मंगलवार, 28 जून 2011

कबीर के श्लोक - ७५

कबीर पानी हुआ त किआ भईआ सीरा ताता होइ॥
हरि जन ऐसा चाहिऐ जैसा हरि ही होइ॥१४९॥

कबीर जी कहते हैं कि लेकिन पानी होने से भी क्या होगा।इस मे भी एक दोष रहता है।यह ठंडा और गरम हो सकता है। अर्थात अपना स्वाभाव बदल सकता है।इस लिये हरि का भगत तो वही हो सकता है जो उस हरि जैसा ही होगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब तक कोई दोष अर्थात ऐसा कोई रास्ता बचता है जो भटका सकता है,तब तक मन मे ठहराव नही आता। मन का ठहराव तभी संभव है जब कोई और रास्ता शेष ना रहे। तभी हमारा मन उस परमात्मा के प्रति समर्पित हो सकता है।

ऊच भवन कनकामनी, सिखरि धजा फहराइ॥
ता ते भली मधूकरी , संतसंगि गुन गाइ॥१५०॥

कबीर जी ऊपर के श्लोकों में मन के टहराव का रास्ता बताने के बाद अब आगे धन से संबधित बातों के प्रति कहते है कि भले ही बड़े बड़े महल हो धन सम्पदा हो। महल के ऊपर झंडे लहरा रहे हो। इस से कोई फायदा नही होनेवाला।इस की बजाय यदि भीख में प्राप्त धन हो और मन उस परमात्मा के गुणों का गान करता हो तो यह भीख ही सुखकर व आनंद देने वाली हो सकती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि मन का ठहराव होना ही काफी नही है ।यदि मन ठहराव के बाद मन वैभव व धन की अभिलाषा करने लगे तो सब व्यर्थ है। ऐसे समय मे भले ही हमारे पास साधनों का अभाव हो, लेकिन हमारे पास संत लोगों का साथ है और उस परमात्मा की भक्ति है तो यह बहुत भली व उत्तम बात होगी।

3 टिप्पणियाँ:

Anita ने कहा…

मन का ठहरना ही असली बात है, कबीर वाणी को नमन !

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर विचार,

Smart Indian ने कहा…

बहुत सुन्दर! धन्यवाद!

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