रविवार, 2 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-३

पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ को नाथ ।
कह नानक तिह जानिए सदा बसत तुम साथ॥६॥

तन धन जे तो को दिओ तासो नेह ना कीन ।
कह नानक नर बाँवरे अब क्यों डोलत दीन॥७॥

तन धन संपै सुख दिओ अर जह नीके धाम ।
कह नानक सुन रे मना सिमरत काहे ना राम॥८॥

वह परमात्मा तो सदा हमारा भला चाहनें वाला है।हम जब स्वार्थ के वशीभूत होकर पाप के रास्तों पर चल-चल कर पापों से ग्रस्त हो जाते हैं और अपनें किए पापों के कारण भय से भर जाते हैं,उस समय भी हमारा उद्दार वही परमात्मा ही करता है। जब हमारी आस सभी जगह से टूट जाती है तब वही परमात्मा हम को सहारा देता है क्योंकि वह अनाथो का नाथ है ।वह सदा हमारे साथ ही रहता है।
जिस ने हमे यह शरीर दिया है यह धन दिया है अर्थात सभी कुछ हमें दिया है और बिना किसी शर्त के दिया है,उस की दया पर ही हम जीते हैं लेकिन फिर भी हम कभी उस से प्रेम नही करते। हम माया में रमे रहते हैं और उस को भूले ही रहते हैं,जिस का परिणाम यह होता है की हम दीन-हीन बनें फिरते रह जाते हैं,क्योकि हमें जीवन में सभी पदार्थों को भोगनें पर भी कभी संतोष प्राप्त नही होता।
इसी लिए गुरु जी कहते हैं कि हे मेरे मन ,जिस से तुझे यह घर-बार संपत्ति और इस तन की प्राप्ती हुई है और जिस परमात्मा नें तुझे इतने सुख दिए हैं। उस का ध्यान ,उस से प्यार क्यूँ नही करता?
हमारा मन बहुत अजीब होता है जो वस्तु हमें बिना परिश्रम के प्राप्त होती हम उस की ओर कभी ध्यान नही देते ,चाहे वह कितनी भी कीमती हो,अमुल्य हो। लेकिन व्यर्थ की छोटी-छोटी वस्तुओ के लिए,जो हमे लाभ की जगह हमेशा हानि ही पहूँचाती हैं उन के लिए हम मेहनत करते रहते हैं , उन के लिए हम सदा अधीर रहते हैं।
इस लिए जो भी हमें प्रभू कृपा से प्राप्त होता है,उस के लिए हमें उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिए ,उस का सिमरन करना चाहिए।

शब्द कीर्तन का एम.पी.३ का लिकं यह है-
http://www.ikirtan.com/

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