कबीर चंदन का बिरवा भला, बेड़िउ ढाक पलास॥
उइ भी चंदन होइ रहे,बसे जु चंदन पासि॥११॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि चंदन का एक छोटा-सा पौधा भी अपने गुणो के कारण उपयोगी होता है भले ही वह ढाक और पलास जैसे पेड़ -पौधों से घिरा हुआ हो।क्योकि चंदन के पास रहने के कारण वे पेड़ -पौधे भी चंदन के गुणो को ग्रहण करने लगते हैं जिस कारण उन आस -पास के पौधो की उपयोगिता भी बड़ जाती है।
इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि गुणी व्यक्ति अर्थात अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे जो लोग भी आते हैं वे अपने अपने स्वाभावो अनुसार उस गुणी व्यक्ति के गुणों को ग्रहण करने लगते हैं। जिस कारण वे भी एक दिन उसी के समान हो जाते हैं।अर्थात दूसरो के गुणो को ग्रहण करने वाले (दुसरो के गुणो को वही ग्रहण करता है जिस के भीतर नम्रता होती है) अच्छी संगत मे रहने के कारण हमेशा अच्छे गुणो को आत्मसात कर लेते हैं।
कबीर बांसु बडाई बूडिआ,इउ मत डूबहु कोइ॥
चंदन कै निकटे बसै,बांसु सुगंधु न होइ॥१२॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि दुसरी ओर बास का पौधा भी है जो अपनी लम्बाई के कारण अंहकार मे डूबा हुआ है।भले ही वह भी चंदन के पास ही रहता है लेकिन फिर भी अपने ग्राही गुणो के अभाव के कारण,चंदन के गूणो को आत्मसात नही करता।कबीर जी कहते है कि हमे इस बास की तरह नही होना चाहिए।
कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि यदि हमारे अंदर नम्रता है, दुसरो के आगे झुक कर,अंहकार रहित लोगो के संपर्क मे रह कर,उन के गुणो को आत्मसात करने की प्रवृति है तो हम लाभ उठा सकते हैं लेकिन यदि हमारा स्वाभाव अंहकार से भरा है तो हम अपने अंह्कार के कारण किसी के आगे नही झुकेगे और ना ही किसी दुसरे के अच्छे गुणो को ग्रहण ही करेगे।क्योकि अंहकारी व्यक्ति स्वयं को ही सब कुछ मानता है,वह ऐसे किसी गुण को भी ग्रहण नही करता जो उस के अंहकार पर चोट करता हो।इस लिए कबीर जी हमे कहना चाहते है कि अंहकारी लोग भले ही किसी अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे रहते हो,लेकिन वे उन के गुणो को कभी गृहण नही करते।
उइ भी चंदन होइ रहे,बसे जु चंदन पासि॥११॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि चंदन का एक छोटा-सा पौधा भी अपने गुणो के कारण उपयोगी होता है भले ही वह ढाक और पलास जैसे पेड़ -पौधों से घिरा हुआ हो।क्योकि चंदन के पास रहने के कारण वे पेड़ -पौधे भी चंदन के गुणो को ग्रहण करने लगते हैं जिस कारण उन आस -पास के पौधो की उपयोगिता भी बड़ जाती है।
इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि गुणी व्यक्ति अर्थात अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे जो लोग भी आते हैं वे अपने अपने स्वाभावो अनुसार उस गुणी व्यक्ति के गुणों को ग्रहण करने लगते हैं। जिस कारण वे भी एक दिन उसी के समान हो जाते हैं।अर्थात दूसरो के गुणो को ग्रहण करने वाले (दुसरो के गुणो को वही ग्रहण करता है जिस के भीतर नम्रता होती है) अच्छी संगत मे रहने के कारण हमेशा अच्छे गुणो को आत्मसात कर लेते हैं।
कबीर बांसु बडाई बूडिआ,इउ मत डूबहु कोइ॥
चंदन कै निकटे बसै,बांसु सुगंधु न होइ॥१२॥
कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि दुसरी ओर बास का पौधा भी है जो अपनी लम्बाई के कारण अंहकार मे डूबा हुआ है।भले ही वह भी चंदन के पास ही रहता है लेकिन फिर भी अपने ग्राही गुणो के अभाव के कारण,चंदन के गूणो को आत्मसात नही करता।कबीर जी कहते है कि हमे इस बास की तरह नही होना चाहिए।
कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि यदि हमारे अंदर नम्रता है, दुसरो के आगे झुक कर,अंहकार रहित लोगो के संपर्क मे रह कर,उन के गुणो को आत्मसात करने की प्रवृति है तो हम लाभ उठा सकते हैं लेकिन यदि हमारा स्वाभाव अंहकार से भरा है तो हम अपने अंह्कार के कारण किसी के आगे नही झुकेगे और ना ही किसी दुसरे के अच्छे गुणो को ग्रहण ही करेगे।क्योकि अंहकारी व्यक्ति स्वयं को ही सब कुछ मानता है,वह ऐसे किसी गुण को भी ग्रहण नही करता जो उस के अंहकार पर चोट करता हो।इस लिए कबीर जी हमे कहना चाहते है कि अंहकारी लोग भले ही किसी अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे रहते हो,लेकिन वे उन के गुणो को कभी गृहण नही करते।
1 टिप्पणियाँ:
सत्य सुन्दर वचन अहंकार ही तो सब दुखों की जड है इस वाणी को प्रस्तुत करने के लिये आभार्
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