बुधवार, 20 जून 2012

कबीर के श्लोक - १०४

कबीर घाणी पीड़ते, सतिगुर लिए छडाइ॥
परा पूरबली भावनी, परगटु होइ आइ॥२०७॥

कबीर जी कहते हैं कि लोग विषय -विकारों में इस तरह पीसे जा  रहे हैं जैसे कोल्हू में तिल पीसे जाते हैं।लेकिन जो परमात्मा की शरण मे चले गये हैं उन्हें परमात्मा अपनी कृपा से बचा लेता है।क्योकि जन्म से पहले जब हम ईश्वर के साथ एकाकार थे उस समय का आभास हमारे भीतर परमात्मा का चिन्तन करने से स्वयं ही प्रगट हो जाता हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि भले ही संसार मे आ कर हम विषय-विकारों में फँस जाते हैं लेकिन हमारे भीतर परमात्मा सदा मौजूद रहता है।हमें तो सिर्फ उस का ध्यान करने की जरूरत है वह हमारे भीतर फिर से प्रगट हो जाता है।अर्थात परमात्मा का ध्यान सभी विषय -विकारों से बचा लेता है।

कबीर टालै टोलै दिनु गईआ, बिआजु बढतऊ जाइ॥
 न हरि भजिउ न खतु फटिउ, कालु पहूँचो आइ॥२०८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो परमात्मा की शरण में जाने से टाल-मटोल करते रहते हैं। लेकिन वे नही जानते कि उनके ऐसा करने से ब्याज बढता ही जाता है। ऐसे लोगो का बही खाता बढता ही जाता है और उनकी मृत्यू का समय भी आ जाता है लेकिन वे सचेत नही होते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि विषय -विकारों के पीछे लग कर लोग परमात्मा के ध्यान करने को टालते रहते हैं । वे सोचते हैं कि अभी तो मौज-मस्ती कर ली जाये । जब समय आयेगा तब उस परमात्मा का भजन कर लेगें, लेकिन वे नही जानते कि उन के इस तरह करने से विषय-विकार उन पर और भी अधिक हावी होते जाते हैं। जिस कारण उन से बचना और भी अधिक कठिन हो जाता है।फिर हम इन विकारों में फँस इसके इतने आदि हो जाते हैं कि हम उन्ही मे उलझे रहते हैं और मृत्यू का समय हमारे सामने आ जाता है।इसी लिये कबीर जी हमे सचेत कर रहे हैं।


1 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

विनम्र निवेदन है कि "श्लोक" संस्कृत काव्य का एक विशिष्ट छन्द है।
हिन्दी में श्लोक नहीं होते हैं। कबीर ने "साखी"लिखी है,जिन्हें कभी कभी लोग "दोहा" कह देते हैं। कबीर की "साखी"को "श्लोक" कहना छन्दशास्त्र
के नियमों के विरुद्ध है।
कबीर की सधुक्खड़ी भाषा की "साखी" का सरल हिन्दी में अर्थ देना सामान्य पाठक के लिये उपयोगी प्रयास है।तदर्थ साधुवाद!

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