सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

कबीर के श्लोक - ८७

कबीर संसा दूरि करु, कागद देह बिहाइ॥
बावन अखर सोधि कै, हरि चरनी चितु लाइ॥१७३॥

कबीर जी कह्ते हैं कि विधा के जरिए विचारवान बन कर तुम्हें सही रास्ता चुन लेना चाहिए और अपने मन की शंका को दूर करना चाहिए।ताकि संसारिक मोह माया से बचा जा सके और उस परम पिता परमात्मा के चरणों का ध्यान किया जा सके।

कबीर जी कहना चाहते है कि विधा प्राप्त जीव को अपनी विधा का सदुपयोग करना चाहिए।हमे विधा का प्रयोग अपने शरीरिक सुख और आनंद की प्राप्ती की जगह उस परम सुख को पाने मे लगाना चाहिए जो सदा स्थाई रहता है।

कबीर संत न छाडै संतई जौ कोटिक मिलहि असंत॥
मलिआगरु भुयंगम बेडिओ, त सीतलता न तजंत॥१७४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस प्रकार जो जीव विचारवान बन कर उस परमात्मा को पा लेते हैं ऐसे संत लोग फिर किसी के साथ भी रहे वे अपना रास्ता नही त्यागते।जिस प्रकार चदंन का वृक्ष हमेशा साँपों से घिरा रहने के बावजूद भी अपने भीतर की सीतलता और गुणों को नही छोड़ता।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब हम विचार पूर्वक उस परमात्मा की अहमियत को समझ कर उस परम पिता परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाते हैं तो संसारिक  कार्य करते  हुए भी हम परमात्मा के ध्यान को कभी नही त्यागते।अर्थात  कबीर जी कहना चाहते हैं कि एक बार उस परमात्मा के साथ जुड़ जानें के बाद जीव दुनियावी प्रलोभनों में कभी नही फँसता।




2 टिप्पणियाँ:

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सुन्दर कबीर जी के दोहे| धन्यवाद||

Amrita Tanmay ने कहा…

उत्तम पोस्ट..शुभकामना.

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