शुक्रवार, 7 मई 2010

कबीर के श्लोक -२०

कबीर गरबु न कीजीए, रंकु न हसीऐ कोइ॥
अजहु सु नाउ समुंद्र महि, किआ जानऊ किआ होइ॥३९॥

कबीर जी पिछले श्लोको की तरह इस श्लोक मे भी गर्व करने का एक कारण और बता रहे हैं। वे कहते हैं कि जो लोग धनवान हो जाते है उन लोगो को गरीब इन्सान की दयनीय स्थिति को देख कर हँसना नही चाहिए।उन्हे इस बात का अंहकार नही करना चाहिए कि वे धनवान हैं। क्योकि जिन के पास आज भले ही धन संपत्ति है, लेकिन यह निश्चित नही है कि भविष्य मे भी वे इसी तरह धन संपत्ति के स्वामी बनें रहेगें। यह बात कोई नही जानता कि हम कब धनी और कब निर्धन बन जाएगें।

कबीर जी कहना चाहते है कि अपनी धन संपत्ति के अंहकार मे डूब कर हमें गरीब लोगों की दयनीय स्थिति का मजाक नही उड़ाना चाहिए। क्योकि यह धन भी तो  नाशवान है,यह जरूरी नही कि यह हमेशा इसी तरह बना रहेगा।भविष्य को कोई नही जानता।वास्तव मे कबीर जी हमे धन संपत्ति के कारण दुसरो को छोटा समझने की हमारी प्रवृति से हमे मुक्त करने की बात कर रहे हैं।
                   
कबीर गरबु न कीजीए, देही देखि सुरंग॥
आजु कालि तजि जाहुगे, जिउ कांचुरी भुयंग॥४०॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढाते हुए कहते हैं कि अपने सुन्दर रंग रूप को देख कर हमे उस पर अभिमान नही करना चाहिए। वे कहते है कि जिस प्रकार साँप अपनी कैंचुरी को समय आने पर त्याग देता है या कहे उसे त्यागनी पड़ती है। उसी प्रकार समय बीतने पर हमारा यह रंग रूप नष्ट होता जाता है। इस लिए इस पर अभिमान नही करना चाहिए।

वास्तव मे कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम लोग किसी भी प्रकार की अपनी विषेशता को लेकर अंहकार से भर जाते हैं। लेकिन यह भुल जाते हैं कि हरेक वस्तु , हरेक पदार्थ परिवर्तनशील है, नाशवान है। हमारा यह सुन्दर रंग रूप भी सदा नही रहता।साँप का उदाहरण देते हुए कबीर जी समझाते है कि साँप जिस प्रकार अपनी सुन्दर कैंचुरी को छोड़ देता है, उसी तरह हमारा शरीर भी अपनी सुन्दरता को छोड़ देगा।अत: इस पर गर्व नही करना चाहिए।

1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सही, परमजीत भाई!

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