कबीर सोई कुल भली, जा कुल हरि को दासु॥
जिहु कुल दासु न ऊपजै, सो कुल ढाकु पलासु॥१११॥
कबीर जी कहते हैं कि जिस कुल मे परमात्मा का साधक पैदा हो जाता है वही कुल सब से अच्छी है और जिस कुल मे परमात्मा की भक्ति करने वाला कोइ नही होता वही कुल ढाक पलाश की तरह व्यर्थ है ।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि किसी कुल का बड़ा होना और छोटा होना जैसा की समाज देखता है वह सही नही है। वास्तव में कुल तो वह बड़ी होती है जिस में परमात्मा का भक्त होता है अर्थात जिस कुल के लोग भलाई व सही रास्ते पर चलने वाले होते हैं वही कुल श्रैष्ट है। भले ही समाज उसे हीन दृष्टि से देखता हो। जैसे कबीर जी जुलाहा जाति के होते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सके और सदैव भलाई के कामों मे लगे रहे।जिस का कारण उन के कुल को सम्मान मिला।जबकि उन्हे समाज छोटे कुल का मानता था।यही कबीर जी हमे इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं।
कबीर है गइ बाहन सघन घन,लाख धजा फहराइ॥
इआ सुख ते भिख्खा भली,जऊ हरि सिमरत दिन जाइ॥११२।
कबीर जी कहते हैं कि यदि सवारी करने के लिए अनेक घोड़ें हो और महल आदि के ऊपर अनेक झंडें झूल रहे हों। लेकिन इन सब साधनों के होने पर भी इन का कोई फायदा नही है। इन सब से प्राप्त सुख से तो वह सुख अच्छा है कि भले ही भीख माँगनी पड़े ,लेकिन उस परमात्मा का ध्यान सदा बना रहे।
कबीर जी हमे समझना चाहते हैं कि भौतिक सुखों से हम कभी सुखी नही हो सकते,क्योकि ये सभी सुख अस्थाई हैं। वैसे भी भौतिक सुख सिर्फ शरीरिक सुख ही दे पाते हैं और जो साधन आज तुम्हारे पास हैं वे कल छिन भी सकते है। इसी लिए कबीर जी कहना चाहते हैं कि इन साधनों के ना होने पर भी यदि उस परमात्मा की भक्ति का सहारा लिआ जाए तो उस से मानसिक सुख मिलेगा। जो कि सदा स्थाई बना रहेगा।
जिहु कुल दासु न ऊपजै, सो कुल ढाकु पलासु॥१११॥
कबीर जी कहते हैं कि जिस कुल मे परमात्मा का साधक पैदा हो जाता है वही कुल सब से अच्छी है और जिस कुल मे परमात्मा की भक्ति करने वाला कोइ नही होता वही कुल ढाक पलाश की तरह व्यर्थ है ।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि किसी कुल का बड़ा होना और छोटा होना जैसा की समाज देखता है वह सही नही है। वास्तव में कुल तो वह बड़ी होती है जिस में परमात्मा का भक्त होता है अर्थात जिस कुल के लोग भलाई व सही रास्ते पर चलने वाले होते हैं वही कुल श्रैष्ट है। भले ही समाज उसे हीन दृष्टि से देखता हो। जैसे कबीर जी जुलाहा जाति के होते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सके और सदैव भलाई के कामों मे लगे रहे।जिस का कारण उन के कुल को सम्मान मिला।जबकि उन्हे समाज छोटे कुल का मानता था।यही कबीर जी हमे इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं।
कबीर है गइ बाहन सघन घन,लाख धजा फहराइ॥
इआ सुख ते भिख्खा भली,जऊ हरि सिमरत दिन जाइ॥११२।
कबीर जी कहते हैं कि यदि सवारी करने के लिए अनेक घोड़ें हो और महल आदि के ऊपर अनेक झंडें झूल रहे हों। लेकिन इन सब साधनों के होने पर भी इन का कोई फायदा नही है। इन सब से प्राप्त सुख से तो वह सुख अच्छा है कि भले ही भीख माँगनी पड़े ,लेकिन उस परमात्मा का ध्यान सदा बना रहे।
कबीर जी हमे समझना चाहते हैं कि भौतिक सुखों से हम कभी सुखी नही हो सकते,क्योकि ये सभी सुख अस्थाई हैं। वैसे भी भौतिक सुख सिर्फ शरीरिक सुख ही दे पाते हैं और जो साधन आज तुम्हारे पास हैं वे कल छिन भी सकते है। इसी लिए कबीर जी कहना चाहते हैं कि इन साधनों के ना होने पर भी यदि उस परमात्मा की भक्ति का सहारा लिआ जाए तो उस से मानसिक सुख मिलेगा। जो कि सदा स्थाई बना रहेगा।
5 टिप्पणियाँ:
कबीर के दोहों में व्यावहारिक जीवन दर्शन निहित है।
cool work frd__________:P
सार्थक प्रस्तुति ।
कबीर के दोहे जीवन मूल्य सिखाते हैं ।
बहुत उम्दा!
बसन्तपञ्चमी की शुभकामनाएँ!
कबीर के दोहे जीवन मूल्य सिखाते हैं| सार्थक प्रस्तुति|
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