस की बुद्धि मलीन हो जाएगी, फिर वह ईश्वर को क्युँकर याद करेगा ? इसी बात की ओर  कबीर जी इशारा कर रहे हैं।


कबीर बन की दाधी लाकरी, ठाढी करै पुकार॥
मति बसि परऊ लुहार के, जारै दूजी बार॥९०॥


कबीर जी कहते है कि वन की अधजली लकड़ी जो जमीन के भीतर दबी पड़ी रहती है वह पुकारती रहती है, प्रभू से प्रार्थना करती रहती है कि मैं किसी लुहार के हाथ ना पड़ जाऊँ क्योकि वह मुझे दुबारा भट्टी मे झॊंक देगा।

कबीर जी इस श्लोक में पिछले श्लोक की अवस्था का प्रभाव बताते हुए हमे कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार जंगल की जली लकड़ी जमीन मे दबी रहने के बाद फिर कच्चे कोयले के रूप मे प्रकट हो जाती है और लौहार द्वारा पुन: जला दी जाती है, ठीक उसी तरह जो लोग पराई निंदा कर कर के मलीन हो चुके होते हैं उन्हें उसी मलीनता के ढेर मे फैंक दिया जाता है। अर्थात जिस तरह के भाव या बुद्धि हमारी होती है हम उसी ओर जाने को बाध्य हो जाते हैं।

3 टिप्पणियाँ:

Smart Indian ने कहा…

धन्यवाद!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

कबीर वाणी और उसके विश्लेषण के लिये साधुवाद

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan ने कहा…

मान्यवर
नमस्कार
बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप .
मेरे बधाई स्वीकारें

साभार
अवनीश सिंह चौहान
पूर्वाभास http://poorvabhas.blogspot.com/

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