शुक्रवार, 14 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१५



गरब करत है देह को बिनसै छिन में मीत॥
जिहि प्रानी हरि जस कहिओ नानक तिहि जग जीत॥४२॥

जिह नर सिमरन राम को सो जन मुकता जान॥
तिहि नर हरि अंतर नहीं नानक साची मान॥४३॥

एक भगति भगवान जिह प्रानी के नाहि मन॥
जैसे सूकर सुआन नानक मानो ताहि तन॥४४॥

इस शरीर पर किस बात का गर्व करें।यह भी अन्य चीजों की तरह एक दिन नाश हो जाना है।जो स्थाई नही है उस के प्रति मोह करना नासमझी है।गुरु जी कहते हैं कि जो इस नाशवान शरीर के होते हुए भी उस प्रभू के ध्यान में लगा रहता है ऐसा मनुष्य उस प्रभू की कृपा से विजय होक र वापिस जाता है।अर्थात परमात्मा के प्रताप से वह इसस संसार को जीत लेता है। इस जगत के मोह से वह ग्रस्त नही होता।
इस प्रकार प्रभू की भगती करने वाला प्राणी मुक्त हो जाता है। अर्थात वह संसार के मोह और सभी विकारॊं के आधीन नही रहता। गुरु जी कहते हैं कि ऐसा प्राणी प्रभू की भगती के कारण उसी प्रभू के समान गुणों वाला हो जाता है। फिर परमात्मा में और ऐसे प्राणी मे को ई अंतर नही रहता।
लेकिन गुरु जी कहते है कि जिस के अंदर भगती नही है,उस प्रभू के प्रति प्रेम नही है ऐसा प्राणी पशु के समान हो जाता है जैसे कोई कुत्ता या सूअर का शरीर हो।अर्थात भगतीहीन प्राणी पशु की तरह जीता है।इस लिए हमें सदा उस परमात्मा का ध्यान करते रहना चाहिए।

1 टिप्पणियाँ:

राजेंद्र माहेश्वरी ने कहा…

सिद्ध सरहपा के अनुसार ध्यान की सिद्धि को परखने के निम्न मानदण्ड बताये हैं। (1) आहार संयम (2) वाणी का संयम (3) जागरुकता (4) दौर्मनस्य (द्वेष) का न होना (5) दु:ख का अभाव (6) श्वासों की संख्या में कमी हो जाना (7) संवेदनशीलता । उक्त सात मानदण्डो से कोई भी साधक कभी भी अपने को जांच सकता हैं कि उसकी ध्यान-साधना कितनी परिपक्व और प्रगाढ हो रहीं है।

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