रविवार, 9 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१०



जौ सुख को चाहे सदा सरनि राम की लेह॥
कह नानक सुन रे मना दुरलभ मानुख देह॥२७॥

माया कारनि धावही मूरख लोग अजान॥
कह नानक बिन हरि भजन बिरथा जनम सिरान॥२८॥

जो प्रानी निसि दिन भजै रूप राम तिह जान॥
हरि जन हरि अंतर नही नानक साची मान॥२९॥

यह मनुष्य का जन्म बहुत मुश्किल से मिला है,लेकिन हम इस जीवन को पा कर भी सदा ऐसे कामों में लगे रहते हैं जिस से हमारे जीवन में कोई सच्चा आनंद नही उतर पाता।हम जीवन भर ऐसे कामों को पूरा करनें की कोशिश में लगे रहते हैं जो कभी पूरे नही हो सकते।क्योंकि इंन्सान की तृष्णा की आग कभी बुझती ही नही।हम जितना भी कमाएं,खाएं,जोड़े, जितनें राग रंग में डूबे रहे,लेकिन हमारे मन को कभी शांती नही मिलती।बल्कि इन भोगॊं को भॊग कर हमारी तृष्णा और भी अधिक बढती जाती है।इस लिए गुरु जी कहते हैं कि हे प्राणी यदि तू उस शाश्वत सुख को चाहता है तो उस प्रभू का ध्यान कर,उस की शरण में जा।कहीं ऐसा ना हो कि यह जो प्रभू की कृपा से तूनें मानस जन्म पाया है,इस अवसर को तू गवां दे।
यह बात सही है कि दुनिया में ऐसे लोगों की कोई कमी नही है जो अपनी नासमझी के कारण माया के पीछे ही दोड़ते रहते है,ऐसे लोगों का जीवन व्यर्थ ही बीतता जाता है।गुरू जी कहते हैं कि कही ऐसा ना हो कि तेरा जीवन भी उस प्रभू की भक्ति करनें की बजाए व्यर्थ ही चला जाए।
लेकिन इसके विपरीत जो मनुष्य उस प्रभू का सदा दिन रात ध्यान करते रहते हैं अर्थात उसी के ध्यान में सदा डूबे रहते हैं।गुरु जी कहते हैं कि ऐसे मनुष्य उस परमात्मा का रुप ही हो जाते हैं।इस लिए इस बात को सत्य ही मानों की परमात्मा के भगत और परमात्मा में कोई भेद नही होता।



0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपनें विचार भी बताएं।