शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५४

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,राति जगावन जाए॥
सरपनि होइ कै अऊतरै, जाइ अपुने खाए॥१०७॥


कबीर जी कहते हैं कि जो उस परमात्मा का सिमरन छोड़ कर ऐसे कामों मे लग जाते हैं जो रात मे किए जाते हैं और जीव को अंधेरे मे ले जाते हैं। ऐसे लोग साँप की तरह ही पैदा होते हैं, जो अपने बच्चों को ही खा जाता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि हम परमात्मा का ध्यान करना छोड़ देते है तो हमारा मन गलत रास्तों मे भटकने लगता है। ऐसे मे वह जो काम करता है वह उस के ही अहित का कारण बन जाता है।

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,अहोई राखै नारि॥
गदही होइ कै अऊतरै,भारु सहै मन चारि॥१०८॥


कबीर जी अपनी बात को पुन: दोहराते हुए कहते हैं कि परमात्मा की भक्ति छोड़ने से बहुत-सी स्त्रीयां व्रत आदि रखने लगती हैं कि इस तरह करने से  इष्ट खुश हो जाएगा। लेकिन कबीर जी कहते है कि ऐसी स्त्रीयां गधी के समान है जो व्यर्थ का चार मन  का बोझा ढोती रहती हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम उस परमात्मा का ध्यान ना कर के  व्यर्थ के कर्म कांडो को करते रहते हैं ।इस तरह के कर्म कांडो से सिर्फ हमारे मन पर बोझ ही बढ़ता है। हम इसी उधेड़ बुन मे उलझे रहते हैं कि हमने अपने कर्म कांड सही किए या नही। इस तरह व्यर्थ का बोझ हमारे मन पर बढ़ता रहता है और हम गधे की तरह उसे ढोते रहते हैं।वास्तव मे कबी जी हमे ऐसे व्यर्थ के कर्म कांडो से बचने के लिए सचेत कर रहे हैं।

4 टिप्पणियाँ:

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

Kabir ki siksha ke prachaar-prasaar main ek sarthak prys,
shubhkaamnayen .

Anita ने कहा…

सत्य वचन !

Unknown ने कहा…

dhnya kar diya baali ji

jai ho aapki !

Minakshi Pant ने कहा…

bilkul sahi baat kehte hain kabir ji

dhanyvad dost

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