कबीर थोरै जलि माछुली, झीवरि मेलिउ जालु॥
ऐह टोंघनै न छूटसहि, फिरि करि समुंदु समालि॥४९॥
कबीर जी कहते है कि यदि मच्छ्ली उस जगह पर है जहाँ पानी कम है तो वह ऐसी जगह पर आसानी से मछुआरे के जाल मे फँस जाती है। इसी लिए मच्छली को माध्यम बना कर कबीर जी हम से कहना चाहते हैं कि मच्छ्ली तू छोटे खड्डो मे रहना छोड़ कर समुंद्र की ओर ध्यान दे।
कबीर जी हमे यहाँ सांकेतिक भाषा मे कहना चाहते है कि जब मच्छ्ली अर्थात जीवात्मा थोड़े जल के आसरे होती है तो वह जाल मे अर्थात संसारी मोह मायादि मे आसानी से फँस जाती है। लेकिन यदि यह मच्छली अर्थात जीवात्मा समुद मे हो तो वहाँ यह आसानी से मछुआरे के जाल मे नही फँसती अर्थात मोह मायादि का शिकार नही हो पाती।अर्थात माया मे रमने की बजाय उस परमात्मा मे रमण करने की बात समझाना चाहते हैं।
कबीर समुंदु न छोडिऐ, जउ अति खारो होइ॥
पोखरि पोखरि ढूढते, भले न कहि है कोइ॥५०॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि हमे वह समुंद्र को नही छोड़ना चाहिए। भले ही उसमे कितना ही खारापन क्यों ना हो। क्योकि यदि हम समुंद्र छोड़ कर पोखरों को खोजने मे लगेगें तो हम नासमझ ही कहलाएगें।
कबीर जी यहाँ कहना चाहते है कि हमे उस समुंद्र रूपी परमात्मा को कभी नही छोड़ना चाहिए। भले ही समुंद्र खारा हो अर्थात उस परमात्मा को पाने में हमे कष्ट ही क्यों ना उठाने पढ़े। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम परमात्मा की तरफ रूख करते है तो हमारे जीवन मे कई तरह के व्यवधान, रूकावटे आने लगती है। हमारा अंहम मरने लगता है ।जिस कारण मन को बहुत भय होने लगता है। इसी लिए कबीर जी समुंद्र रूपी परमात्मा को खारा कह रहे है। लेकिन साथ ही हमे कह रहे हैं इन बातों से घबरा कर हमे संसार के क्षणिक सुखों के प्रलोभनों के लिए अर्थात पोखरों की चाह मे इस समुंद्र रूपी परमात्मा को छोड़ना नही चाहिए।
ऐह टोंघनै न छूटसहि, फिरि करि समुंदु समालि॥४९॥
कबीर जी कहते है कि यदि मच्छ्ली उस जगह पर है जहाँ पानी कम है तो वह ऐसी जगह पर आसानी से मछुआरे के जाल मे फँस जाती है। इसी लिए मच्छली को माध्यम बना कर कबीर जी हम से कहना चाहते हैं कि मच्छ्ली तू छोटे खड्डो मे रहना छोड़ कर समुंद्र की ओर ध्यान दे।
कबीर जी हमे यहाँ सांकेतिक भाषा मे कहना चाहते है कि जब मच्छ्ली अर्थात जीवात्मा थोड़े जल के आसरे होती है तो वह जाल मे अर्थात संसारी मोह मायादि मे आसानी से फँस जाती है। लेकिन यदि यह मच्छली अर्थात जीवात्मा समुद मे हो तो वहाँ यह आसानी से मछुआरे के जाल मे नही फँसती अर्थात मोह मायादि का शिकार नही हो पाती।अर्थात माया मे रमने की बजाय उस परमात्मा मे रमण करने की बात समझाना चाहते हैं।
कबीर समुंदु न छोडिऐ, जउ अति खारो होइ॥
पोखरि पोखरि ढूढते, भले न कहि है कोइ॥५०॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि हमे वह समुंद्र को नही छोड़ना चाहिए। भले ही उसमे कितना ही खारापन क्यों ना हो। क्योकि यदि हम समुंद्र छोड़ कर पोखरों को खोजने मे लगेगें तो हम नासमझ ही कहलाएगें।
कबीर जी यहाँ कहना चाहते है कि हमे उस समुंद्र रूपी परमात्मा को कभी नही छोड़ना चाहिए। भले ही समुंद्र खारा हो अर्थात उस परमात्मा को पाने में हमे कष्ट ही क्यों ना उठाने पढ़े। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम परमात्मा की तरफ रूख करते है तो हमारे जीवन मे कई तरह के व्यवधान, रूकावटे आने लगती है। हमारा अंहम मरने लगता है ।जिस कारण मन को बहुत भय होने लगता है। इसी लिए कबीर जी समुंद्र रूपी परमात्मा को खारा कह रहे है। लेकिन साथ ही हमे कह रहे हैं इन बातों से घबरा कर हमे संसार के क्षणिक सुखों के प्रलोभनों के लिए अर्थात पोखरों की चाह मे इस समुंद्र रूपी परमात्मा को छोड़ना नही चाहिए।
7 टिप्पणियाँ:
उम्दा व्याख्या !
... बहुत बहुत आभार !!!
बहुत सही.... अच्छा लगा....
सही व्याख्या , खारेपन से मन का घबराना , नासमझ कहाँ जानता है कि मन ही गुमराह कर रहा है ॥
आपने मेरी पोस्ट 'वक़्त से हाथ मिला लिया ' को अपने ब्लॉग में कहाँ लिंक किया हुआ है ? देख नहीं पा रही ...
blog khulne me bahut vakt le rahaa hai ...
बहुत ही बढ़िया, लेकिन आम आदमी तो उथले पानी को ही सबकुछ समझ लेता है..
इतनी सरल व्याखया . बचपन मे अगर कोई एसा शिक्षक मिल जाता तो हिन्दी पढने से डर नही लगता
बहुत अच्छी व्याख्या बहुत दिन से कई कुछ अच्छा नही पढ पाई थी धन्यवाद।
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