कबीर जऊ तुहि साध पिरंम की , सीसु काटि करि गोइ॥
खेलत खेलत हाल करि, जोकिछु होइ त होइ॥२३९॥
कबीर जी कहते हैं कि यदि तुझे परमात्मा पाने की अभिलाषा है तो अपना सिर काट कर गेंद बना ले और खेलता खेलता इतना मस्त हो जा, कि कुछ होता हो होने दे।उसकी जरा भी परवाह मत कर।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को तभी पाया जा सकता है जब सिर काट कर गेंद बना ली जाये अर्थात अपना अंहकार छोड़ दिया जाये।फिर अंहकार रहित हो कर अपने सभी काम करे अर्थात दुनियादारी को निभाये और दुनियादारी निभाते समय इस बात की जरा भी परवाह ना करें की कोई उसके साथ कैसा सलूक कर रहा है।तभी उस परमात्मा को पाया जा सकता है।
कबीर जऊ तुहि साध पिरंम की, पाके सेती खेलु॥
कबीर जी कहते हैं कि यदि तुझे परमात्मा पाने की अभिलाषा है तो अपना सिर काट कर गेंद बना ले और खेलता खेलता इतना मस्त हो जा, कि कुछ होता हो होने दे।उसकी जरा भी परवाह मत कर।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को तभी पाया जा सकता है जब सिर काट कर गेंद बना ली जाये अर्थात अपना अंहकार छोड़ दिया जाये।फिर अंहकार रहित हो कर अपने सभी काम करे अर्थात दुनियादारी को निभाये और दुनियादारी निभाते समय इस बात की जरा भी परवाह ना करें की कोई उसके साथ कैसा सलूक कर रहा है।तभी उस परमात्मा को पाया जा सकता है।
कबीर जऊ तुहि साध पिरंम की, पाके सेती खेलु॥
काची सरसऊं पेलि कै, ना खलि भई न तेलु॥२४०॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि यदि तुझे परमात्मा पाने की चाह है तो उसके साथ खेल जो पक चुका है।क्योकि कच्ची सरसों को कोल्हू में पेलने से ना तो तेल निकलता है और ना ही उसकी खल बनती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि परमात्मा पानें की अभिलाषा है तो ऐसे सतगुरु की शरण मे जाओ जो उसे पा चुका हो। क्योकि जिसने स्वयं ही ना पाया हो वह तुम्हारा गुरु बन कर तुम्हें कोई लाभ नही दे सकता।कबीर जी ये बात इस लिये कह रहे हैं कि जीव का स्वभाव होता है कि वह मशहूर गुरु के प्रति और दिखावा करने वाले के प्रति बहुत जल्दी आकर्षित हो जाता है या कर्म कांडी ब्राह्मण को ही गुरु मान लेता है।ऐसा करने कि बजाय ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो उस परमात्मा को पा चुका हो।भले ही वो देखने मे वह आम आदमी ही क्यो ना लगता हो।
कबीर जी आगे कहते हैं कि यदि तुझे परमात्मा पाने की चाह है तो उसके साथ खेल जो पक चुका है।क्योकि कच्ची सरसों को कोल्हू में पेलने से ना तो तेल निकलता है और ना ही उसकी खल बनती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि परमात्मा पानें की अभिलाषा है तो ऐसे सतगुरु की शरण मे जाओ जो उसे पा चुका हो। क्योकि जिसने स्वयं ही ना पाया हो वह तुम्हारा गुरु बन कर तुम्हें कोई लाभ नही दे सकता।कबीर जी ये बात इस लिये कह रहे हैं कि जीव का स्वभाव होता है कि वह मशहूर गुरु के प्रति और दिखावा करने वाले के प्रति बहुत जल्दी आकर्षित हो जाता है या कर्म कांडी ब्राह्मण को ही गुरु मान लेता है।ऐसा करने कि बजाय ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो उस परमात्मा को पा चुका हो।भले ही वो देखने मे वह आम आदमी ही क्यो ना लगता हो।
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