शनिवार, 14 अगस्त 2010

कबीर के श्लोक -३३

कबीर महिदी करि घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥
तै सह बात न पूछीऐ ,कबहु न लाई पाइ॥६५॥

कबीर जी कहते हैं कि मैं तो मेंहदी को पीस पीस कर  तैयार करता रहा ,लेकिन हे प्रभु , तूने तो कभी मुझ से पूछा ही नही, कि जिस मेंहदी को इतनी मेहनत से तैयार करता रहा वह परमात्मा ने अपने पाँव मे क्यो लगाई ही नही।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीवन भर जो काम हम इतनी मेहनत से करते रहे हैं, इन्ही कामो के पीछे दोड़ते भागते हमारा सारा समय बीतता गया। हम परमात्मा के लिए तप,व्रत, प्रार्थना आदि जैसे कामों को जीवन भर करते रहे हैं। लेकिन हमारे इन सभी कामो को करने के बाद भी तूने हमारी ओर ध्यान नही दिया। यह सब तो ठीक ऐसे ही है जैसे मेंहदी को बहुत मेहनत से पीस पीस कर पहले तैयार कर ले और जिस के लिए यह सब किया गया हो, वह हम से कुछ पूछे ही नही कि क्यो ये सारी मेहनत की है और इसे अपने पैरो मे ना लगाए। अर्थात कबीर जी हमे यह समझाना चाहते हैं कि हम जो भी जीवन भर धर्म-कर्म करते हैं , उसे स्वीकारना या अस्वीकारना प्रभु की मर्जी पर ही निर्भर करता है। जब हम ऐसा विचार कर धर्म कर्म करेगें तो हमारे कर्म करने की प्रवृति निष्कामता की ओर बढ़ेगी।

कबीर जिह दरि आवत जातिअहु, हटकै नाही कोइ॥
सो दरु कैसे छोडीऐ, जो दरु ऐसा होइ॥६६॥

कबीर जी कहते है कि जिस द्वार पर आने जाने में किसी प्रकार की रोक टोक नही होती,यदि कहीं कोई ऐसा द्वार मिल जाए तो  ऐसा द्वार कौन छोड़ सकता है।

कबीर जी हमसे कहना चाहते हैं कि परमात्मा की शरण मे जाने के लिए उस के द्वार सदा सभी के लिए खुले ही रहते हैं, इस द्वार पर कोई रोकने वाला है ही नही। जबकि संसार मे हम किसी द्वार पर जाए तो हम से कारण पूछा जाता है। हमारी जाति, धनी व निर्धनता के आधार पर पहले हमे तौला जाता है। तभी हमारे प्रवेश पर विचार किया जाता है। लेकिन परमात्मा के द्वार पर हम आए या जाएं , इसे कोई नही पूछ्ता।
 
यदि हम गहराई से विचार करे तो हम परमात्मा से बाहर कभी होते ही नही। बाहर भीतर वही तो समाया हुआ है। हमारे और परमात्मा के बीच सिर्फ एक हल्का -सा हमारे अंहकार का परदा ही तो है। इसी लिए कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस द्वार मे हम आने जाने के अधिकारी हैं ही , उस द्वार को क्यों छोड़े।

2 टिप्पणियाँ:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत बढिया !!

Smart Indian ने कहा…

अति सुन्दर!
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

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