सोमवार, 15 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १३

कबीर प्रीति इक सिउ कीऐ, आन दुबिधा जाइ॥
भावै लांबे केस करु, भावै घररि मुडाइ॥२५॥


कबीर जी कहते है कि जब तक उस एक परमात्मा से हमारा संबध नही बन जाता, तब तक संसारी परेशानीयों से, मान अपमान से,नही बचा जा सकता। किसी मजहब या मान्यता का दिखावा मात्र कर लेने से उस परमात्मा की कृपा नही मिल जाती।

इस श्लोक मे कबीर जी उन लोगो के बारे मे कहना चाहते है कि जो लोग लम्बी जटाए या केस रख कर या मुडंन करा कर यह दिखाने की कोशिश करते है कि वे परमात्मा की शरण मे जा चुके हैं। वे साधु महात्मा है। ऐसे लोगो का विरोध करते हुए कबीर जी कह रहे है कि जब तक उस एक परमात्मा से संबध ना जुड़ जाए तब तक कोई संसारी परेशानियों से,दुखो से, छुटकारा नही पा सकता।जैसे बहुत से लोग ऐसा वेश बना कर जंगल आश्रमो मे जा कर बैठ जाते हैं लेकिन वहाँ भी वे लोग सुखी नही हो पाते।क्योकि बिना मन को बदले बिना उस परमात्मा से जुड़े परेशानीयों चिंताओ से मुक्त नही हुआ जा सकता।इसी लिए कबी जी कहते है की यदि इन सभी परेशानियो से मुक्ति चाहता है तो उस एक परमात्मा के साथ प्रीत कर। इन परेशानियो से बचने का यही एक रास्ता है।

कबीर जगु काजल की कोठरी, अंध परे तिस माहि॥
हउ बलिहारी तिन कउ, पैसि जु नीकसि जाहि॥२६॥


कबीर जी कहते है कि यह संसार एक काजल की कोठरी के समान है जिस मे अंधे लोग फँस जाते है। क्योकि उन्हें इस कोठरी की कालिमा दिखाई नही पड़ती।मै तो उन के बलिहारी जाता हूँ जो इस काजल की कोठरी से बाहर निकल जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यह संसार विषय विकारों से,प्रलोभनों से भरा पड़ा है। इस मे वे अंधे लोग गिर जाते है जिन के पास प्रभु नाम की ज्योति नही है। लेकिन इन से भी ज्यादा वे लोग धन्य हैं जो इस मोह माया में फँसने के बाद भी उस प्रभु का सहारा ले कर बाहर आ जाते हैं। वास्तव मे संसारी सुखो को भोगने के बाद त्यागना बहुत कठिन होता है। इन्हे इंसान तभी छोड़ता है जब या तो यह उस की पहुँच से बाहर हो जाए या वह इन संसारी सुखो की निस्सारता को पहचान ले। यह पहचान तभी हो पाती है जब वह उस परमात्मा से संबध जोड़ लेता है।

3 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया..आभार !

अजय कुमार ने कहा…

व्याख्या सहित कबीर के दोहों की सुंदर प्रस्तुति

निर्मला कपिला ने कहा…

जीवन को सफल बनाने वाले सूत्र। बहुत बहुत धन्यवाद बाली जी। भार्तीय नव वर्ष की मंगलकामनायें

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