कबीर मुहि मरने का चाउ है, मरऊ त हरि कै दुआर॥
मत हरि पूछै कऊनु है परा हमारै बार॥६१॥
कबीर जी कहते है कि मुझे मरने की इच्छा है कि मैं उस परमात्मा के द्वार पर मर जाँऊ।लेकिन आगे वे अपनी शंका जताते हुए कहते हैं कि कहीं मुझे अपने द्वार पर पड़ा देख कर परमात्मा यह तो नही पूछेगा कि यह कौन है जो मेरे द्वार पर पड़ा है।
कबीर जी भगत के मन में उठने वाले भाव को समझाना चाहते कि जब परमात्मा का प्यारा परमात्मा के प्रति पूर्णता से समर्पण की भावना लाता है अर्थात हरि के द्वार पर मरने की चाह करता है, तो मन मे इस तरह के भाव उठने लगते हैं। कि मेरे पूर्ण समर्पण के बाद हरि क्या मुझे स्वीकार लेगें ?वास्तव मे ऐसे भाव हमारे मन मे आते ही तभी हैं जब हम यह समझते है कि यह सब हम कर रहे हैं। इसी बात की ओर कबीर जी इंगित कर रहे हैं।
कबीर ना हम कीआ न करहिगे, ना करि सकै सरीरु॥
किआ जानऊ किछु हरि कीआ, भईउ कबीर कबीर॥६२॥
कबीर जी इस श्लोक मे पिछले श्लोक मे उठाई शंका का समाधान हमे बता रहे हैं कि वास्तव में हम तो कुछ करते ही नही। ना ही हम कुछ कर सकते है। ना ही हमारे शरीर मे इतनी सामर्थता है कि वह कुछ कर सकेगा। हम तो कुछ जानते ही नही क्योकि जो कुछ भी किया है वह परमात्मा ही कर सकता है जिस कारण लोग कबीर को पहचानने लगे हैं।
कबीर जी पिछले श्लोक मे उठाई शंका के निवारणार्थ हमे समझाते हुए कह रहे हैं कि परमात्मा के स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न ही नही उठता। क्योकि हमने कुछ किया ही नही है और ना ही हम कुछ करने मे कभी समर्थ ही हो सकते हैं। हम तो इस बारे मे कुछ जानते ही नही,जो कुछ कर रहा है वह तो परमात्मा ही करता है। इस लिए स्वीकारना या अस्वीकारना उसी के हाथ मे हैं। यह जो हमे सम्मान या प्रभु का प्रेम मिलता है यह तभी मिलता है जब वह परमात्मा हम पर कृपा करता है।
मत हरि पूछै कऊनु है परा हमारै बार॥६१॥
कबीर जी कहते है कि मुझे मरने की इच्छा है कि मैं उस परमात्मा के द्वार पर मर जाँऊ।लेकिन आगे वे अपनी शंका जताते हुए कहते हैं कि कहीं मुझे अपने द्वार पर पड़ा देख कर परमात्मा यह तो नही पूछेगा कि यह कौन है जो मेरे द्वार पर पड़ा है।
कबीर जी भगत के मन में उठने वाले भाव को समझाना चाहते कि जब परमात्मा का प्यारा परमात्मा के प्रति पूर्णता से समर्पण की भावना लाता है अर्थात हरि के द्वार पर मरने की चाह करता है, तो मन मे इस तरह के भाव उठने लगते हैं। कि मेरे पूर्ण समर्पण के बाद हरि क्या मुझे स्वीकार लेगें ?वास्तव मे ऐसे भाव हमारे मन मे आते ही तभी हैं जब हम यह समझते है कि यह सब हम कर रहे हैं। इसी बात की ओर कबीर जी इंगित कर रहे हैं।
कबीर ना हम कीआ न करहिगे, ना करि सकै सरीरु॥
किआ जानऊ किछु हरि कीआ, भईउ कबीर कबीर॥६२॥
कबीर जी इस श्लोक मे पिछले श्लोक मे उठाई शंका का समाधान हमे बता रहे हैं कि वास्तव में हम तो कुछ करते ही नही। ना ही हम कुछ कर सकते है। ना ही हमारे शरीर मे इतनी सामर्थता है कि वह कुछ कर सकेगा। हम तो कुछ जानते ही नही क्योकि जो कुछ भी किया है वह परमात्मा ही कर सकता है जिस कारण लोग कबीर को पहचानने लगे हैं।
कबीर जी पिछले श्लोक मे उठाई शंका के निवारणार्थ हमे समझाते हुए कह रहे हैं कि परमात्मा के स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न ही नही उठता। क्योकि हमने कुछ किया ही नही है और ना ही हम कुछ करने मे कभी समर्थ ही हो सकते हैं। हम तो इस बारे मे कुछ जानते ही नही,जो कुछ कर रहा है वह तो परमात्मा ही करता है। इस लिए स्वीकारना या अस्वीकारना उसी के हाथ मे हैं। यह जो हमे सम्मान या प्रभु का प्रेम मिलता है यह तभी मिलता है जब वह परमात्मा हम पर कृपा करता है।
3 टिप्पणियाँ:
कबीर जी की वाणी में सचमुच जीवन का सार भरा है।
…………..
पाँच मुँह वाला नाग?
साइंस ब्लॉगिंग पर 5 दिवसीय कार्यशाला।
अच्छा लगा
साधुवाद.
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