शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

कबीर के श्लोक - १०७

नामा कहै तिलोचना मुख ते राम संम्हालि॥
हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि॥२१३॥

कबीर जी कहते हैं कि नामा जी त्रिलोचन को जवाब देते हैं कि मुँह से राम नाम को बोलते हुए उस का ध्यान कर के और हाथ-पाँव से अपनी रोटी-रोजी के लिए कार्य करके उस परमात्मा को मैं सदा अपने चित मे रखता हूँ।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि भक्त भले ही संसारिक कार्यो मे उलझे हुए लगते हो लेकिन वास्तव में उन का ध्यान सभी कार-विहार करते हुए भी उस परमात्मा में ही लगा रहता है। यहाँ कबीर जी हमे भी संकेत द्वारा कहना चाहते हैं कि हमे परमात्मा की प्राप्ती के लिये संसार छोड़ कर कहीं भागने की जरूरत नही हैं बल्कि संसार के कार-विहार करते हुए उस परमात्मा के ध्यान मे डूबा रहना है। सभी भक्तों ने ऐसा ही किया है।

महला ५॥ कबीरा हमरा को नही, हम किस  हू के नाहि॥
जिनि इहु रचन रचाइआ, तिस ही माहि समाहि॥२१४॥

(यह श्लोक गुरु अरजन देव जी का है)वे कहते हैं कि हे कबीर! जिस परमात्मा ने यह सब रचना रची है हम तो उसी की याद में लगे रहते हैं,क्यूँकि ना तो हमारा कोई सदा के लिये साथी हो सकता है और ना ही हम सदा किसी के लिये साथी हो सकते हैं।

गुरु जी इस श्लोक में उपरोक्त श्लोक के संदर्भ में कहना चाहते हैं कि यदि जीव को इस सत्य का आभास हो जाये कि इस संसार मे कोई भी किसी का नही हो सकता।अर्थात वे कहना चाहते हैं कि भले ही ऊपरी तौर पर हम एक दूसरे के मित्र नजर आते हैं लेकिन एक व्यक्ति किसी दूसरे की शारिरिक व मानसिक पीड़ा को सांत्वना तो दे सकता है लेकिन कम नही कर सकता। इसी लिये गुरु जी कहते हैं कि ना तो कोई हमारा है और ना ही हम किसी के हो सकते हैं।हमे तो अंतत: उसी मे समाना है जिस ने यह सारी रचना इस प्रकार बनाई है।

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