सोमवार, 28 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६३



कबीर चकई जौ निसि बीछुरै,आइ मिलै परभाति॥
जो नर बिछुरे राम सिउ,ना दिन मिले न राति॥१२५॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार चकवी रात को अपने साथी से बिछुड़ जाती है,लेकिन सवेरे पिर उस से आ कर मिलती है। इन दोनों के मिलन मे मात्र रात का अंधेरा ही बाधा बनता है जो चार पहर मात्र का होता है।लेकिन जो जीव उस परमात्मा से एक बार बिछुड़ जाता है, वह ना तो दिन को मिल पाता है और ना ही रात को।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि व्यवाहारिक रूप से जो हमारा मिलना बिछुड़ना होता है वह ज्यादा लम्बा नही होता। लेकिन परमात्मा से एक बार बिछुड़ने के बाद फिर से मिलना आसान नही होता।क्योकि उस से अलग होते ही हमारे भीतर अंहकार का जन्म हो जाता है जिस से छुटकारा पाना आसान नही होता।ये अंहकार हमे विषय -विकारों में उलझाता चला जाता है।


कबीर रैनाइर बिछोरिआ, रहु के संख मझूरि॥
देवल देवल धाहड़ी,देसहि उगवत सूर॥१२६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जिस प्रकार रात को समुद्र मे ज्वार- भाटा आने पर शंख लहरों के साथ बाहर आता है और रेत मे ही पड़ा रह जाता है, फिर कोई उसे उठा कर मंदिरों तक पहुँचा आता है जहाँ उसे बजाया जाता है।इस तरह वह समुद्र से, जहाँ वह जन्मता है, बिछुड़ जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि का आधार एकमात्र परमात्मा ही है उस से बिछुड़ कर ही जीव दुख पाने लगता है।अर्थात संसारिक मोह माया मे फँस जाता है।


सोमवार, 21 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६२

कबीर चुगै चितारै भी चुगै,चुगि चुगि चितारे॥
जैसे बचरहि कूंज, मन माइआ ममता रे॥१२३॥


कबीर जी कहते हैं कि जिस तरह पक्षी दाना चुगते समय अपने बच्चों के लिये भी दाना ले जाना है इस बात का सदा ध्यान लगाये रखते हैं ,ठीक उसी तरह जीव का ध्यान भी परमात्मा का नाम लेते समय हमेशा संसारी कार-विहार मे ध्यान  लगा रहता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम जब भी कोई कार्य करते हैं हमारा ध्यान भूत और वर्तमान मे या वर्तमान और भविष्य मे एक साथ बना रहता है।अर्थात परमात्मा का ध्यान करते समय हम भूत और भविष्य का चिंतन करते रहते हैं।


कबीर अंबर घनहरु छाइआ,बरखि भरे सर ताल॥
चात्रिक जिउ तरसत रहै,तिन को कौनु हवालु॥१२४॥


कबीर जी कहते हैं कि बादल आकाश मे छा जाता है और बरखा कर के सभी तालाब और सरोसरो को भर देता है।लेकिन चात्रिक पक्षी फिर भी बारिस की बूँद को तरसता रहता हैं और कूकता रहता है।क्यों कि उस का स्वाभाव है कि वह मात्र बारिश की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है।इस लिये वह सदा परेशान ही होता है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार चात्रिक पक्षी ताल और सरोवर भरे होने पर भी सिर्फ बारिश की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है ठीक उसी तरह जीव माया के प्रति ही आसक्त रहता है जबकि परमात्मा सब जगह मौजूद रहता है लेकिन वह उस स्थाई परमानंद को छोड़ कर क्षणिक सुखों के पीछे भागता रहता है।


सोमवार, 14 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६१

कबीर चरन कमल की मौज को,कहि कैसे उनमान॥
कहीबे कौ सोभा नही,देखा ही परवानु॥१२१॥


कबीर जी कहते हैं कि जो  उस परमात्मा के आथ एकाकार हो चुके हैं,उनके आनंद के बारे मे कुछ कहा नही जा सकता।क्योंकि उस आनंद के बारे में कहने से किसी को कुछ भी पता नही चल सकता।इस आनंद के बारे में तो तभी जाना जा सकता है जब कोई उसी अवस्था मे पहुँचता है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि मात्र किसी बात को सुनने से या जान लेने से कोई लाभ नही मिलता। यदि उस बारे में जानना है तो उसके लिये स्वयं का अनुभव होना जरूरी है।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि उस परमानंद को पाना है तो उस मे स्वय्म को खोना ही पड़ेगा। तभी हम उस को जान सकेगें।


कबीर देखि कै किह कहौ, कहे न को पतीआऐ॥
हरि जैसा तैसा उही, कहु हरखि गुन गाऐ॥१२२॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि जब भी कोई उसे जान लेता है तो उसके बारे में ठीक से कभी कह नही पाता।क्योकि उस परमात्मा के समान कुछ है ही नही जिसका सहारा लेकर उस बारे में समझाया जा सके।परमात्मा जैसा तो सिर्फ परमात्मा ही है।इस लिये हम तो मात्र उस की महीमा को ही गा सकते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को जानने वाले भक्त भी उसके बारे मे मात्र इशारा भर कर सकते हैं।उसकी महीमा गा सकते हैं। लेकिन किसी को भी उस का अनुभव नही करा सकते।




सोमवार, 7 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६०




कबीर नैन निहारौ तुझ कऊ, स्रवन सुनौ तुअ नाउ॥
बैन ऊचरऊ तुअ नाम जी,चरन कमल रिद ठाउ॥११९॥

कबीर जी कहते हैं कि जब परमात्मा का निवास हमारा ह्र्दय मे हो जाता है तो हमारी ये आँखे हर जगह उसे ही निहारने लगती है और हमारे कान बस उसी का नाम ही सुनने लगते हैं। तब परमात्मा का नाम ही मुँह से निकलता है।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि जब कोई परमात्मा के साथ जुड़ जाता है,एकाकार हो जाता है। तब उस जीव द्वारा किये गये सभी कार्य ईश्वरमय ही हो जाते हैं। वह जो भी कार्य करता है या बोलता है,उसमें उस परमात्मा की झलक मौजूद रहती है।

कबीर सुरग नरक ते मैं रहिउ , सतिगुर के परसादि॥
चरन कमल की मौज महि, रहौ अंति अरु आदि॥१२०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि परमात्मा के ह्र्दय मे बसने के बाद  स्वर्ग और नरक की समस्या भी नही रहती और यह सब उस परमात्मा की कृपा से ही होता है। उस परमात्मा के साथ एकाकार होने के बाद जीव सदा के लिए परमानंद की मस्ती मे डूबा रहता है। ऐसे में उसे कोई चिंता नही सताती।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि यह सब हमारे यत्न के कारण नही होता बल्कि परमात्मा की कृपा के कारण ही हम उस से एकाकार हो पाते हैं । इस तरह हमारे मन से स्वर्ग और नरक का भय भी समाप्त हो जाता है जोकि हमारे अपने मन की ही उपज होता है।परमात्मा के साथ जुड़ा जीव चिंता रहित जीवन जीता है।